Friday, March 29, 2019

पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते,


अल्प से हमें सुख नहीं मिलता, हमें अधिक की चाह है, किन्तु अधिक मिलने पर और अधिक की चाह खत्म नहीं होती. इसलिए संत कहते हैं हम अल्प से संतुष्ट होना सीख जाएँ तो अधिकतम से मिलने वाले आनंद को महसूस कर सकते हैं. जीवन का गणित भौतिक गणित से उल्टा है. यहाँ सब कुछ छोड़कर हम सब कुछ पा सकते हैं. संसार में बहुत कुछ पाकर भी कुछ नहीं पाया, ऐसा भी अनुभव कर सकते हैं. मानव के लिए जीवन में सबसे बड़ी संपदा है मन का उत्साह, उत्साहित व्यक्ति अपना रास्ता खोज ही लेता है और जगत को उससे क्या लाभ मिल सकता है, इसके विषय में चिन्तन करता है. जिसके जीवन में जड़ता है, वह स्वयं का लाभ भी नहीं कर पाता, वह लोभी हो जाता है. लोभ ही हिंसा को जन्म देता और अंततः दुःख में ले जाता है. अंतर में सेवा का भाव ही व्यक्ति को उदार बनता है और एक दिन अनंत प्रेम का फल उसके जीवन में लगता है. ऐसा साधक अस्तित्त्व के प्रति कृतज्ञ होकर उसके साथ एकत्व का अनुभव भी कर सकता है.


Thursday, March 28, 2019

न द्वेष्टि न कांक्षति



भगवद् गीता में कृष्ण कहते हैं जो न किसी से द्वेष करता है और न ही किसी की आकांक्षा करता है, वह मुक्त ही है. मन में यदि किसी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के प्रति द्वेष है तो मन शांत रह ही नहीं सकता, अशांत मन में सुख नहीं टिकता और सुख की राह पर चलकर ही तो आनंद के फूलों को पाया जा सकता है. परमात्मा प्रेम, शांति और आनंद ही तो है. यदि भीतर ये तीनों नहीं हैं तो उससे मुलाकात हो नहीं सकती, और यदि हम उससे ये तीनों मांगते हैं तो ऐसे हृदय में जहाँ द्वेष है, इन्हें रखेंगे कैसे. आग और पानी जैसे एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही शांति और दुःख एक साथ नहीं रहते. इसी प्रकार जिस हृदय में आकांक्षा बसती है, वहाँ भी बेचैनी है, फिर ईश्वर को पुकारने का धैर्य कहाँ बचता है. यदि उससे आकांक्षा पूर्ण करने की प्रार्थना की तो वह पूरी हो भी सकती है पर उससे मिलन नहीं होगा और कुछ समय बाद एक नई आकांक्षा जन्म ले लेगी. परमात्मा के निकट जाना हो तो मन को खाली करके जाना होगा, तभी वह स्वयं आकर उसमें रहेगा.

Wednesday, March 27, 2019

तेरी है जमीं तेरा आसमां


यह पृथ्वी हमारा घर है, इसका नीला समुन्दर और विशाल गगन मंडल हमारी कल्पनाओं को बहने और उड़ने के लिए एक सहज और सुंदर आधार देता है. हरे-भरे जंगल और सुंदर पशु-पक्षी इसको कितना आकर्षक बनाते हैं. यह सुंदर पृथ्वी विभिन्न अन्नों व फलों-शाकों से हमें पोषित करती है. चन्द्र और सूर्य रात और दिन के प्रहरी की तरह जीवन को विकसित होने के लिए ऊष्मा देते हैं. मानव की गरिमा इस बात में है कि वह इस सारे आयोजन का साक्षी है, वह चाहे इसमें अपना अल्प योगदान ही दे सकता हो किन्तु यदि उसकी चेतना विकसित होकर इसका आनंद भी लेना सीख जाती है, तो परमात्मा का तात्पर्य सिद्ध हो गया जानना चाहिए. मानव जब स्वार्थ में या संकीर्णता के कारण इस सृष्टि को आँख भर कर निहारे भी नहीं और इसे नष्ट करने के उपाय खोजे तो दिव्यता का अपमान होता है. जो सत्य, शिव और सुंदर है उसे देखने के लिए पहले भीतर उसके प्रति सम्मान और प्रेम तो जगाना ही होगा.

