Tuesday, January 31, 2012

परम खजाना


नवंबर २००२ 
रामरस के बिना हृदय की तृष्णा नहीं मिटती. परम प्रेम हमारा स्वाभाविक गुण है, उससे च्युत होकर हम संसार में आसक्त होते हैं. कृष्ण का सौंदर्य, शिव की सौम्यता, और राम का रस जिसे मिला हो वही धनवान है. जिस प्रकार धरती में सभी फल, फूल व वनस्पतियों का रस, गंध व रूप छिपा है वैसे ही उस परमात्मा में सभी सदगुण, प्रेम, बल, ओज, आनंद व ज्ञान छिपा है, संसार में जो कुछ भी शुभ है वह उस में है तो यदि हम स्वयं को उससे जोड़ते हैं, प्रेम का संबंध बनाते हैं तो वह हमें इस शुभ से मालामाल कर देता है, दुःख हमसे स्वयं ही दूर भागता है, मन स्थिर होता है. धीरे धीरे हृदय समाधिस्थ होते हैं. एक बार उसकी ओर यात्रा शुरू कर दी हो तो पीछे लौटना नहीं होता...दिव्य आनंद हमारे साथ होता है और तब यह जीवन एक उत्सव बन जाता है.

वह कौन है


परमात्मा हमारा जीवन धन है, हमारा सर्वस्व, हमारे अस्तित्त्व का प्रमाण, वह हमारा हितैषी है. शुभचिंतक और सुहृदयी. वह हमारी अंतरात्मा है. भक्त के पोर-पोर में उसका नाम अंकित है, उसके प्रति वह अपने भीतर इतना प्रेम उमड़ते महसूस करता है कि उसकी गूंज तक उसे सुनाई पड़ती है. उसका नाम लेते ही आँखें नम हो जाती हैं. वह प्रियतम है, अनुपम है और मधुमय है. वही जानने योग्य है. एक उसी की सत्ता कण-कण में व्याप्त है, वही चैतन्य हर जड़-चेतन में समाया है. उसी का प्रकाश सूर्य आदि नक्षत्रों में है और उसी का प्रकाश है जो आँखें बंद करते ही उसे घेर लेता है. 

Monday, January 30, 2012

परम पुकारे अपनी ओर


अक्तूबर २००२ 
यह जगत प्रतिपल बदल रहा है. मनुष्य किसी भी स्थिति में क्यों न हो हँसी और खुशी उसका साथ नहीं छोड़ती जैसे दुःख उसका चिर साथी है. दोनों आते-जाते रहेंगे भिन्न भिन्न रूपों में, पर एक तो वही है अपना आप, जिसे न दुःख व्याप्ता है न सुख, जो प्रेम है, आनंद है, और मधुमय है, रसमय  है. जो जीवन को अर्थ देता है, एक चुनौती देता है, लक्ष्य देता है. जो बाहें फैलाये खड़ा है हमें हर पल पुकारता है. जो अपना दिव्य स्वरूप धारे हमें अपनी ओर आकर्षित करता है उसका जैसा बनने की हमें प्रेरणा देता है. वह हमें खुद सा बनाना चाहता है बल्कि उसने हमने खुद सा बनाया ही था, निष्पाप, निर्दोष..पर हम ही उससे दूर चले गये और जगत नाम की उस वस्तु को थामने लगे जो हाथ से मुट्ठी से रेत की तरह फिसलती जाती हैं, हमारा तन जो दिन रात जरा की ओर बढ़ रहा है, कोई न कोई व्याधि इसे सताती ही है, हमारा मन जो सदा किसी न किसी ताप में जलता ही रहता है. और वह शीतल फुहार सा, अलमस्त झरने सा, प्रेम का सोता हमारे भीतर ही कहीं बह रहा है उससे हम अनजान ही बने रहते हैं. 

