Monday, February 28, 2022
ॐ नम: शिवाय
Monday, February 21, 2022
भक्ति करे कोई सूरमा
संत कहते हैं, मानव के मन के भीतर आश्चर्यों का खजाना है, हजारों रहस्य छुपे हैं आत्मा में. जो कुछ बाहर है वह सब भीतर भी है. मानव यदि परमात्मा को भूल भी जाये तो वह किसी न किसी उपाय से याद दिला देता है. एक बार कोई उससे प्रेम करे तो वह कभी साथ नहीं छोड़ता. वह असीम धैर्यवान है, वह सदा सब पर नजर रखे हुए है, साथ है, उन्हें बस नजर भर कर देखना है. उसे देखना भी हरेक के लिए बहुत निजी है, बस मन ही मन उसे चाहना है, कोई ऊपर से जान भी न पाए और उससे मिला जा सकता है. उसके लिए अनेक शास्त्रों को पढ़ने की जरूरत नहीं, कठोर तप करने की जरूरत नहीं, बस भीतर प्रेम जगाने की जरूरत है. सच्चा प्रेम, सहज प्रेम, सत्य के लिए, भलाई के लिए, सृष्टि के लिए, अपने लिए और परमात्मा के लिए..जिस प्रेम में कभी परदोष देखने की भावना नहीं होती, कोई अपेक्षा नहीं होती, जो सदा एक सा रहता है, वह शुद्ध प्रेम है, वही भक्ति है. जिस प्रेम में अपेक्षा हो वह सिवाय दुःख के क्या दे सकता है ? दुःख का एक कतरा भी यदि भीतर हो, मन का एक भी परमाणु यदि विचलित हो तो मानना होगा कि मूर्छा टूटी नहीं है, मोह बना हुआ है. इस जगत में किसी भी मानव को जो भी परिस्थिति मिली है, उसके ही कर्मों का फल है. राग-द्वेष के बिना यदि उसे वह स्वीकारे तो कर्म कटेंगे वरना नये कर्म बंधने लगेंगे.
Monday, February 14, 2022
लहर मिले सागर से
संसार से सुख लेने की आदत ने मनुष्य को परमात्मा से दूर कर दिया है। यह सुख जुगनू के टिमटिमाने जैसा प्रकाश देता है और ईश्वरीय सुख सूर्य के प्रकाश जैसा है। दोनों में कोई तुलना हो सकती है क्या ? ईश्वर को सच्चिदानंद कहा गया है। सत अर्थात् उसका अस्तित्त्व कण-कण में है, चित अर्थात् वह चेतन है और वह शुद्ध आनंद स्वरूप है। जो सदा है, हर स्थान पर है, चेतन है तथा आनंद है वही ईश्वर है। इसका अर्थ हुआ वह सदा आनंद के रूप में हमारे भीतर भी है। मन उसी चेतन के कारण चेतना का अनुभव करता है। मन सागर की सतह पर उठने वाली लहरों की भाँति है और परमात्मा वह आधार है जिस पर सागर टिका है। लहर यदि गहराई में जाए तभी सागर के तल का स्पर्श कर सकती है। हम परमात्मा का सान्निध्य पाने के लिए ध्यान द्वारा मन की गहराई में जाएँ तभी उस आधार को जान सकते हैं। हरेक को यह अनुभव स्वयं ही करना होगा अन्यथा परमात्मा के विषय में भ्रम की स्थिति कभी भी दूर होने वाली नहीं है।
Monday, February 7, 2022
तेरी है ज़मीं तेरा आसमाँ
परमात्मा ने हमें अनगिनत उपहार दिए हैं। यह सारा जगत, तन, मन तथा बुद्धि उसकी नेमत ही तो हैं। वही प्रकृति के सौंदर्य द्वारा हमें लुभाता है। रंग-रूप और ध्वनि का यह सुंदर आयोजन क्या उसकी लीला नहीं है ? हम उसकी दी हुई नेमतों का उपयोग किस भावना के साथ करते हैं, इसी पर हमारे सुख-दुःख निर्भर हैं। यदि हम कृतज्ञता की भावना के साथ जीवन जीते हैं तो कोई दुःख वहाँ है ही नहीं। हर पल एक अवसर बनकर हमारे सम्मुख आता है, जिसमें हम परमात्मा से दूर या निकट हो सकते हैं। अहंकार बढ़ाने वाली चेष्टा हमें परमात्मा से दूर कर देती है। मन में छाया स्वीकार का भाव हमें अपनी जड़ों को पोषित करने में सहायक है। जगत से सुख और मान पाने की चाह न रहे तो हम उसके निकट ही हैं। परमात्मा हमारी श्वासों से भी निकट है यदि हम उसके जगत की भूल-भुलैया में इस कदर खो न जाएँ तो उससे परिचय हो सकता है । हमारा हर मार्ग उसके घर के सामने से गुजरता है पर हम अपनी धुन में न जाने क्या पाने की आशा में आगे बढ़े जाते हैं। हमारी प्रार्थनाएँ यांत्रिक न बनें और प्रेम से संचालित हो तो हम उसे अपना अंतरंग मित्र बना सकते हैं ।