ज्ञान के पथ पर चलता है जो


संत कहते हैं जैसे एक ही धातु से भिन्न भिन्न आकार व क्षमता वाले उपकरण बनाये जा सकते हैं,  एक धातु से ही भगवान की मूर्ति भी बन सकती है और हथियार भी गढ़े जा सकते हैं. उसी प्रकार चेतना शक्ति एक ही है उसी से प्रेम भी प्रकट हो सकता है और नफरत भी. अक्षर वही हैं, एकता  का संदेश भी दे सकते हैं और वैमनस्य की आग भी फैला सकते हैं. सुर और असुर एक ही ऋषि की संताने हैं. यह हमारे ज्ञान पर निर्भर करता है कि हम किसे चुनते हैं और किस वस्तु का प्रयोग किस प्रकार करते हैं. अंततः अज्ञान ही सारे क्लेशों के मूल में है और विवेक ज्ञान द्वारा ही इस अज्ञान को मिटाया जा सकता है. अनुभव के स्तर पर होने वाला ज्ञान ही वास्तव में विवेक है, जो सत्य-असत्य, सही-गलत, नित्य-अनित्य का भेद करना सिखाता है. ऐसा ज्ञान ही वक्त पड़ने पर हमारे काम आता है.

Tuesday, March 26, 2019

यज्ञ बने यह जीवन अपना


समय की धारा अपनी सहज गति से बहती जाती है. कोई उसके तट पर बैठ कर भी प्यासा रहे तो यह उसकी भूल है. जीवन का हर पल अपने भीतर एक सम्भावना को व्यक्त करने की क्षमता रखता है. कभी हम उस पल को पहचान लेते हैं और स्वयं के भीतर उस तृप्ति को महसूस करते हैं जो मन को अभीप्सित है. अक्सर हम समय को व्यर्थ ही गुजर जाने देते हैं. ऐसा नहीं है कि वह तृप्ति कोई ऐसी वस्तु है जिसे हम सहेज कर रख सकते हैं, पर जो पल हम सजगता के साथ जीते हैं वे भविष्य के लिए एक थाती बनकर हमारे साथ हो लेते हैं. जो समय यूँही चला जाता है वह खुले हुए नल से नाली में बहते पानी की तरह ही बह जाता है, उसका कोई प्राप्य नहीं है. सृष्टि में प्रतिपल कुछ न कुछ घट रहा है, मानव को छोड़कर सभी एक यज्ञ में अपनी आहुतियां डाल रहे हैं. हमें भी अपने हिस्से का योगदान इसमें करना है, यह भाव बना रहे तो प्रकृति उसके लिए साधन जुटा ही देती है.

Friday, March 22, 2019

बाँध सके न कर्म जिसे



जीवन के दो ढंग हो सकते हैं. पहले में हम अपने सुख-दुख के लिए स्वयं को जिम्मेदार समझते हैं और दूसरे में जगत को. संसार में रहते हुए जो भी कर्म हमें करने हैं उनके पीछे की चेतना यदि पहले प्रकार की है तो वह कर्म को पूरी निष्ठा के साथ करेगी, व्यक्तिगत हानि-लाभ से ऊपर उठकर जो भी आवश्यक है उसके लिए प्रयत्न करेगी. जबकि दूसरे प्रकार की चेतना वाले व्यक्ति कर्म को भार भी समझ सकते हैं और अपने अहंकार को बढ़ाने का साधन भी. कर्म चाहे कोई भी हो, सेवा, दान, धर्म अथवा खेती, नौकरी और व्यापार, इसे करने वाले के मन की स्थिति कैसी है इस बात पर उस कर्म का फल उसे मिलेगा. स्वयं को जाने बिना हम यह कभी नहीं जान पाएंगे कि किस कर्म का कौन सा फल हमने अपने लिए नियत कर लिया है. इसीलिए योग साधना का इतना महत्व है.

