Friday, February 27, 2015

हो निर्भार परम तक पहुंचें

जनवरी २००८ 
इन्द्रियगत ज्ञान सीमित है वह हमें विस्मय से नहीं भरता, स्वरूपगत ज्ञान अनंत है, वह विस्मय से भर देता है. आनंद की झलक दिखाता है. अज्ञान को स्वीकारने से ऐसा ज्ञान मिलता है. इस विशाल सृष्टि में हम कितने नगण्य हैं, कितना कम जानते हैं, बहुत कुछ है जो जान नहीं सकते यह अहसास हमें झूठे अभिमान से मुक्त कर देता है, हम हल्के हो जाते हैं. उतने ही हम सत्य के निकटतर होते जाते हैं. जानने का बोझ उठाये हम थकते ही हैं, उस जानने से न हमारा कोई लाभ होता है न किसी अन्य का, क्योंकि सभी को यह भ्रम है कि वही जानता है. ज्ञेय सदा ज्ञान से छोटा है, हम ज्ञेय में ही उलझे रहते हैं. दृश्य से हटकर दृष्टा में आना ही योग का प्रथम चरण है. विस्मय से परे वह तत्व है जहाँ स्तब्धता है, मौन है, आनंद है और वैराग्य है. तृष्णा का वहाँ कोई स्थान नहीं. परम शांति है, प्रेम है !  

Thursday, February 26, 2015

समता में रहना ही ध्यान

जनवरी २००८ 
ध्यान क्या है ? जैसे कोई यह नहीं कह सकता कि प्रेम क्या है, वैसे ही ध्यान को परिभाषित करना कठिन है. मन जब विशाल हो जाता है, मन में कोई दुराव नहीं होता, छल नहीं होता, आग्रह नहीं होता, उहापोह नहीं होती, मन बस खाली होता है तभी ध्यान घटता है. इच्छा मन को दूषित करती है, पैदा होते ही मन में तरंगें उठने लगती हैं, पूरा करने का प्रयास शुरू हो जाता है. यदि पूरी होती नहीं दिखे तो कैसी अशांति का अनुभव होता है. कितनी भी निर्दोष इच्छा क्यों न हो मन की समता भंग कर जाती है. लेकिन जो मन ध्यान का अभ्यासी है वह तुरंत समता में आ जाता है. उसे समता के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिए. इच्छा पूरी हो या न हो वह अपनी समता खोना नहीं चाहता. वह जानता है आज एक बात तो कल दूसरी बात कारण बनेगी और जब इच्छा पूर्ण हो भी जायेगी तब लगेगा यह न भी होती तो क्या फर्क पड़ने वाला था. बाहर कुछ भी बदले वह व्यर्थ ही है, भीतर का बदलना ही वास्तविक है और भीतर का बदलाव बाहर पर निर्भर नहीं करता, वह ज्ञान, प्रेम और ध्यान पर निर्भर करता है.    

Tuesday, February 24, 2015

दूर भी तू पास भी तू

जनवरी २००८ 
हमें जीवन से जो भी चाहिए वह हमारे पास पहले से ही मौजूद है. जीवन के लिए जो भी चाहिए वह भी हमारे पास है, तो भी हम जीवन से क्या चाहते हैं कि सारी उमर बीत जाती है और हमारी तलाश खत्म नहीं होती. शायद इसलिए कि हमें इस बात का पता ही नहीं है कि जो खजाना हमारे पास है वह हमने गहरे गाड़ दिया है और ऊपर इतनी घास उग आयी है कि अब लगता ही नहीं कभी यहाँ खजाना रहा होगा. सत्संग के औजार से घास हटाने का कम शुरू होता है, झलक मिलने लगती है. भीतर शांति, आनंद व प्रेम का अनुभव होने लगता है, पर मजा तो तब है जब हम इन्हें संसार में बाँट सकें. अनंत खजाना है तो अनंत शक्ति भी होनी चाहिए. अध्यात्म की यात्रा कितनी विचित्र है, यहाँ विरोधाभास ही विरोधाभास है. एक पल में लगता है मंजिल करीब है फिर अगले ही पल लगता है अभी तो चलना शुरू ही किया है.  

Saturday, February 7, 2015

शुभकामना

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,

आज ही इस वर्ष की पहली यात्रा पर निकलना है, सो आने वाले शिवरात्रि के पर्व के लिए शुभकामना के साथ दो सप्ताहों के लिए विदा.

बने सार्थक जीवन अपना

जनवरी २००८ 
देहाध्यास का लक्षण है जड़ता, लोभ, काम, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध तथा अहंकार तथा आत्मा का लक्षण है उत्साह, सृजनात्मकता, उदारता, संतोष, प्रेम, ज्ञान तथा निरभिमानता ! हमें यह अधिकार है कि दोनों में से जो चाहे चुन लें. देहाध्यास की आदत जन्मों-जन्मों की पड़ी हुई है, यह उसी तरह सरल है जैसे पानी का सदा नीचे को बहना. आत्मा में रहने के लिए अभ्यास करना पड़ता है. ऊपर उठना हो तो श्रम चाहिए, गिरने में तो कोई श्रम नहीं है. मन, बुद्धि तथा संस्कार के माध्यम से आत्मा ही अपनी शक्ति को दिखाती है, पर वह उससे परे है, जीवन की सार्थकता इनके पार जाकर उस आत्मा को जानने में है. हमारे जीवन से उसकी साक्षी मिले जो है पर अदृश्य है, जहाँ सारे द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं और जो सारे विरोधाभासों का मूल है. वह परमात्मा ही केंद्र है, वही लक्ष्य है, परिधि से केंद्र तक जाना है. 

