जनवरी २००८
इन्द्रियगत ज्ञान
सीमित है वह हमें विस्मय से नहीं भरता, स्वरूपगत ज्ञान अनंत है, वह विस्मय से भर
देता है. आनंद की झलक दिखाता है. अज्ञान को स्वीकारने से ऐसा ज्ञान मिलता है. इस
विशाल सृष्टि में हम कितने नगण्य हैं, कितना कम जानते हैं, बहुत कुछ है जो जान
नहीं सकते यह अहसास हमें झूठे अभिमान से मुक्त कर देता है, हम हल्के हो जाते हैं.
उतने ही हम सत्य के निकटतर होते जाते हैं. जानने का बोझ उठाये हम थकते ही हैं, उस
जानने से न हमारा कोई लाभ होता है न किसी अन्य का, क्योंकि सभी को यह भ्रम है कि
वही जानता है. ज्ञेय सदा ज्ञान से छोटा है, हम ज्ञेय में ही उलझे रहते हैं. दृश्य
से हटकर दृष्टा में आना ही योग का प्रथम चरण है. विस्मय से परे वह तत्व है जहाँ
स्तब्धता है, मौन है, आनंद है और वैराग्य है. तृष्णा का वहाँ कोई स्थान नहीं. परम शांति
है, प्रेम है !