Sunday, November 29, 2020

एक सजगता ऐसी भी हो

 जब मन में मान्यताओं व पूर्व धारणाओं की दीवार गिर जाती है, तब सत्य सम्मुख होता है. उस समय जो क्रिया शक्ति जगती है वह कर्ता विहीन होती है. जैसे हवा बहती है पर कोई बहाता नहीं ! जब शब्दों की आड़ में हम अपने अज्ञान को छिपा लेते हैं तब ज्ञान ही बन्धन बन जाता है. एक निर्विचार स्थिति ऐसी होती है जैसे अचानक घोर अँधेरे में कोई बिजली कौंध जाये, उस एक क्षण में सब कुछ एक साथ दिखाई पड़ता है. उसी में टिके रहने की कला ध्यान है. उस अखण्ड शांति का स्पर्श मन व बुद्धि की चंचलता को मिटाता है, उन्हें शुद्ध करता है. वही भीतरी संगम है, वही कैलाश है और वही अमृत का कुंभ है. इस योग से एक ऐसी सजगता का जन्म होता है, जो बस अपने आप में है, वह किसी वस्तु विशेष के प्रति नहीं है. इस तरह साधक का मन जिस खालीपन का अनुभव करता है उसमें कोई बोझ नहीं रहता. 


Wednesday, November 25, 2020

मुक्त हुआ है जो प्रमाद से

बुद्ध कहते हैं, प्रमाद मृत्यु है। प्रमाद अर्थात जानते हुए भी कि यह अनुचित है उससे छूटने का प्रयास न करना और जानते हुए भी कि यह सही है, उसे न करना। हम सभी जानते हैं रात्रि में जल्दी सोना और सुबह जल्दी उठना स्वास्थ्य के लिए अच्छा है, सात्विक और हल्का भोजन, स्वाध्याय, सेवा, सत्संग, नियमित व्यायाम और ध्यान; शारीरिक और मानसिक आरोग्य के लिए जरूरी है, पर क्या इसका पालन करते हैं। मृत्यु के क्षण में जब देह जड़ हो जाती है और चेतन शक्ति बाहर से उसे जरा सा भी हिला नहीं पाती, तब उसे वे पल स्मरण हो आते हैं जब जीवित रहते हुए इस देह को हिलाया जा सकता था, तब श्रम से बचते रहे। जब पैरों में दौड़ने की ताकत थी, हाथों में काम करने की शक्ति थी, मन में चिंतन का बल था, अब यह देह पत्थर की हो गई है, पर उस वक्त जब देह में स्पंदन था, मन को कितनी बार पत्थर सा नहीं बना लिया था, जिससे कोमल भाव झर सकते थे, जिससे मैत्री और करुणा के गीत फूट सकते थे, उससे द्वेष और रोष को उगने दिया था। मृत्यु के बाद वह सब याद आता है जो करना शेष रह जाता है, जो अभी किया जा सकता है, उस सबके प्रति जागना ही प्रमाद से मुक्त होना है। 

Monday, November 23, 2020

ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है

 संत कहते हैं, ‘इच्छा, क्रिया और ज्ञान’ आत्मा में ये तीनों शक्तियां हैं. इन तीनों से योग का घनिष्ठ संबंध है. सफलता तब मिलती है जब ये तीनों एक साथ प्रकट होती हैं. कुछ करने की भावना या मात्र इच्छा होना ही पर्याप्त नहीं है, इसे क्रिया के क्षेत्र में उजागर करने की आवश्यकता है. जब हम चाहते हैं कि हमारी इच्छा पूरी हो, ज्ञान और क्रिया शक्ति की भी आवश्यकता है. हर एक में क्रिया शक्ति मौजूद है, हमें इसे समुचित रूप से प्रवाहित करने की जरूरत है अन्यथा यह मन और देह में बेचैनी बढ़ाती है। दिल की धड़कन बढ़ जाती है, कुछ लोग मेज थपकते हैं, कुछ पैर हिलाते हैं, जो उनके भीतर की बेचैनी को ही दिखाता है. जब हम योग साधना और ध्यान करते हैं तभी कर्म और सेवा के क्षेत्र में सफल होते हैं. क्रिया जब ज्ञान  से संयुक्त होती है तब प्रसन्नता सहज ही मिलती है। योग से प्राप्त सजगता और सतर्कता का उपयोग किसी और का दोष ढूंढने में इस्तेमाल न करना कर्म की शक्ति को बढ़ाता है। यदि हम इस का निरीक्षण नहीं करते हैं, जीवन में आलस्य और जड़ता छा जाती  है. जब कर्म का आदर नहीं होता, जीवन में प्रमाद छा जाता है, इच्छाएं पूरी नहीं होती हैं. सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता है। जब हम ध्यान की स्थिति में विचारों से परे जाते हैं, इच्छा से ज्ञान की ओर, फिर कार्य करना सरल हो जाता है. जो इच्छा, ज्ञान में परिवर्तित हो जाती है, और क्रिया में फलित होती है, उसी से विकास होता है. 


