Wednesday, January 11, 2012

कृपणता


सितम्बर २००२ 

हमारी कथनी और करनी में कितना अंतर होता है, इसका पता तब चलता है जब कोई हमसे मदद मांगता है, हम तत्क्षण मदद करने के बजाय सोच-विचार शुरू कर देते हैं. मन जो सदा हानि-लाभ की बात सोचता है, कैसे कैसे तर्क देने लगता है. मन की पकड़ का कोई अंत नहीं. और ऐसे में यदि कोई हमें ऐसी ही सलाह देता है जो हमारी बात का समर्थन करती हो तो हम फौरन उससे राजी हो जाते हैं. धर्म की ऊपरी सतह पर ही हम पहुँच पाते हैं, स्वयं को कष्ट पहुँचे फिर भी यदि किसी के माँगने पर झट हाँ ही निकले तो ही हमने धर्म का मर्म जाना है. ईश्वर हमें हर क्षण दे रहा है, तो हम क्यों कृपण बनें.

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