परोपकार का अर्थ है, दूसरों के जीवन को आसान बनाना. जरूरत पड़ने पर किसी का हाथ बंटा
देना. यदि खुद में सामर्थ्य है तो किसी की मदद करने का अवसर आने पर पीछे न हटना.
यह सब करते हुए यदि भीतर यह भाव जगाया कि हम अन्यों से श्रेष्ठ हैं, हम सेवा करते
हैं, तो यह परोपकार नहीं कहा जायेगा. इसमें अपनी हानि छिपी है, जो काम स्वयं के
लिए ही लाभप्रद नहीं है वह दूसरों के लिए भी आनंद का सृजन नहीं कर सकता. सहयोग
करके हमें किसी के स्वाभिमान, सम्मान तथा निजता का हनन नहीं करना है और न ही स्वयं
की किसी से तुलना करनी है. यदि मन तृप्त है, परम से जुड़ा हुआ है तो उसमें से सहज
ही मैत्री भाव जगता है. इसी भाव से युक्त होकर संत जगत में कार्य करते हैं,
जिन्हें हम परोपकार कहते हैं.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (26-06-2019) को "करो पश्चिमी पथ का त्याग" (चर्चा अंक- 3378) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार !
ReplyDeleteकाश यह भावना सभी में जाग्रत हो पाती। बहुत सारगर्भित चिंतन...
ReplyDeleteस्वागत व आभार ! यदि कोई नियमित योग साधना करता है तो एक न एक दिन यह भावना स्वतः ही प्रकट हो जाती है.
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