Monday, March 18, 2019

बासंती बहे बयार जब



फागुन माह के आगमन के साथ ही ह्रदयों में इन्द्रधनुष बनने-संवरने लगते हैं, और पूर्णिमा आते-आते दिलों में उमंग बढ़ जाती है. इस बासंती रुत में प्रकृति अपने पूरे श्रृंगार के साथ खिल जाती है. पलाश, कंचन, सेमल और अशोक के वृक्ष कुसुमों का परिधान पहन लेते हैं. नींबू और आम के वृक्ष जैसे साल भर से संग्रहित हुआ अपना सुरभि स्रोत उड़ाने को व्याकुल हैं. हवा में एक मदमस्त कर देने वाली सुगंध अनायास ही समाई रहती है. बगिया रंग-बिरंगे फूलों से सजी है, सभी मानो एक-दूसरे से होड़ ले रहे हैं. खेतों में गेहूँ और सरसों झूमती-इठलाती नजर आती हैं. फागुनी हवा चलती है तो लोकमन भी संकोच की बेड़ियाँ तोड़कर ढोल-मंजीरे व झांझ की ताल पर थिरकने को आतुर हो उठता है. कण-कण से वसंत राग सहज ही फूटने लगता है. ऐसे में होलिकादहन के उत्सव में जो हृदय के सारे वैर और द्वेष भाव को जला देता है, उसके अंतर में ही आह्लाद सुरक्षित रहता है. उसी आह्लाद को उल्लास पूर्ण वातावरण में एक-दूसरे के साथ बांटने का नाम होली है.

Thursday, March 14, 2019

मन होगा वैरागी जब



आत्मा की सबसे बड़ी मांग है स्वाधीनता. हर दुःख किसी न किसी प्रकार की पराधीनता का द्योतक है. हम अपनी इच्छाओं के गुलाम होकर जीते हैं और किसी न किसी प्रकार उन्हें पूर्ण करना चाहते हैं. यदि वे पूर्ण हो जाती हैं तो सुख उस स्वाधीनता का होता है जो उस इच्छा से मुक्त होकर हमें मिलता है न कि उस वस्तु के मिलने का जिसकी चाह पूरी हो गयी. जो इच्छा पूर्ण नहीं होती उसकी गुलामी हमें सहनी पड़ती है. शास्त्रों में कहा गया है, वैराग्यवान को कौन सा सुख नहीं मिलता? क्योंकि वह किसी की पराधीनता स्वीकार नहीं करता वह मुक्ति के सुख का अनुभव करता है. ध्यान  में जो सहज आनंद साधक को मिलता है वह भी इसी क्षणिक मुक्ति का परिणाम है. यदि कोई नियमित ध्यान साधना करता रहे तो धीरे-धीरे सभी इच्छाएं सूखे पत्तों की तरह गिरने लगती हैं. पहले व्यर्थ हटता है फिर एक अवस्था ऐसी आती है जब जो आवश्यक हो अपना आप ही उसे प्राप्त होने लगता है, किसी इच्छा की आवश्यकता ही नहीं रहती.

सुख का स्रोत एक वही है



जब दुःख को दूर करने के लिए हम संसार की ओर देखते हैं, यह भूल ही जाते हैं कि यह दुःख आया कहाँ से है ? जिस संसार से किसी वक्त हमने सुख लिया था उसी का परिणाम तो यह दुःख मिला है, फिर इसके निवारण के लिए जो उपाय हम करने वाले हैं, वह क्या नये दुःख में नहीं ले जायेगा. साधक की दृष्टि जब इस सत्य को देख लेती है तब वह हर दुःख के निवारण के लिए भीतर देखता है, अथवा परमात्मा की ओर देखता है. स्वयं के स्वरूप में कोई दुःख नहीं है, परमात्मा सच्चिदानंद है, उसके स्मरण से जिस शांति का अनुभव होता है वह अनमोल है. बुद्धि में धैर्य हो तभी वह जड़ व चेतन दोनों के भेद को समझ सकती है, तथा चेतन में विश्राम पा सकती है. कृष्ण उसी को बुद्धियोग कहते हैं.