Friday, January 27, 2012

जीवन उत्सव है


पत्रं पुष्पं फलं तोयं......श्रद्धा रूपी पत्र तथा मन रूपी पुष्प, हमारे कर्मों का फल रूपी फल और अपने अंतर का प्रेम भरा अश्रुजल यही तो हमें कृष्ण को अर्पित करना है. कृष्ण प्रेम का दूसरा नाम है, उसे प्रेम करो तो वह हजार गुणा करके लौटाता है. उसकी ओर जो एक बार चल दे उसे वह भटकने नहीं देता, किसी न किसी तरह अपनी ओर बुला ही लेता है. उसके सम्मुख जाते ही अपना सब कुछ उसे अर्पित करने का मन होता है बल्कि अपना कुछ है ही नहीं यह भाव उदित होता है. और तब यह भी पता चलता है कि हमारे भीतर ही ज्ञान है, प्रेम है, शक्ति है, ऊर्जा है, साहस है....सब कुछ अकारण है जैसे ईश्वर के पास इन सबका भंडार है...अकारण, वह लुटा रहा है. वही भीतर से सामर्थ्य देता है, प्रेरणा देता है, निर्देश देता है. जीवन तब उत्सव बन जाता है.  

Thursday, January 26, 2012

पायी संगत जो संतन की पायी पूंजी अपने मन की


अक्तूबर २००२ 
साधक की एक अनुभूति ऐसी भी होती है जब वह कह उठता है...“पायी संगत जो संतन की पायी पूंजी अपने मन की” सदगुरु ने हमें स्वयं से मिला दिया है और अब हमें स्वयं से प्रेम हो गया है. पहले स्वयं से आँखें मिलाते से डरते थे और दूसरों से भी, अब हर जगह वही दिखता है तो डर किसे और किसका? हमने स्वयं ही अपने लिये बाधाएं खड़ी की हुई थीं और ज्ञान से इन बाधाओं का अंत होता नजर आता है. तन, मन व बुद्धि को स्वयं से अलग देखने की कला ने हमारे सच्चे स्वरूप को उजागर कर दिया है. बुद्धि को पृथक करते ही वह आग्रह तज देती है, मन को तज देने से वह खाली हो जाता है और जैसे खाली घट में जल भर जाता है, खाली मन उस परम की शांति से स्वतः ही भर जाता है. तन को पृथक देखने पर उसकी पीड़ा छूती नहीं उस तरह जैसे पहले छूती थी. कितना अद्भुत है यह ज्ञान.  

तत्त्वमसि श्वेतकेतु !


तत्व ज्ञान जब जीवन में उतरता है तो स्वयं को एक ऊँची स्थिति में हम पाते हैं, जहाँ से अपने-पराये का भेद नहीं दिखता तो राग-द्वेष कैसा...? वस्तुओं और व्यक्तियों पर पर आधारित सुख-दुःख तब बच्चों का खेल लगता है. मन एक निरंतर बहने वाली धारा में भीगता रहता है. इसके लिये ईश्वर से उसकी भक्ति ही मांगनी है, प्रेम का सूर्य जब हृदय में जगमगाता है तो भीतर का अंधकार  मिटने लगता है, तत्क्षण मिट जाता है. श्रुति, स्मृति व शास्त्र के द्वारा प्राप्त किया ज्ञान व्यवहार के लिये आवश्यक है पर नित्य ज्ञान स्वयं को जानना ही है. देह व मन से परे स्वयं का पल भर का अनुभव ही भीतर परिवर्तन लाता है. 

