Sunday, November 20, 2011

मन व संसार


जुलाई २००२ 

जिस संसार के बारे में हम सुनते हैं कि यह असार है, अस्थिर है, पल पल बदलता है, वह कहीं बाहर नहीं हमारा अपना मन ही है. क्योंकि इस बाहरी जगत को हम अपने मन के माध्यम से ही जानते हैं जिसका जैसा स्वभाव है गुण हैं प्रकृति है संसार उसे वैसा ही नजर आता है. मन जिसे अपना मानता है उसे सुखी देखना चाहता है ताकि मन को खुशी मिले. मन जो करता है अपनी तुष्टि के लिये करता है. इसी मन को यदि अपने भीतर विवेक द्वारा नित्य-अनित्य का ज्ञान होता है तब यही मन भीतर जाने लगता है यानि संसार से परे सन्यास की यात्रा आरम्भ होती है. बाहर सब कुछ वैसा ही रहता है पर भीतर एक नया द्वार खुल जाता है. तब स्वयं की तुष्टि के लिये नहीं प्रेम के लिए प्रेम होने लगता है. क्योंकि इस तथ्य का ज्ञान होता है कि जो सदा आनंद में है वही आत्मा वह स्वयं है. 

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