दिन-रात, सुबह-शाम, सर्दी-गर्मी
सभी कुछ तो अपने आप हो रहे हैं. जन्म-मृत्यु, स्वास्थ्य-रोग, सुख-दुःख, यश-अपयश भी
अपने आप आते-जाते हैं. मानव की भूमिका इसमें कहाँ आरम्भ होती है ? कितना अच्छा हो
कि पूर्वजों की सीख के अनुसार वह दिन में पूरी निष्ठा से कार्य करे और रात्रि को
विश्राम करे. सुबह-शाम दोनों समय संध्या करे अर्थात कुछ देर शांत होकर बैठे और
अस्तित्त्व के साथ अपनेपन को अनुभव करे. सर्दी में सर्दियों का आहार-विहार अपनाये
और गर्मियों में उस ऋतु के अनुसार स्वयं को ढाले. जन्म-मृत्यु दोनों का स्वागत
करे, स्वास्थ्य-रोग दोनों में पथ्य-अपथ्य का ध्यान रखे. सुख-दुःख में मन को समता
में रखे. यश-अपयश को साक्षी भाव से सहन करे. आज विश्राम खो गया है, संध्या खो गयी
है, ऋतुु के अनूरूप आहार-विहार खो गया है और भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक भी नहीं रहा. जन्म
को रोका जा रहा है, मृत्यु को दूर खिसकाया जा रहा है. नकली मुस्कान को सुख का
पर्यायवाची मान लिया गया है और दुःख से सीखने की बजाय किसी न किसी तरह उसे भुलाने
का प्रयत्न चलता है. स्वयं ही स्वयं का यशगान होता है और जरा सी उपेक्षा आहत कर
देती है. मानव जैसे अस्तित्त्व से दूर हो गया है. जरूरत है एक बार फिर अपने भीतर
लौटने की, और सब कुछ बदल जाता है.
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