Tuesday, January 24, 2012

मध्य मार्ग ही उत्तम है


अक्तूबर २०१२ 
कर्म और ज्ञान दोनों में समन्वय होना चाहिए. प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के मध्य का मार्ग अपनाकर ही हम योग साधना कर सकते हैं. सदगुरु न तो हमें भोग की ओर ले जाते हैं न त्याग की ओर, वे हमें त्याग करते हुए भोग की बात बताते हैं. वे जटिल प्रश्नों का कितना सरल हल बताते हैं. भक्ति व ज्ञान का समन्वय हो तो हम अहंकार व अकर्मण्यता दोनों से मुक्त रहेंगे. भक्ति में हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं, ज्ञान होने पर स्वयं को आत्मा जानकर हम उससे समानता का अनुभव करते हैं. वह और हम दो नहीं हैं, जुदा नहीं हैं, सदा से एक हैं, दोनों अविनाशी, शाश्वत, ज्ञान व प्रेम स्वरूप. उसे खोजने कहीं दूर नहीं जाना है. पहले भक्ति के द्वारा हृदय को शुद्ध करना है, चित्त को निर्मल करना है फिर वह हमें उसी तरह प्राप्त होगा जैसे हवा और धूप...सहज ही. एक एक कर दोषों को निकालने की बजाय एक ही बात करनी है उसका स्मरण... प्रतिपल वह याद रहे तो हम गलत कार्य की ओर उन्मुख ही न हों. 

Monday, January 23, 2012

ईश्वर अंश जीव अविनाशी


परम की अनुभूति अंतर को अनंत सुख से ओतप्रोत कर देती है, और परम तक ले जाने वाला कोई सदगुरु ही हो सकता है. सर्व भाव से उस सच्चिदानंद की शरण में जाने की विधि वही सिखाते हैं. हम देह नहीं हैं, देही हैं, जिसे शास्त्रों में जीव कहते हैं. जीव परमात्मा का अंश है, उसके लक्षण भी वही हैं जो परमात्मा के हैं. वह भी शाश्वत, चेतन तथा आनन्दस्वरूप है. जिसका भान होने पर सारा का सारा विषाद जाने कहाँ चला जाता है. 

Sunday, January 22, 2012

कर्म में ही आनंद है फल में नहीं


जब हम कोई कार्य बिना किसी आकांक्षा के करते हैं, हमें कर्म करने मात्र में आनंद मिलता है,  हमारा मन शुद्ध होता जाता है. शुद्ध मन में शांति का वास होता है और शांति से ही सुख मिलता है. सुख यानि मोक्ष या निर्वाण इसी जन्म में मिल जाता है. यही ब्राह्मी स्थिति है, और एक बार इस स्थिति में टिकना आ जाता है तो साधक कभी इससे च्युत नहीं होता. ईश्वर अब उसका आधार बन जाते हैं. ईश्वर अर्थात अखंड सात्विक आनंद. इसी को कृष्ण कर्मयोग कहते हैं, उनकी कृपा से ही यह निष्कामता आती है. फल की अपेक्षा जब तक रहेगी तब तक उनकी ओर नजर न जायेगी. ईश्वर की निकटता का अनुभव निर्दोष भाव से अपनी सीमाओं का ध्यान रखते हुए उसके पास जाकर हो सकता है. प्रकृति के पाश से, तीन गुणों के बंधन से, माया के जाल से अर्थात दुःख से यदि बचना है तो उनकी शरण में जाना होगा, अर्थात मन में सम भाव रखकर स्वीकार भाव से जीना सीखना होगा.

Friday, January 20, 2012

दीनबन्धु दीनानाथ मेरी डोरी तेरे हाथ


प्रेम किये बिना कोई रह नहीं सकता तो क्यों न हम उस अनंत अविनाशी से ही प्रेम करें. विवेक जगाकर हम प्रेम के मूल तक पहुँच सकते हैं. सागर में झाग, लहर, भंवर, बुलबुले पानी के आधार पर टिके हैं, यदि लहर कहे मैं सागर को नहीं जानती तो कैसा विरोधाभास लगेगा, वैसे ही मन, बुद्धि व भावना सभी उसी आत्मा के आधार पर टिके हैं. मन जब उसमें डूब कर ऊपर आता है तो आत्मिक सुख का अनुभव करता है, इसी को धर्म मेघ समाधि कहते हैं जैसे मेघ हमें भिगो डालता है, वैसे ही आनंद हमें भिगो देता है. हम उस आनंद के खंड हैं, पर वह तो अखंड है तो हम सदा सर्वदा उससे संयुक्त ही हैं. वह तो सदा हमें निहार ही रहा है. हमारे प्रेम से भी कई गुना अधिक है उसका प्रेम. 