Wednesday, November 18, 2020

लक्ष्य यदि कोई हो मन का

 

कृष्ण हमारी आत्मा हैं और अष्टधा प्रकृति ही मानो उनकी आठ पटरानियाँ हैं। रानियाँ यदि कृष्ण के अनुकूल रहेंगी तो स्वयं भी सुखी होंगी और अन्यों को भी उनसे कोई कष्ट नहीं होगा। इसी तरह मन, बुद्धि, अहंकार और पंच तत्व ये आठों यदि आत्मा के अनुकूल आचरण करेंगे तो देह भी स्वस्थ रहेगी और जगत कल्याण में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगी। मन से संयुक्त हुईं सभी इंद्रियाँ ऊर्जा का उपयोग ही करती हैं, मन यदि संसार की ओर ही दृष्टि बनाए रखता है तो अपनी ऊर्जा का ह्रास करता है. बुद्धि यदि व्यर्थ के वाद-विवाद में अथवा चिंता में लगी रहती है तब भी ऊर्जा का अपव्यय होता है। जैसे घर में यदि कमाने वाला एक हो और उपयोग करने वाले अनेक तथा सभी खर्चीले हों तो काम कैसे चलेगा. मन को ध्यानस्थ होने के लिए भी ऊर्जा की आवश्यकता है, तब ऊर्जा का संचयन भी होता है. यदि दिवास्वप्नों में या इधर-उधर के कामों में वह उसे बिखेर देता है तो मन कभी पूर्णता का अनुभव नहीं कर पाता. उसे यदि एक दिशा मिल जाए तबही वह संतुष्टि का अनुभव कर सकता है, वरना जो ऊर्जा हम नित्य रात्रि में गहन निद्रा में प्राप्त करते हैं, दिन होने पर जल्दी ही खत्म हो जाती है, और कोई महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए हमारे पास शक्ति ही नहीं होती।  

Monday, November 16, 2020

रहे अटूट यह पावन नाता

 

आज भाई दूज है, इसे यम द्वितीया भी कहते हैं। प्रत्येक बहन की हार्दिक इच्छा होती है कि उसका भाई सदा सुरक्षित रहे और भाई यही चाहता है उसकी बहन सदा सुखी रहे। अनादि काल से भाई-बहन के मध्य निश्छल प्रेम को प्रोत्साहित करने, सौमनस्य और सद्भावना का प्रवाह अनवरत प्रवाहित रखने के लिए संभवत: यह पर्व मनाया जाता रहा है। पुराणों में इस पर्व की कथा इस प्रकार कही गई है। सूर्य को संज्ञा से दो संतानें थीं, पुत्र यम और पुत्री यमुना । संज्ञा सूर्य का ताप सहन  न कर पाने के कारण अपनी छाया मूर्ति का निर्माण कर उसे ही अपने पुत्र और पुत्री को सौंप कर वहाँ से चली गई। छाया को यम और यमुना से कोई लगाव नहीं था पर दोनों का आपस में बहुत प्रेम था। विवाह उपरांत भी यमुना अपने भाई के यहाँ जाकर उसका हाल-चाल लेती रहती किन्तु व्यस्तता और दायित्व बोझ के कारण यम के पास समय नहीं था। एक बार कार्तिक शुक्ल द्वितीया को अचानक यम अपनी बहन के यहाँ जा पहुँचे। बहन ने बड़ा आदर सत्कार किया, विविध व्यंजन खिलाए और मस्तक पर तिलक लगाया। यम अति प्रसन्न हुए और उसे भेंट समर्पित की। चलते समय यमुना से कोई वर मांगने को कहा। यमुना ने कहा, यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो यही मांगती हूँ कि प्रतिवर्ष आज के दिन आप मेरे यहाँ आयें, और जो भाई आज के दिन बहन के घर जाकर उसका आतिथ्य स्वीकार करे और उसे भेंट दे, उसकी रक्षा हो। इस दिन यम-पूजा और यमुना में स्नान का विशेष महत्व है। भारत की अनुपम परंपरा और संस्कृति में हर संबंध की गरिमा को बढ़ाने वाले पर्व व उत्सव पिरोये हुए हैं।

