Monday, November 26, 2018

छिपा सांत में है अनंत भी


२६ नवम्बर २०१८ 
अध्यात्म हमें देहाध्यास से छुड़ाकर आत्मा में स्थित होने की कला सिखाता है. जन्म के साथ ही सबसे पूर्व हमारा परिचय अपनी देह के साथ होता है. एक प्रकार से देह को ही हम अपना स्वरूप समझने लगते हैं. जैसे जैसे शिशु बड़ा होता है, उसका परिचय अपने आस-पास के वातावरण व संबंधियों से होता है. उसका नाम उसे सिखाया जाता है, धर्म, राष्ट्रीयता और लिंग के आधार पर उसे उसकी पहचान बताई जाती है. जीवन भर यदि कोई व्यक्ति इसी पहचान को अपना स्वरूप समझता रहे तो वह जीवन के एक विराट सत्य से वंचित रह जाता है. गुरू के द्वारा जब यह पहचान दी जताई है, तब उसका दूसरा जन्म होता है, इसीलिये ब्राह्मण को द्विज कहा जाता है. यह पहचान उसके वास्तविक स्वरूप की है, जो एक अविनाशी तत्व है. स्वयं के भीतर इसका अनुभव करने के लिए ही गुरू के द्वारा साधना की एक विधि दी जाती है. सभी साधनाओं का एकमात्र लक्ष्य होता है साधक को देहाध्यास से मुक्त कराकर अपने असीमित स्वरूप का भान कराना. यही अध्यात्म विद्या है और यही भारत की जगत को सबसे बड़ी देन है.

Friday, November 23, 2018

भीतर ही वह सागर मिलता


२४ नवम्बर २०१८ 
जो ‘है’ वह शब्दों में नहीं कहा जा सकता, जो ‘नहीं’ है उसके कहने का कोई अर्थ नहीं. किन्तु इतना कहना भी कुछ कहने में ही आता है. संत कहते हैं, परमात्मा को जाना नहीं जा सकता, उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता हाँ, उसके साथ एक हुआ जा सकता है, उसके होने को अनुभव किया जा सकता है. उसकी उपस्थिति को उसी तरह दूसरे को नहीं दिखाया जा सकता जैसे कोई दूर बैठे मित्र को अपने मुल्क की हवा का स्पर्श नहीं करा सकता, सूरज की किरणों की नरमाई-गरमाई को नहीं भेज सकता, उसके लिए तो उसे स्वयं ही आना पड़ेगा. इसी तरह हरेक को अपने भीतर स्वयं ही जाना पड़ेगा, जो भीतर जायेगा वही वापस नहीं आएगा, क्यों कि जो आयेगा वह भी कुछ कह नहीं पायेगा. अध्यात्म का पथ कितना रहस्यमय है इसलिए ही इसका आकर्षण भी इतना अधिक है. यहाँ जो गया वह जगत में रहकर भी निज स्वभाव में ही बना रह सकता है.

Monday, November 19, 2018

अलख, निरंजन, भव भय भंजन


२० नवम्बर २०१८ 
संत कहते हैं परमात्मा ही जगत के रूप में दिखाई देता है, और वह उससे परे भी है. इसी प्रकार हम देह, मन, बुद्धि आदि के माध्यम से व्यक्त होते हैं पर उससे परे भी हैं, अपने उस सहज आनंद स्वरूप को जानना ही साधना का लक्ष्य है. स्वयं के असंग, निरंजन, निर्विकार स्वरूप को जानकर ही संत जगत में रहते हुए भी अलिप्त दिखाई देते हैं. वह प्रकृति के गुणों से प्रभावित नहीं होते बल्कि प्रकृति के नियंता बन जाते हैं. साधक का जब अपने मन, बुद्धि अदि पर नियन्त्रण होता है वह जगत के सुख-दुःख आदि से प्रभावित नहीं होता. जीवन जिस क्षण जैसा उसके सम्मुख आता है, उसे सहज स्वीकार करके वह इस जगत से वैसे ही निकल जाता है जैसे मक्खन से बाल. कमल के पत्तों पर पड़ी पानी की बूंद जैसे उसे भिगो नहीं सकती, साधक को स्वयं के उसी स्वरूप में स्थित होना है.