Wednesday, January 18, 2012

सत्य और असत्य


अक्तूबर २००२ 
सत्य एक है, सत्य ही धर्म है, सत्य ही वह पथ है जिस पर चल कर सत्य का अनुभव होता है. हमारे भीतर जो हलचल असत्य बोलने पर होती है वह सत्य की ही खबर देती है. कितनी ही बार हम बिना झिझके असत्य बोल जाते हैं, कभी सहज भाव से कभी विनोद में ही, कितना भी निर्दोष हो हमारा असत्य सत्य पर ही एक आवरण डाल रहा होता है. जितना-जितना हम इस बात को स्वीकार करते हैं, सत्य भी स्पष्ट होता जाता है और एक दिन असत्य झर जाता है. साक्षी भाव जब सधता है तब जो भी भीतर घटता हो उसे सहज भाव से देखते हुए ही हम विकार से मुक्त हो जाते हैं. सजग होकर आखिर कितनी देर तक हम पथ से दूर रह सकते हैं.

Tuesday, January 17, 2012

परम बुलाए अपनी ओर


अक्तूबर २००२ 
जैसे दुःख अपने आप आता है, मांगना नहीं पड़ता, वैसे ही सुख भी स्वयंमेव ही आयेगा. हमें अनासक्त रहकर दोनों से ऊपर उठना है. सुख में आसक्ति भी दुःख का कारण है. यह जगत ईश्वर का क्रीडांगन ही तो है, हमें उसके खेल में सहयोगी होना है. हमारे सारे कार्य उसकी याद में हों. उसकी  स्मृति वैसे ही बनी रहे जैसे अपना आप कभी नहीं भूलता. एक दिन वह स्वयं ही अपनी उपस्थिति का अहसास कराएगा. वह भी तो हमसे मिलने को आतुर है. जितनी निकटता की कामना हम करते हैं, वह उससे भी निकट है. स्वाध्याय हमारे मन को अनावृत करता है. हम तृप्ति का अनुभव तभी करते हैं जब भीतर संतोष जगता है, आनंद व ज्ञान का स्रोत वह परमात्मा ही हमें यह संतोष प्रदान करता है. हम उनके अंश हैं और उस आनंद व ज्ञान के भी भागी हैं, हमारा यह स्वाभाविक अधिकार है. हमने स्वयं ही उससे खुद को वंचित कर रखा है. जो हमारा है, वह तो हमें सहज प्राप्य है ही, बस दृष्टि उस ओर करने की देर है. वह हमारी प्रतीक्षा कर रहा है. 

Monday, January 16, 2012

श्रद्धावान लभते ज्ञानम


अक्तूबर २००२ 
मन श्रद्धा से भरा हो तभी विश्वास भी टिकता है. वही विश्वास हमें कैसी भी परिस्थिति में डिगने नहीं देता. परमात्मा अथवा सदगुरु का स्मरण भी हृदय को कैसी शीतलता पहुंचाता है. वे साक्षी भाव में रहते हुए जगत को देखते हैं, उससे लिप्त नहीं होते. उन्हें कोई कामना नहीं सताती और न किसी वस्तु के खो जाने का भय रहता है. आत्मा से बढ़कर वे किसी को नही जानते और आत्मा को न खोया जा सकता है न पाया जा सकता है, उसकी मात्र प्रतीति की जा सकती है, जीवनमुक्त आत्म भाव में रहकर सहजता का जीवन जीते हैं. वे हमें भी उसी पथ पर चलने की प्रेरणा देते हैं.