Thursday, November 12, 2020

दीप जले दीवाली के

 धनतेरस से आरम्भ होकर  भाईदूज पर समाप्त होने वाला ज्योतिपर्व दीपावली आशा और उमंग का उत्सव है. इसका हर पक्ष जीवन को एक नया अर्थ प्रदान करता है. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की महत्ता को बताने वाला यह पर्व हमें प्रकाश के रूप में बिखर कर स्वयं का और अन्यों का पथ प्रज्ज्वलित करने का संदेश देता है. ज्ञान के देवता गणपति और समृद्धि की देवी लक्ष्मी की आराधना कर हम जीवन को अर्थवान और कामनाओं की पूर्ति के लिए सक्षम बनाते हैं. घर-बाहर की स्वच्छता और रंगोली, दीपदान, बन्दनवार आदि से शुभता का प्रसरण धर्म की वृद्धि में सहायक है. जिस प्रकार बाहर के दीपक का प्रकाश वातावरण को पवित्र करता है, अंतर्ज्योति का प्रकाश हमारे अज्ञान को हरता है. आत्मज्योति के दर्शन करने की प्रेरणा मोक्ष की ओर ले जाती है. मिष्ठानों व पकवानों को न केवल अपने परिवार के लिए बनाना बल्कि उनका वितरण समाज में मधुरता को बढ़ाता है. धनतेरस के दिन व्यापारियों की चाँदी है तो छोटी दीवाली के दिन हलवाइयों की, दीपावली के दिन मूर्तिकारों और दिए बनाने वाले कुम्हारों के श्रम का प्रतिदान मिलता है तो उसके अगले दिन किसानों के लिए लाभकारी है जब घर-घर में अन्नकूट का भोज बनता है. भाईदूज पर बहन-भाई के स्नेह का प्रतीक टीका केसर उत्पादकों के लिए फायदेमंद है. नए वस्त्र, नए बर्तन और भी न जाने कितनी खरीदारी दीपावली को सभी के लिए शुभ और लाभ देती है. आप सभी को असत्य पर सत्य की विजय के प्रतीक इस उत्सव पर हार्दिक शुभकामनायें ! 


Wednesday, November 11, 2020

जीवन इक वरदान बने जब

 सत्य को परिभाषित करना कुछ ऐसा ही है जैसे हवा को मुट्ठी में कैद करना. जगत में जो भी शुभ है, जो भी शुभता को बढ़ाने वाला है, शांति और आनंद को प्रदान करता है, वह सत्य है, शिव है, सुंदर है, वही परमात्मा है.  एक अनंत शक्ति जो सभी को अपना मानती है, जिसके मन में करुणा और प्रेम का सागर है, उसको अनुभव करने का अर्थ है स्वयं भी सब जगह उसी को देखना. देह मानकर हम स्वयं को सीमित समझते हैं, मन के रूप में फ़ैल जाते हैं, आत्मा के रूप में हमारे सिवा कोई दूसरा नहीं है, ऐसा अनुभव किया जा सकता है. ऐसे परमात्मा को जीवन में अनुभव करना हो तो आत्मा के निज धर्म का पालन करना होगा. प्रार्थना के हजार शब्दों को सुनने या याद करने से वह सुख नहीं मिल सकता जो शुभता बढ़ाने वाला एक छोटा सा कृत्य दे सकता है. जब स्वार्थ बुद्धि हट जाती है, मन स्वयं को कर्ता मानना छोड़ देता है, तब ही भीतर हल्कापन महसूस होता है और जीवन परमात्मा से मिले एक उपहार की तरह प्रतीत होता है.