Thursday, February 5, 2015

नित नूतन बहे रस धार

जनवरी २००८ 
परम ऊर्जा के साथ एक होने की कला सिखाने के लिए तीन मददगार हैं, परमात्मा, गुरू तथा शास्त्र ! परमात्मा की कृपा तो सब पर है उसने मानव देह प्रदान की है. अन्नमय, प्राणमय तथा मनोमय कोष तो पशु के भी जाग्रत हैं पर विज्ञान मय व आनन्दमय कोष केवल मानव को ही प्राप्त हैं. सद्गुरु के पास जब हम जाते हैं तो वह इन सारे कोशों को जाग्रत करना ही नहीं सिखाता इनके पार ले जाने की कला भी सिखाता है, जहाँ मुक्ति का द्वार खुल जाता है. विज्ञान को नमन कि उसने ज्ञान को कितना सुलभ बना दिया है, गुरू के द्वार यदि कोई नहीं  जा सकता तो टीवी आदि के माध्यम से गुरू ही घर आकर ज्ञान की मोती लुटाते हैं. ऐसा ज्ञान जो नित नवीन है, हमें सरस सहज बनाता है, एकरसता को तोड़ता है.    

कोरा कागज है यह मन मेरा


यह सृष्टि कितनी अद्भुत है, सागर की लहरें, गगन के सितारे, पंछियों के गान, चाँद की चाँदनी सभी जैसे उत्सव मना रहे हैं ! परमात्मा रसरूप है, उसकी बनाई सृष्टि रस का सागर है ! संसार तो दर्पण है, हम जैसे हैं वैसा ही हमें उसमें दिखाई पड़ेगा. संसार तो कोरा कागज है हम जैसा चित्र उस पर बनाएं वैसा ही दिखता है. हम यदि चाहें तो इस पर कुछ न बनाएं कोरा ही रहने दें तो मोक्ष का द्वार खुल जाता है ! मोक्ष का अर्थ है परम स्वंत्रता ! परम स्वीकार ही परम आजादी है, अमनी भाव है, मन है ही नहीं ! वहीं अखंड आनंद है, परम दशा है, सुख-दुःख वहाँ है ही नहीं ! जहाँ हम परम ऊर्जा के साथ एक हो जाते हैं !  

Tuesday, February 3, 2015

योग साधना होगा पल पल

जनवरी २००८ 
जीवन बड़ा महिमापूर्ण है ! जब कोई निर्विकार हो जाये, निश्चेष्ट हो जाये, निशब्द हो जाये तो जीवन अपने शुद्ध रूप में प्रकट होता है. बंधन अपने आप खुल जाते हैं, बल्कि बंधन में डालने वाले ही सहायक हो जाते हैं. ऐसा जीवन सहज व स्वाभाविक है. वही व्यक्ति धनी है जो अपने स्वार्थ को पहचान ले. स्व का अर्थ है आत्मा तथा अर्थ का उद्देश्य ! आत्मा क्या है इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता, बस इतना ही कि यह भगवान की शक्ति है. आत्मा बुद्धि से परे है, इसे अनुभव से ही जाना जा सकता है. यह ज्ञान, शांति, सुख, प्रेम, आनंद, शक्ति व पवित्रता का पुंज है, ये सभी दैवीय गुण आत्मा का सहज स्वभाव है. इनमें स्थिर रहना तथा इन्हें निरंतर परमात्मा के अनंत स्रोत से बढ़ाते रहना ही योग है. जब भीतर निरंतर आनंद का झरना बहता रहे, ज्ञान की वर्षा होती रहे तो मानना चाहिए कि परमात्मा से योग हो गया. पूर्ण विश्रांति का अनुभव तभी होता है. सारी दौड़ तब समाप्त हो जाती है. भीतर स्थिरता का अनुभव होता है. 

Monday, February 2, 2015

आँख जगे तो प्रीत लगे

जनवरी २००८ 
हमारे जीवन का हर पल भय और शंका से रहित हो, तृप्ति भरा हो, आनंदमय हो, इसके लिए जरूरी है कि हम धर्म का आश्रय लें. ज्ञान पाकर ही ऐसा सम्भव है. ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो, इसका जवाब हरेक को खुद ही खोजना होगा, सत्य का आचरण हो तो ज्ञान अपने आप प्रकट होने लगता है. ज्ञान का अंत भक्ति में होता है. भक्ति का प्राकट्य जीवन में हो जाये तो जगत से कुछ प्रयोजन कहाँ रह जाता है. भक्ति का आरम्भ होता है शुभ के प्रति लगाव से, सबके प्रति मंगल की कामना से,, सत्य की राह पर चलने की भीतरी आकांक्षा से. जब हम स्वयं की नजरों में ऊपर उठते हैं तभी भीतर वाला परमात्मा हमें स्नेह करता सा लगता है. उसकी कृपा तो अनवरत बरस ही रही है. परमात्मा के प्रति श्रद्धा भाव उसके प्रति हमारी आँखें खोल देता है.

Sunday, February 1, 2015

प्रेम हमें निर्दोष बना दे

जनवरी २००८ 
जो प्रेम घटता-बढ़ता रहता है, वह आसक्ति है. जिस प्रेम में कभी परदोष देखने की भावना नहीं होती, जिसमें कोई अपेक्षा नहीं होती, जो सदा एक सा रहता है, वह शुद्ध प्रेम है. थोड़ा सा भी मोह यदि भीतर है तो अपेक्षा रहती है, ऐसा प्रेम सिवाय दुःख के क्या दे सकता है ? दुःख का एक कतरा भी यदि भीतर हो, मन का एक परमाणु भी यदि विचलित हो तो मानना होगा कि मूर्छा टूटी नहीं है. बाहर का संसार जब प्रभावित न करे, क्रोध, मान, माया, लोभ जब न रहें तब हमें सभी निर्दोष दिखते हैं.