Sunday, January 15, 2012

ऐसी बानी बोलिए




साधना में वाणी के संयम पर बहुत बल दिया गया है. वाणी सत्य तो हो ही, प्रिय और हितकारी भी हो, शांति प्रदान करने वाली हो. स्वल्प निंदा भी हमें पथ से भटका सकती है. कड़वाहट यदि बाहर आ  रही है तो इसका अर्थ है कि भीतर अभी कड़वाहट शेष है, जब भीतर उस परमात्मा को बैठाया है तो विकारों को आश्रय देना छोड़ना होगा. कल्याणमयी वाणी, प्रसन्न वदन, शक्ति और शांति से भरा मन ये इस पथ पर हमारे सहायक हैं. मुख से वचन तभी निकलें जब आवश्यक हों व उस वक्त मन, आत्मा व वाणी एक हों भीतर बाहर एक, क्योंकि वह परम तो हर जगह है जितना बाहर उतना ही भीतर भी. हमारे चारों ओर का वातावरण वाणी से ही सजाया जा सकता है, अन्यथा मौन ही सधे.

Thursday, January 12, 2012

विश्वास ज्योति है


सितम्बर २००२ 
जो परमात्मा का प्रिय भक्त होता है वह अपने अंतर में विश्वास की ज्योति जला कर रखता है, उसी की लौ के सहारे-सहारे वह अंदर बाहर दोनों ही जगह उजाला पाता है. विश्वास तभी गहरा होता है जब अनुभूति हो जाये अनुभव साधना से ही आता है, अनुभव के बाद कृतज्ञता से मन भर जाता है, और हम जीवन निश्चिंत होकर एक-एक क्षण का आनंद लेते हुए जीते हैं. साधना की अग्नि में तपकर ही हम अपनी सम्भावनाओं को तलाश सकते हैं. देह और मन हमें साधन रूप में मिले हैं, जिन्हें स्वस्थ रखना हमारा कर्तव्य है, ताकि आत्मा स्वयं को प्रकाशित कर सके, वही तो परमात्मा का प्रतिबिम्ब है जो मन के दर्पण में झलकना चाहता है. 

Wednesday, January 11, 2012

कृपणता


सितम्बर २००२ 

हमारी कथनी और करनी में कितना अंतर होता है, इसका पता तब चलता है जब कोई हमसे मदद मांगता है, हम तत्क्षण मदद करने के बजाय सोच-विचार शुरू कर देते हैं. मन जो सदा हानि-लाभ की बात सोचता है, कैसे कैसे तर्क देने लगता है. मन की पकड़ का कोई अंत नहीं. और ऐसे में यदि कोई हमें ऐसी ही सलाह देता है जो हमारी बात का समर्थन करती हो तो हम फौरन उससे राजी हो जाते हैं. धर्म की ऊपरी सतह पर ही हम पहुँच पाते हैं, स्वयं को कष्ट पहुँचे फिर भी यदि किसी के माँगने पर झट हाँ ही निकले तो ही हमने धर्म का मर्म जाना है. ईश्वर हमें हर क्षण दे रहा है, तो हम क्यों कृपण बनें.