Thursday, November 15, 2018

एकै साधै सब सधे


१६ नवम्बर २०१८ 
एक ही चेतना से यह सारा संसार बना है, यह बात हमने सुनी है, पढ़ी है पर जब तक स्वयं इसका अनुभव न कर लें तब तक हमारे जीवन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता. संत कहते हैं, यदि कोई आस्तिक है तो उसे चेतना के अस्तित्त्व के बारे में विश्वास होता है, यह पहला कदम है. जब साधना के द्वारा वह अपने भीतर इस सत्य का अनुभव करता है, सारे जगत के प्रति एकत्व का भाव उसके भीतर जगता है. जीवन में एक परिवर्तन सहज ही घटने लगता है. मन की चाल ही बदल जाती है, जो पहले सदा अपने हित की बात सोचता था अब अन्यों की सुख-सुविधा का ध्यान उसे पहले आता है. जगत प्रतिद्वन्द्वी न रहकर मित्र बन जाता है. धरती, आकाश, सूर्य, चन्द्र, वनस्पति जगत, जीव-जन्तु सभी का आधार एक ही है, यह जानकर मन फूल के जैसे हल्का हो जाता है. बुद्धि अब लाभ-हानि की भाषा में नहीं सोचती, वह स्वयं को चेतन का अंश मानकर पावनी होने का प्रयास करती है. लघु अहंकार विगलित हो जाता है और शुद्ध अहं स्वयं का अनुभव करता है.

Wednesday, November 14, 2018

मुक्तिबोध बने साधन सुख का


१५ नवम्बर २०१८ 
चेतना यदि मुक्त है तो ही स्वयं का अनुभव कर पाती है. मन की गहराई में छिपे प्रकाश की झलक उसे मिलती है. अंतर सुख की धार में भीग कर अखंड शांति का अनुभव उसे मिलता है. मुक्ति का स्वाद जिसने एक बार भी चख लिया है वह जगत में रहकर भी बंधा हुआ नहीं है. हम भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए जितना समय व ऊर्जा व्यय करते हैं, उससे आधा भी स्वयं को जानने में नहीं लगाते. हमारे शास्त्रों का मूल मन्त्र है, “असतो मा सद गमय”. हमें उस सत्य तक पहुंचना है जो सदा एक रस है. जगत में रहते हुए सभी कुछ करते हुए भी उस सत्य का अनुभव किया जा सकता है, आवश्यकता है उसके प्रति श्रद्धा भाव जगाने की. शास्त्रों के अध्ययन व संतों के सत्संग से ही भीतर इस परम श्रद्धा का उदय व्यक्ति के भीतर होता है.  

समाधान दिलाये योग


१४ नवम्बर 2018
भगवद् गीता में कृष्ण कहते हैं, जो न किसी से उद्ग्विन होता है न किसी को उद्ग्विन करता है, वह मुझे प्रिय है. इसका अर्थ हुआ हम जगत में इस तरह रहना सीख लें कि किसी को हमसे कोई परेशानी न हो, और न जगत ही हमारे लिए कोई समस्या बने. प्रगाढ़ नींद में ऐसा ही होता है, जगत होते हुए भी नहीं रहता और हम जगत के लिए अदृश्य हो जाते हैं. समाधि में भी ऐसा होता है, जगत का भान नहीं रहता और देह भान भी नहीं रहता, देह से ही जगत आरम्भ होता है. इसका अर्थ हुआ कि जगते हुए भी समाधि में बने रहने की कला आ जाये तभी यह सम्भव है. समाधि के लिए योग साधना में बताये यम, नियम का पालन पहला कदम है, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार दूसरा तथा धारणा व ध्यान के तीसरे कदम के बाद समाधि तक पहुंचा जा सकता है. इसीलिए कृष्ण बार-बार अर्जुन को योगी बनने के लिए कहते हैं.

