जगत में हम जब तक कुछ पाने की
इच्छा से विचरते हैं, हम सत्य से चूक जाते हैं. कुछ लाभ की आशा में हमारा मन तनाव
से भरा रहता है, क्यों कि जो भी मिलेगा वह भविष्य में ही मिलेगा. इसी उहापोह में हम
वर्तमान के पल से चूक जाते हैं. सृष्टि में प्रतिपल उत्सव चल रहा है, इसमें
भागीदार होना है न कि निज के सुख की आशा कुछ न कुछ संग्रह किये जाना है. पंछी गा
ही रहे हैं, आकाश की नीलिमा हजारों मील तक फैली है, हवा में फूलों की गंध बिन
बुलाये ही चली आती है. परमात्मा हर ढंग से हमें आनन्दित करने को आतुर है. हम न
जाने क्या चाहते हैं जो भविष्य की आशा में प्रकृति के इस विशाल आयोजन को अनदेखा कर
देते हैं. किसी तितली के पीछे भागते नन्हे बच्चे को उस क्षण में क्या मिल जाता है
जब एक पल को तितली किसी फूल पर ठहर जाती है. उसका मन खो जाता है और उसका पूरा
अस्तित्त्व ही उस तितली से एकाकार हो जाता है, उसी में वह आनन्दित हो जाता है. हमारा
मन जब वर्तमान के पल में सहज होकर जीना सीख लेता है, अतीत का भूत उसका पीछा नहीं
करता, भविष्य की कल्पना के जाल में नहीं उलझता, तब प्रकृति अपना द्वार खोल देती
है.
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