Friday, November 6, 2020

समिधा बने यह जीवन अपना

 

अनंत युगों से सृष्टि का यह यज्ञ अनवरत चल रहा है। समय-समय पर न जाने कितने अवतार, संत, महापुरुष, ऋषि व जन सामान्य ने भी इस यज्ञ में अपनी आहुति प्रदान की है, वर्तमान में भी कर रहे हैं। कोई लेखक जब कष्ट उठाकर भी समाज के उत्थान के लिए साहित्य का सृजन करता है, अथवा कोई संगीतकार या गायक जब घंटों अभ्यास करता है, वे अपनी प्रतिभा की हवि का अर्पण ही कर रहे हैं। जन कल्याण का कोई भी अभियान हो उसमें अनेक जन अपने जीवन को ही समिधा बनाकर अर्पित कर देते हैं। वर्तमान में भी एक यज्ञ चल रहा है, कोरोना से बचाव का, इसके प्रभाव से स्वयं को व अन्यों को भी मुक्त रखने का। हम सभी को सजगता पूर्वक अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखकर इसमें अपनी समिधा डालनी है। सकारात्मक सोच, नियमित योग साधना, ध्यान का अभ्यास, प्रकृति का सम्मान तथा सात्विक आहार के द्वारा हम सहज ही अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर सकते हैं। ये सभी उपाय हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ा देते हैं।   

Wednesday, November 4, 2020

ध्यान के पथ का जो राही है

 

एक बार किसी साधक ने किसी संत से पूछा, ध्यान की कितनी विधियाँ हैं ? संत मुसकुराते हुए बोले, आज तक जितनी बार किसी ने ध्यान किया है हर बार एक नई विधि का जन्म हुआ है, जब परमात्मा  अनंत है तो उस तक पहुँचने के मार्ग भी अनंत ही होने चाहिए। इसलिए दुनिया में इतने धर्म हैं, इतने पंथ, संप्रदाय और मत हैं, सभी का लक्ष्य एक है पर हरेक अपनी प्रकृति और स्वभाव के अनुसार इस मार्ग पर चलता है। इसलिए भगवद गीता में कृष्ण ने भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग, ध्यान योग, जपयोग, प्रेम योग सभी का उल्लेख किया है। हर कोई जाने-अनजाने उसके पथ का ही राही है। जो स्वयं को नास्तिक मानता है वह भी और जो अपने को आस्तिक मानता है वह भी। परमात्मा से मिलने की इच्छा के जगने का अर्थ है मानव होने की गरिमा को अनुभव करना। एक शिशु जिस आनंद को सहज ही अनुभव करता है उसे पुन: पा लेना अथवा स्वयं के सही स्वरूप से मिलन। संसार से एकत्व ही इसकी परिणति है। समता की प्राप्ति ही इस मिलन पर प्राप्त होने वाला उपहार है।   

मुक्ति की जो करे साधना

 