Tuesday, January 10, 2012

निर्विकार साक्षी


सितम्बर २००२ 
ईश्वर पुरातन है, आदि है, अनादि है, शाश्वत है और अनंत है. सारी सृष्टि का वही अध्यक्ष है, वह कण-कण में व्याप्त है. हमें अपने अंदर उसकी उपस्थिति का अहसास करना है. उसको अपने जीवन का केन्द्र बना लें तो जीवन शांतिमय, सुखमय और रसमय हो जाता है. पानी जैसे तापमान के बदलने पर अपनी अवस्था बदलता रहता है वैसे ही हमारा मन बाहरी परिस्थितियों के बदलने पर बदलता रहता है, लेकिन इसको देखने वाला निर्विकार रहता है. जो अचल है, शुद्ध है, नित्य है, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण प्रेम व पूर्ण आनंद है. हम हर क्षण किसी न किसी कर्म में रत हुए इसका अनुभव नहीं कर पाते. कर्मों के बंधन को तोड़ने के लिये हमें कर्म फल में आसक्ति का त्याग करना होगा. तब हमें लाभ-हानि की चिंता नहीं होगी. कोई कामना या वासना पूर्ति हमारे कर्मों का उद्देश्य नहीं रहता. वैराग्य यदि हममें दिखाई दे तो मानना चाहिए कि भक्ति का उदय हो रहा है. निष्काम भक्ति से ही भीतर ज्ञान प्रकट होता है.

Monday, January 9, 2012

चेतना जगानी है


सितम्बर २००२ 
हम चेतन हैं, पर जड़ की ओर हमारा झुकाव है. जब हम अपनी चेतना को परम चेतना के साथ जोड़ते हैं तो सारे कर्म योगमय हो जाते हैं, अन्यथा कर्म बंधन में डालते हैं. कृष्ण कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति को न कुछ पाने की तृष्णा सताती है न कुछ खोने का भय, न उससे किसी को भय होता है न उसे ही किसी से भय रहता है. तब तो सारी सृष्टि हमें मित्रवत ही प्रतीत होगी. जहाँ कहीं भी शुभ है वहीं दृष्टि जायेगी, दोषों पर यदि दृष्टि जाये भी तो कटुता का भाव उदय न होगा.. संसार को उसके दोषों व गुणों सहित हम अपना लेने में समर्थ होंगे.  

Sunday, January 8, 2012

सहज ज्ञान


सितम्बर २००२ 
अंतर्मुखी होकर, ध्यानस्थ होकर भीतर जो भी दिखे वह सहज ज्ञान है. भगवद्ज्ञान कहीं बाहर से मिलने वाला नहीं है बल्कि इसी सहज ज्ञान का आश्रय लेकर पाया जा सकता है. परमात्म प्राप्ति का या आनंद प्राप्ति का या सत्य प्राप्ति का निश्चय दृढ़ हो तो जीवन को एक ऐसी दिशा मिल जाती है जो ऊर्जा को नष्ट नहीं होने देती. कुछ क्षणों के लिये मन अशांत होता भी है तो झट भीतर कोई कहता है जो हम देते हैं वही पूरे ब्याज के साथ हमें मिलता है. प्रेम दो तो प्रेम मिलेगा, आनंद देने पर आनंद और विरोध करने पर विरोध ही हाथ आयेगा. संसार चाहे कितना भी मिल जाये ज्ञान के बिना दुखमय ही रहेगा. सजगता के साथ जियें तो यह अनुकूल हो जाता है, ज्ञान के बिना हम एक क्षण के लिये भी सुरक्षित नहीं हैं. कर्म बंधन से मुक्ति चाहिए तो हमारे सारे कर्म, विचार, वाणी परमात्मा से युक्त होने चाहिए, अर्थात सजगता पूर्ण. योग भी तभी सधेगा जब लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति का हो, क्योंकि अन्य चाह न रहने से मन सहज विश्राम में रहता है. इसी में हमारा कल्याण है और हमारे इर्द गिर्द के वातावरण का भी इसी में कल्याण है. 

Saturday, January 7, 2012

गहन मौन



सद्ग्रन्थों का अध्ययन हमें उन्नत करता है. सद्विचार हमारे मन को महकाते हैं. भावों के गुलाब जब हृदय के बगीचे में खिलते हैं तो आसपास सब कुछ महकने लगता है. चेहरे पर मुस्कुराहट हो और आँखों से ही अपनी बात कहने की कला आ जाये, वाणी खामोश हो और मन का चितन भी शांत हो. न बाहर से शब्दों को ग्रहण करें और न ही भीतर से सम्प्रेषण ...गहन मौन में ही परम सत्ता का वास है. 