Wednesday, March 13, 2019

खाली होगा मन का घट जब



जैसे पैर में कोई काँटा लगा हो तो पीड़ा का अहसास दिलाता है, वैसे ही मन में जगी कोई भी कामना हमारे मन को व्यथित कर देती है. यदि हम उस पीड़ा से बचने के लिए कामना को पूरा कर लेते हैं  तो उस क्षण तो एक सुख का अहसास होता है पर संस्कार रूप में वह कामना मन में अपना अधिकार जमा लेती है. दुःख से बचने के लिए पुनः-पुनः उसे पूर्ण करते रहना होगा, किन्तु हर बार पहले से ज्यादा गहरा संस्कार मन पर चढ़ता जायेगा. व्यसन इसी तरह व्यक्ति को अपना शिकार बना लेते हैं. यदि हम उस कामना को पूर्ण नहीं करते और उस पीड़ा को समता भाव से सह लेते हैं तो उस संस्कार को मिटाने के लिए मानो हमने जल बहाया. पहली बार में वह संस्कार मिटने वाला नहीं  है किन्तु बार-बार मन को दृढ़ता से रोका तो एक दिन ऐसा अवश्य आएगा कि वह कामना नहीं जगेगी, जगी भी तो मन को पकड़ेगी नहीं.

Sunday, March 10, 2019

लोकतंत्र की सदा विजय हो


चुनावों की तिथियाँ घोषित हो चुकी हैं और आचार संहिता भी लागू हो गयी है. उम्मीद की जा सकती है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में हिंसा रहित और निष्पक्ष चुनाव होंगे. एक उत्सव की तरह सारा देश इसमें पूरे मन से भाग लेगा और आने वाले दिनों में समाचार पत्रों व टीवी पर विरोधी पक्ष एक दूसरे के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग नहीं करेंगे. एक सामान्य भारतीय नागरिक होने के नाते इतनी उम्मीद तो रखी जा सकती है कि कोई भी दल आचार संहिता का उल्लंघन नहीं करेगा और देश का वातावरण सौहार्दपूर्ण बना रहेगा. देश के भीतर तथा आदेश के बाहर कुछ ऐसे तत्व हैं जो आपसी विवादों का गलत उपयोग करते हैं, उन्हें इसका अवसर न मिले ऐसा प्रयास हर नागरिक व पार्टी को करना ही चाहिए. कृपया आने वाले चुनावों में अपना मत देकर लोकतंत्र के इस उत्सव में आप सभी सम्मिलित हों.

Friday, March 8, 2019

खिलकर ही जीवन मिलता है



सत्य समग्रता में मिलता है विश्लेषण में खो जाता है. हम एक फूल को देखते हैं और उसकी सुन्दरता से मुग्ध हो जाते हैं, उस बीज का हमें स्मरण ही नहीं आता जिसने इस फूल तक की यात्रा में क्या-क्या सहा है. बीज से फूल बनने को जो एक क्षण में देख लेता है वही परमात्मा के जगत होने को भी स्वीकार कर सकता है. फूल कोमल है, सुंदर है, सुगंध से भरा है, अपनी और खींचता है, लुभाता है, बीज में ऐसा कुछ भी नहीं, कोई विशेषता नहीं कि हम उसे अपने घरों, मंदिरों या केशों में सजाएं. हाँ, बीज के भीतर अंकुरित होने की शक्ति है जो समुचित आधार पाकर विकसित हो सकती है. ऐसे ही जगत रंगीन है, अपने रूप, रंग, गंध, स्वाद और स्पर्श से आकर्षित करता है, परमात्मा निर्विशेष है, उसे आप किसी को दिखा नहीं सकते, वह अदृश्य है. उससे ही सब कुछ हुआ है. उसके साथ यदि कोई जुड़ जाता है तो सहज ही वह भी विकसित होने लगता है, उसका अहम गल जाता है और आत्मा का जो बीज भीतर सुप्तावस्था में था, प्रस्फुटित होने लगता है.