Tuesday, November 13, 2018

नमन करें हम सूर्यदेव को


१३ नवम्बर २०१८ 
भारत अति प्राचीन देश है, शास्त्रों के अनुसार जितनी पुरानी यह सृष्टि है उतनी ही प्राचीन हमारी संस्कृति है. वेदों, उपनिषदों, पुराणों और स्मृतियों के रूप में हमें असीमित ज्ञान संपदा मिली है. भारतीय मनीषियों ने जीवन को एक लीला के रूप में देखा है, इसी कारण उत्सवों के क्षेत्र में भारत सर्वाधिक समृद्ध है. आज छठ का एक अनोखा पर्व सोल्लास मनाया जा रहा है, सर्वप्रथम जिसका जिक्र महाभारत व पुराणों में मिलता है. प्रकृति के साथ जोड़ने वाला यह उत्सव समाज को अनेक सुंदर संदेश देता है, नदियों को स्वच्छ रखने का संदेश और परिवार में सौहार्द और प्रेम को बढ़ावा देने का संदेश भी. इस पर्व में हमें भारत की लोक संस्कृति की अद्भुत झलक मिलती है. समाज के सभी वर्ग मिलजुल कर एक साथ उगते व अस्त होते हुए सूर्य को जब अर्घ्य देते हैं, वह दृश्य दर्शनीय होता है.

Monday, November 12, 2018

मन मौसम को पढ़ना होगा


१२ नवम्बर २०१८ 
दीपावली का उत्सव मधुर स्मृतियों से उर आंगन को सजा कर विदा हो गया. दीपकों की झालरें अब नजर नहीं आतीं, पटाखों का शोर भी कम हो गया है. जीवन उसी पुराने क्रम में लौट आया है. मौसम में बदलाव स्पष्ट नजर आने लगा है. सर्दियों के वस्त्रों को धूप दिखाई जा रही है, और सूती वस्त्रों को आलमारी में सहेज कर रखने के दिन आ गये हैं. बाहर के मौसम की तरह मन का मौसम भी बदलता रहता है. कभी सतोगुणी मन परमात्मा के प्रति समर्पण भाव से भर जाता है तो कभी रजोगुण कर्म में रचाबसा देता है. तमोगुण को बढ़ने का अवसर मिल जाये तो अच्छे-भले दिन में अलस भर जाता है, फिर कहीं चैन नहीं मिलता. साधक का लक्ष्य नियमित साधना के द्वारा तीनों गुणों के पार निकल जाना है, फिर तीनों का मालिक बनकर या तीनों का साक्षी बनकर वह सदा मुक्त ही बना रह सकता है.  

Thursday, November 1, 2018

भीतर का जब दीप जले


१ अक्तूबर २०१८ 
जो है वह कहने में नहीं आता जो नहीं है उसके लिए हजार कहा जाये, पानी पर लकीर खींचने जैसा ही है. आत्मा है, आकाशवत् है, शून्यवत है, उसके बारे में क्या कहा जाये, मन नहीं है, पर मन के पास हजार अफसाने हैं, अतीत की स्मृतियाँ और भविष्य की कल्पनाएँ..जो अभी हैं अभी ओस की बूंद जैसे उड़ गयीं. मन एक जगह टिकता ही नहीं. बुद्धि इन दोनों के मध्य व्यर्थ ही चकराया करती है. कभी आत्मा के दर्पण में स्वयं को देखकर मुग्ध होती है कभी मन के माया जाल में फंसकर व्यर्थ ही आकुल-व्याकुल हो जाती है. जिसने इस खेल को देख लिया वह यदि चाहे तो मुक्त हो सकता है, पर जन्मों की आदत है बंधन की, जो मुक्त होने नहीं देती. जिसने इस खेल को देखा ही नहीं वह तो सुख-दुःख के झूले में डोलता ही रहेगा. उत्सव जगाने का प्रयत्न करते हैं, व्यर्थ का कचरा घर से बाहर करने का तात्पर्य है, मन को भी विचारों से खाली करना है, मोह-माया के जाले झाड़ने हैं, आत्मदीप जलाना है और मिश्री सी मधुर चिति शक्ति को भीतर जगाना है.