Thursday, January 5, 2012

कृतज्ञता ही भक्ति है



परमात्मा हमें हर पल दे रहा है. उसके प्रति कृतज्ञता तो हमें जाहिर करनी ही चाहिए, अन्यथा हम केवल उनसे लेते ही लेते रहेंगे. उसके नाम का स्मरण और उच्चारण करने से भी यह कृतज्ञता व्यक्त हो सकती है, उस समय हम उसी के सान्निध्य में होते हैं. क्योंकि ईश्वर और उसका नाम एक ही हैं. सच्ची प्रार्थना भी वही है जिसमें यही चाह हो कि मन में निज स्वार्थ की कोई चाह न उठे. उसके प्रति प्रेम मन में बढ़ता रहे और बढ़ते-बढ़ते इतना विशाल रूप ले ले कि सभी प्राणी उसकी गिरफ्त में आ जाएँ. जब सारे प्राणियों के अंतर में वही परम पिता दिखाई देने लगें. तभी समझना चाहिए कि भक्ति का उदय हृदय में हुआ है.

ज्ञान की ज्योति


परम का ज्ञान हमारे जीवन की नौका का लंगर खोल कर उसे दिशा प्रदान करता है. कर्मों को शुद्ध करता है. हृदय में सत्य के प्रति प्रेम हो और अधरों पर भक्ति के नगमे तो दुनिया कितनी हसीन हो जाती है. स्वयं को भुला दें अहं त्याग दें तो अपना आप कितना हल्का लगता है. अहं ही तो हमें भारी बनाता है वरना तो हम फूल से भी हल्के हैं. उसने हमारी सारी आवश्कताओं की व्यवस्था पहले से ही कर द है. वह हर क्षण हम पर नजर रखे हुए है. हम ‘मैं’ की रट लगा कर व्यर्थ ही खुद को विषाद में डाल लेते हैं. यह दुनिया भी तो उसी की है. अन्यों के दोषों पर निगाह नहीं जाती जब सारे अपने ही लगते हैं. एक बार जहाँ उजाला हो जाये वहाँ अंधकार कैसे टिक सकता है.  

Tuesday, January 3, 2012

पूरा प्रभु आराधिये



सितम्बर २००२ 
आकाश पर कभी घने बादल छा जाते हैं, रिमझिम फुहार और ठंडी हवा के झोंके तन-मन को सिहरा देते हैं. कभी चमचमाती हुई तेज धूप सारे माहौल को रोशन कर देती है. ऐसे ही जीवन भी हर पल रंग बदलता है. कभी मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं फिर साक्षी भाव से देखते रहें तो चुपचाप चली भी जाती हैं. ऐसे ही सुख भी आता है तो टिकता थोड़े न है, चला जाता है. हम वहीं के वहीं रह जाते हैं, अपने आप में पूर्ण, न तकलीफ आने से हमारा कुछ घटता है न सुख आने से कुछ बढ़ता है. मान हो तब भी कुछ नहीं बढ़ता अपमान हो तब भी कुछ नहीं घटता. हम पूरे हैं पूरे ही रहते हैं हर क्षण, उस पूर्ण परमात्मा की तरह. 

Monday, January 2, 2012

तन्मयता (एकाग्रता)