Thursday, March 7, 2019

महिला दिवस पर शुभकामनायें



नारी तुम केवल श्रद्धा हो..अथवा अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी..आजतक स्त्री को या तो देवी कहकर पूजा जाता रहा है अथवा उसको कमजोर समझ कर दया की जाती रही है. मध्यकाल में तो नायिका बनाकर उसके नख-शिख का वर्णन करके उसे भोग की वस्तु ही बना दिया गया. किन्तु अब समय बदल रहा है, स्त्री ने स्वयं को पहचान कर अपनी परिभाषा स्वयं लिखनी आरम्भ कर दी है. वह एक मानवी की भांति जीवन के हर रंग, उत्सव और रस का अनुभव स्वयं करना चाहती है. वह सागर की गहराइयों को भी नाप सकती है और अन्तरिक्ष की ऊंचाइयों को भी. आज कोई भी कर्मक्षेत्र ऐसा नहीं रह गया है जहाँ महिला के कदम न पड़े हों. उसकी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आध्यात्मिक क्षमता पर अब किसी को कोई संदेह नहीं रह गया है. महिला दिवस उसकी उपलब्धियों पर गर्व करने का क्षण है और साथ ही उन लाखों महिलाओं की आवाज में आवाज मिलाने का वक्त भी जिन्हें अभी इंसाफ नहीं मिला है, जो आज भी किसी न किसी कारण वश अपनी प्रतिभा को विकसित नहीं कर पा रही हैं.

Tuesday, March 5, 2019

राग-द्वेष से मुक्त हुआ जो


अविद्या अथवा मोह हमें यथार्थ ज्ञान से वंचित रखता है. सुख का प्रलोभन हमें रागी बनाता है और दुःख का भय द्वेषी. यदि हमारे कर्म राग, द्वेष अथवा मोह से परिचालित होंगे तो कर्मों के बंधन से हमें कोई बचा नहीं सकता. इसके विपरीत यदि हम सहज भाव से अपने नियत तथा कर्त्तव्य कर्म आदि करते हैं तो उसका कोई कर्माशय नहीं बनता, जिसका फल हमें बाद में भोगना पड़े. राग और द्वेष ही वे दो असुर हैं जिनके साथ एक साधक को अपने भीतर युद्ध लड़ना होता है. यदि कोई भी प्रवृत्ति राग प्रेरित होगी तो उसका संस्कार और गहरा हो जायेगा और बाद में उससे मुक्त होने के लिए उतना ही अधिक प्रयास करना पड़ेगा. इसी प्रकार यदि दुःख से बचने के लिए हम उद्यम से द्वेष करते हैं तो प्रमाद का संस्कार गहरा होता जाता है. कृष्ण कहते हैं, राग और द्वेष मनुष्य के बहुत बड़े शत्रु है, जो प्रत्येक इंद्रिय के प्रत्येक विषय में स्थित रहते हैं, इनसे से ही काम-क्रोध की उत्पत्ति होती है, जो समस्त विकारों के मूल हैं। जिसके मन में कामना है, वह कभी सच्चे अर्थ में सुखी नहीं हो सकता। कामना की पूर्ति में एक बार सुख की लहर-सी आती है, पर कामना ऐसी अग्नि है, जो प्रत्येक अनुकूलता को आहूति बनाकर अपना महत्व बढ़ाती रहती है। जितनी कामना की पूर्ति होती है, उतनी यह अधिक बढ़ती है। कामना अभाव की स्थिति का अनुभव कराती है। जहां अभाव है, वहीं प्रतिकूलता है और प्रतिकूलता ही दुख है। कामना कभी पूर्ण होती ही नहीं, इसलिए मनुष्य कभी दुख से मुक्त हो ही नहीं सकता। इसलिए साधक को इन काम-क्रोध के मूल राग-द्वेष का त्याग करना है.