सद्गुरु कहते हैं शिव हुए बिना कोई शिव की पूजा नहीं कर सकता ! शिव देह भाव से मुक्त हुई उस चेतना का नाम है जो परम प्रेमस्वरूप है। वह मुक्त है, निर्दोष है. उसमें एक भोलापन भी है। वह ज्ञान स्वरूप है पर उसे अपने ज्ञानी होने का अभिमान नहीं है। शिव का प्रतीक हमारी आत्मा का प्रतीक है। वह कितना सुकोमल और सुडौल है, उसमें कहीं कोई कोना उभरा  हुआ नहीं है, नुकीला नहीं है। वह किसी को हानि नहीं पहुँचाता। उस पर जल चढ़ाने का अर्थ है मन को निर्मल करना, फूल अर्पित करने का अर्थ है सारी कटुता को भीतर ही समा लेना उसे बाहर न आने देना। धतूरा चढ़ाने का अर्थ है अपने अवगुणों को समर्पित कर देना। बेल पत्र अर्थात तीनों गुणों – सत, रज, तम के पार चले जाने की साधना करना। शिव तत्व और गुरू तत्व एक ही हैं ऐसा भी शास्त्र कहते हैं।

Tuesday, November 3, 2020

उस अज्ञेय से प्रेम करे जो

 

जीवन बहुआयामी है। यहाँ हर किसी को अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार आगे बढ़ने का सुअवसर है। ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। एक छोटे से कण का पूरा ज्ञान भी आजतक कोई नहीं जान पाया। अंतरिक्ष की कौन कहे अभी भी धरती पर ऐसे कई स्थान हैं जहाँ मानव नहीं पहुंचा है। कुछ ऐसा है जो हमने जान लिया है, कुछ ऐसा है जो आज नहीं कल हम जान लेंगे पर कुछ ऐसा तब भी बच जाएगा जिसे हम कभी भी जान नहीं पाएंगे। वह अज्ञेय ही सारे रहस्यों का कारण है और उस आनंद का स्रोत भी वही  है जिसके कारण हर सुबह पंछी चहचहाते हैं, खरगोश दौड़ते-भागते हैं, फूल खिलते हैं, बच्चे मुसकुराते हैं और जिन्हें देखकर माँ के हृदय में वात्सल्य भरे प्रेम का अनुभव होता है। जहाँ से सारा शुभ जन्मता है और यदि अशुभ न हो तो शुभ का महत्व ही क्या रह जाएगा, अशुभ भी वहीं से उपजता है, जैसे माँ की फटकार में भी प्रेम छुपा है; पर वह दोनों से परे स्वयं में स्थित है। सारी ऊर्जा का स्रोत भी वही है।

Monday, November 2, 2020

सदा ऊर्जित होगा मन जो

 

जगत में विकास करना हो तो ऊर्जा के नए-नए स्रोत चाहिए. सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में वैज्ञानिक नयी खोजें कर रहे हैं। भीतर विकास करना हो उसके लिए भी ऊर्जा की आवश्यकता है। हम भोजन, जल, निद्रा और श्वास से ऊर्जा को ग्रहण करते हैं। ध्यान भी एक सहज और सशक्त साधन है जिससे हम मानसिक और आत्मिक ऊर्जा को बढ़ा सकते हैं। हमारे चारों ओर तरंगों का एक विशाल समुद्र है, जिसमें सकारात्मक और दिव्य ऊर्जा की तरंगें भी हैं। मन भी एक ऊर्जा है, यदि कुछ क्षणों के लिए ही इसे केंद्रित करके सकारात्मक विचारों से भर लें फिर स्वीकार भाव में मात् बैठे ही रहें तो ‘समान समान को आकर्षित करता है’ के नियम से दिव्य ऊर्जा स्वयं ही हमारे मन को छूने लगेगी, और यदि वह पहले से ही विचारों से भरा हुआ नहीं है तो उस रिक्त स्थान को भर देगी। मन यदि स्वीकार भाव में हो तो उसकी गहराई में स्थित आत्मा की झलक भी मिलने लगती है। इससे आत्मिक बल भी बढ़ता है और जीवन में भय और असुरक्षा का नाम भी नहीं रहता। प्राण ऊर्जा का संवर्धन प्राणायाम के द्वारा भी किया जा सकता है, किन्तु ध्यान रखना होगा कि मन श्रद्धा से भरा हो। जीवन के अंतिम क्षण तक यदि कोई अपने कार्य स्वयं करने में समर्थ रहना चाहता है तो उसे प्राण ऊर्जा का संवर्धन निरंतर करते रहना होगा।