ध्यान की गहराई में ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय की त्रिपुटी खो जाती है. जानने वाला
ही जानने का विषय बन जाता है, अंत में केवल ज्ञान ही शेष रह जाता है. इस ज्ञान का
कारण कभी ज्ञेय नहीं होता. जैसे तीव्र गति से दौड़ते समय धावक को अपना बोध नहीं
रहता, वहाँ केवल दौड़ना होता है. नाचते समय नर्तक खो जाता है, केवल नर्तन ही रहता
है. शुद्ध ज्ञान ही परमात्मा का स्वरूप है. जिसका कोई कारण नहीं, बल्कि वही सबका
कारण है.
तत् त्वम असि! जय हो,जय हो,जय हो!
ReplyDeleteवाह ! इतनी सुंदर टिप्पणी...स्वागत व आभार दीदी !
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