Monday, March 4, 2019

हीरा जनम अमोल था


५ मार्च २०१९ 
जीवन कितना छोटा है, यह बात उससे बेहतर कौन जान सकता है जिसके जीवन की शाम हो गयी है और किसी भी पल घोर अंधकार घट सकता है. जीवन कितना बहुमूल्य है यह मृत्यु शैया पर पड़े किसी व्यक्ति की आँखों में स्पष्ट झलकता है. हम अभी न तो इतने वृद्ध हुए हैं और न ही इतने अस्वस्थ, इसलिए अपने जीवन के अनमोल क्षणों को यूँही व्यर्थ के वादविवाद में उलझाये चले जा रहे हैं. हमारे शास्त्रों में सत्य की तुलना रत्नों और हीरों से की गयी है, क्योंकि जगत की दृष्टि में वे अति कीमती हैं, किन्तु सत्य शाश्वत होने के कारण उनसे भी कीमती है और उस सत्य का अनुभव किये बिना एक और जन्म गंवा देना उन दुखों को पुनः निमन्त्रण देना है जिनका अनुभव इस जन्म में हम अनेक बार कर चुके हैं. यदि कोई एक बार निश्चय करता है कि इस क्षण से आगे उसका हर पल अपने भीतर के उस सत्य की खोज में सहायक होगा जिसकी आराधना ऋषि-मुनि करते आये हैं, तो इसी क्षण से जीवन में एक अनोखी सी सुवास भरने लगती है. दिशाएं भी उसका भान कराने में उत्सुक हैं और हवाएं भी, बादल और यह पावन भूमि भी. जगत जिस राह चलता आ रहा है चलता रहेगा, पर एक साधक को तो इसी कोलाहल में उस अदृश्य की वीणा के स्वर सुनने हैं.  

Sunday, March 3, 2019

शम्भो महादेवा


४ मार्च २०१९ 
वर्ष के ग्याहरवें महीने फाल्गुन के कृष्ण पक्ष की अमावस्या के एक दिन पहले जब अंधकार का पूर्ण साम्राज्य छाने ही वाला होता है, शिव की आराधना की जाती है. शिव कल्याणकारी हैं, वह संहारशक्ति और तमोगुण के अधिष्ठाता हैं. वह परम विरक्त हैं. उग्र होते हुए भी सौम्य हैं. रात्रि का आगमन होते ही सूर्य अस्त हो जाता है, प्रकृति की सारी गतिविधियाँ शांत हो जाती हैं, निद्रा में चेतना भी खो सी जाती है. इसलिए शिव का अवतरण दिवस शिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है. शास्त्रों के अनुसार इस दिन शिव रूपी ब्रह्मांडीय ऊर्जा को रात्रि जागरण काल में साधक द्वारा सहज ही ग्रहण किया जा सकता है. इस उपासना के फलस्वरूप साधक के हृदय से काम, क्रोध, लोभ आदि विकारों का नाश होता है और परम शांति, सुख व प्रेम का प्रसार होता है.  


Friday, March 1, 2019

शिव अनंत है


२ मार्च २०१९ 
सभी धर्म यह मानते हैं कि परमात्मा एक है. उस तक पहुंचने के मार्ग पृथक-पृथक हो सकते हैं. इसमें भी किसी को संदेह नहीं कि परमात्मा सर्वज्ञ है, सर्व शक्तिमान है और सब जगह है. वह प्रेम और आनंद का सागर है. मानव के भीतर अनंत की कल्पना का बीज जिस क्षण पड़ा, परमात्मा जैसे पूर्णतया स्पष्ट हो गया. हमारे चारों और का संसार पदार्थ और ऊर्जा से बना है, बनने और मिटने वाला है, किन्तु विज्ञान कहता है पदार्थ को न तो बनाया जा सकता है न ही नष्ट किया जा सकता है, केवल उसका रूप बदला जा सकता है. इसी प्रकार ऊर्जा का भी केवल रूप बदला जा सकता है, उसे सृजित या नष्ट नहीं किया जा सकता. पदार्थ और ऊर्जा दोनों के पीछे जो एक और तत्व है, जो दोनों का मूल है, जो कभी नहीं बदलता, वही शिव तत्व है. ऐसा कभी नहीं था कि वह नहीं था, ऐसा कभी नहीं होगा कि वह नहीं होगा, और ऐसा नहीं है कि वह अभी नहीं है. उस एक में टिककर ही पूर्ण विश्राम का अनुभव संतजन करते हैं.