संत कहते हैं, मानव के मन के भीतर आश्चर्यों का खजाना है, हजारों रहस्य छुपे हैं आत्मा में. जो कुछ बाहर है वह सब भीतर भी है. मानव यदि परमात्मा को भूल भी जाये तो वह किसी न किसी उपाय से याद दिला देता है. एक बार कोई उससे प्रेम करे तो वह कभी साथ नहीं छोड़ता. वह असीम धैर्यवान है, वह सदा सब पर नजर रखे हुए है, साथ है, उन्हें बस नजर भर कर देखना है. उसे देखना भी हरेक के लिए बहुत निजी है, बस मन ही मन उसे चाहना है, कोई ऊपर से जान भी न पाए और उससे मिला जा सकता है. उसके लिए अनेक शास्त्रों को पढ़ने की जरूरत नहीं, कठोर तप करने की जरूरत नहीं, बस भीतर प्रेम जगाने की जरूरत है. सच्चा प्रेम, सहज प्रेम, सत्य के लिए, भलाई के लिए, सृष्टि के लिए, अपने लिए और परमात्मा के लिए..जिस प्रेम में कभी परदोष देखने की भावना नहीं होती, कोई अपेक्षा नहीं होती, जो सदा एक सा रहता है, वह शुद्ध प्रेम है, वही भक्ति है. जिस प्रेम में अपेक्षा हो वह सिवाय दुःख के क्या दे सकता है ? दुःख का एक कतरा भी यदि भीतर हो, मन का एक भी परमाणु यदि विचलित हो तो मानना होगा कि मूर्छा टूटी नहीं है, मोह बना हुआ है. इस जगत में किसी भी मानव को जो भी परिस्थिति मिली है, उसके ही कर्मों का फल है. राग-द्वेष के बिना यदि उसे वह स्वीकारे तो कर्म कटेंगे वरना नये कर्म बंधने लगेंगे.
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 23 फरवरी 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सुंदर आध्यात्मिक भाव।
ReplyDeleteसार्थक पोस्ट।
स्वागत व आभार कुसुम जी !
Deleteभक्तिभाव से ओतप्रोत आध्यात्मिक चिंतन ।
ReplyDeleteस्वागत व आभार जिज्ञासा जी!
Deleteबहुत बहुत आभार!
ReplyDeleteसच कहा... बहुत ही सुंदर सृजन।
ReplyDeleteसादर
स्वागत व आभार अनीता जी !
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