अगस्त २००२ 

जीवन के एक पक्ष में जब तन्मयता आती है तो उसका प्रभाव अन्य पक्षों पर पड़ना स्वभाविक है. लिखना तभी संभव है जब मन किसी एक विचार पर टिके. जब कोई उद्देश्य लेकर हम काम करते हैं तो मन को एक आधार मिल जाता है, तन को नियम. आत्मा को उसकी पहचान मिलने का सिलसिला शुरू हो जाता है. हम पहले से कहीं ज्यादा खुश रहते हैं, ज्यादा स्पष्ट सोच सकते हैं. वस्तुओं को उनके वास्तविक रूप में देखने लगते हैं. अन्यों के प्रति हमारा व्यवहार अधिक स्नेहपूर्ण हो जाता है. क्रोध अजनबी हो जाता है. ज्ञान भीतर टिकने लगता है. इस सब के पीछे परम की अहैतुकी कृपा ही एक मात्र कारण है ऐसा कृतज्ञता का भाव भी जन्म लेता है. धर्म के सिद्धांत जो पहले मात्र पढ़ने की वस्तु थे, जीवन में उतरने लगते हैं. धर्म वही तो है जो धारण किया जाये. प्रेम का अविरल स्रोत हमारे भीतर है, वह सूखने न पाए इसके लिये भी तन्मयता जरूरी है.

आत्मिक स्तर कितना सुंदर


अगस्त २००२ 
 हमारी यह देह हमें (आत्मा को) मिला हुआ एक साधन है साध्य नहीं, उसकी देख-रेख करना, नियमों के पालन द्वारा व्याधियों से मुक्त रखना हमारा कर्त्तव्य है. भौतिक स्तर पर किया हुआ कोई भी कार्य जो देह, मन बुद्धि द्वारा संचालित होता है, पूर्ण होने पर ही हमें इच्छित फल देता है. पर आत्मिक स्तर पर किया सूक्ष्म से सूक्ष्म कार्य भी हमें उसी क्षण फल देता है. सात्विक आनंद की प्राप्ति कराता है, हृदय की सौम्यता को बढ़ाता है. अंतर में एक गहन नीरवता को जन्म देता है, जिसे कोई बाहरी शोर भंग नहीं कर सकता. हमारा मन ठहर जाता है और विश्रांति का अनुभव करता है. विश्रांति सामर्थ्य को जन्म देती है, फिर हम अपने नियत कर्मों को उत्साह से कर सकते हैं, शिथिलता नहीं आती, सजग रहते हैं. मन में व्यर्थ के संकल्प-विकल्प भी नहीं उठते. भीतर निर्भयता का जन्म होता है. आध्यात्मिक स्तर पर की गयी थोड़ी सी प्रगति भी हमें उस परम सत्य के निकट ले जाती है, जिस तक जाने अनजाने सभी को पहुंचना है. जीवन में समय सीमित है, हर क्षण कीमती है, जो भी हमारा कर्त्तव्य हो उसे आत्मिक स्तर पर रहते हुए करना होगा तब हमारे सभी कार्य परम की ओर ले जाने वाले होंगे. कोई सदगुरु कोई संत हमारी उतनी ही मदद कर सकते हैं कि पहला कदम उठाने की प्रेरणा दें, उससे आगे तो हमें खुद ही चलना होगा.  



Sunday, January 1, 2012

बहो बस बहो


अगस्त २००२ 
जीवन में ताजगी चाहिए तो जो कुछ हमें मिला है उसे बाँटना चाहिए. तितलियाँ, फूल, खुशबू और प्रेम को तिजोरी में नहीं रख सकते. बहता हुआ पानी ही स्वच्छ रहता है. हवा एक तरफ से प्रवेश करे और दूसरी तरफ से निकलने की भी व्यवस्था हो तो सब कुछ ताजा रहेगा. स्वार्थ वश जब वस्तुओं को हम मात्र अपने लिये चाहते हैं तो स्वयं को भी बंधन में बांध लेते हैं और मुक्त भाव से जीना भी भूल जाते हैं. जबकि हमारा मूल स्वभाव यह नहीं है और इसी लिये हम बेचैन हो जाते हैं, फिर उस बेचैनी को दूर करने के लिये हम और संग्रह करते हैं और यह दुष्चक्र चलता ही रहता है. न जाने कब जीवन की शाम आ जाये, आत्मज्ञान ही हमें इस अंधी दौड़ से मुक्त कर सकता है.