Friday, December 30, 2016

जाना है माया के पार

३१ दिसम्बर  २०१६ 
वेदांत दर्शन के अनुसार जीव, ब्रह्म और माया ये तीन ही तत्व हैं.  ब्रह्म माया पर शासन करता है और माया जीव पर. जब जीव भी माया के पार चला जाता है, ब्रह्ममय हो जाता है. अभी हम माया से बंधे हैं, माया का अर्थ है जगत के प्रति आसक्ति और मोह. हम जगत को अपने सुख-दुःख कारण मानते हैं. साधना करते -करते यह ज्ञान होने लगता है कि जगत नहीं हम स्वयं ही अपने सुख-दुःख के कारण हैं. यह ज्ञान होते ही या तो कोई आत्मग्लानि में चला जाता है अथवा तो प्रार्थना उसके जीवन में उतरती है. इसके बाद ही यह ज्ञान होता है कि यदि सुख-दुःख के कारण हम ही हैं तो उनसे मुक्ति भी हमारे हाथ में है, मुक्ति का बोध होते ही माया के पार जाकर ब्रह्म के साथ एकत्व का अनुभव होने लगता है. सतत साधना करते-करते यह अनुभव टिकने लगता है और तब कमलवत रहना सम्भव हो जाता है. नये वर्ष में प्रवेश करने से पूर्व क्यों न हम यह संकल्प लें कि आने वाले वर्ष में हम नियमित साधना करेंगे. 

संग संग वह हर पल रहता

३० दिसम्बर २०१६ 
परमात्मा सदा ही हमारे साथ है. किन्तु जैसे सूर्य उदित होने पर भी यदि हम घर के दरवाजे-खिड़कियाँ बंद करके बैठे रहें तो उसका ताप व प्रकाश अनुभव में नहीं आता, वैसे ही परमात्मा और हमारे मध्य जब मन अथवा संसार रूपी दीवार आ जाती है तो उसका अनुभव नहीं होता. ध्यान में जब उसमें विश्राम करते हैं तब जगत का लोप हो जाता है. पुनः मन, बुद्धि में आने पर भी उसकी स्मृति बनी रहती है. वह तो तब भी हमें देख रहा होता है. उससे ही हमारा हर श्वास चलता है, उससे ही हर भाव उत्पन्न होता है, वह हमसे पूर्व ही उसे जानता है. चित्त जब केन्द्रित होता है उसकी ही शक्ति समाहित हो रही होती है, जब व्यर्थ के संकल्प-विकल्प उठाता है तब उसी की ऊर्जा व्यर्थ बह रही होती है. जैसे किसी घट में छेद हो तो पानी नहीं टिकता, वैसे ही अस्थिर मन में ध्यान नहीं टिकता. नये वर्ष में क्यों न हम नियमित ध्यान करें.

Wednesday, December 28, 2016

नये वर्ष में नई दिशा

२९ दिसम्बर २०१६ 
कितना अच्छा हो यदि नये वर्ष में हम उन सारी तकलीफों, दुखों, परेशानियों से बचे रहें जो पिछले वर्ष में हमने किसी न किसी अंश में महसूस कीं और उन सारी खुशियों, मुस्कानों और मस्ती से भरा रहे जो पिछले वर्ष या उसके पहले के वर्षों में हमें मिलीं. ऐसा हो सकता है, यदि हम नये वर्ष का स्वागत उसी तरह करें जैसे कोई बच्चा हर नये दिन का करता है, बिना किसी अपेक्षा के और बिना किसी पूर्वाग्रह के..हर दिन एक ताजगी से भरा हो..बिलकुल अछूता और रहस्यमय..जीवन प्रतिपल नया हो रहा है, भगवान बुद्ध कहते हैं, कल बीत गया साथ ही कल जो व्यक्ति था वह भी बदल गया, इस बात को जो अनुभव से जान लेता है उसके जीवन से दुःख. शोक, उसी तरह विदा हो जाते हैं जैसे खरगोश के सिर से सींग. नया वर्ष एक नयी दिशा का प्रतीक बन सकता है और एक नये भविष्य का भी, यदि हम इसकी नूतनता को बना रहने दें.

Tuesday, December 27, 2016

तोरा मन दर्पण कहलाये

२८ दिसम्बर २०१६ 
मन उसी का नाम है जो सदा डांवाडोल रहता है, तभी मन को पंछी भी कहते हैं हिरन भी और वानर भी..आत्मा रूपी वृक्ष के आश्रय में  बैठकर टिकना यदि इसे आ जाये तो इसमें भी स्थिरता आने लगती है, वास्तव में वह स्थिरता होती आत्मा की है प्रतीत होती है मन में, जैसे सारी हलचल होती बाहर की है प्रतीत होती है मन में..मन तो दर्पण ही है जैसा उसके आस-पास होता है झलका जाता है. संगीत की लहरियों में डूबकर यह मस्त हो जाता है और किसी उपन्यास के भावुक दृश्य में भावुक..ऐसे मन का चाहे वह अपना हो या अन्यों का क्या रूठना और क्या मनाना...क्यों न नये वर्ष में मन को समझते हुए प्रवेश करें ताकि न किसी से मनमुटाव हो और न किसी का मन टूटे. आत्मा रूपी वृक्ष पर कुसुम की तरह खिला रहे सबका मन.

Monday, December 26, 2016

खिले ध्यान का कुसुम जहाँ

२६ दिसम्बर २०१६ 
इस जगत में आने से पूर्व हम अकेले थे और यहाँ से जाने के बाद भी अकेले होंगे, इस जगत में भी नींद में हम अकेले होते हैं. ध्यान इसी अकेले होने की किंतु परम के साथ होने की कला है. नींद में हम अनजाने में अस्तित्त्व के साथ होते हैं, हमें उसकी उपस्थिति का भान नहीं होता, बस जगने के बाद भीतर ताजगी का अनुभव होता है. ध्यान में बोधपूर्वक हम अस्तित्त्व के साथ हो सकते हैं और तब हमें सारी सीमाएं टूटती हुई लगती हैं. भीतर एक अचलता का पता चलते ही भय मात्र से मुक्ति का अनुभव होता है. 

Tuesday, December 20, 2016

पितृ देवो भवः मातृ देवो भवः

२१ दिसम्बर २०१६ 
माता-पिता चाहे वे उम्र के किसी भी पड़ाव पर हों, बच्चों की सुख-सुविधा के लिए भरसक प्रयत्न करते हैं. वे उन्हें सदा प्रसन्न देखना चाहते हैं. एक यही रिश्ता ऐसा है जहाँ  बेशर्त प्रेम, जिसका जिक्र हम सदा सुनते हैं, देखा जाता है. ऐसा करके वे प्रसन्नता का ही अनुभव करते हैं, किन्तु जब बच्चे इसे अपना हक समझते हैं और कृतज्ञता का अनुभव करना तो दूर, इसका अधिक से अधिक लाभ उठाने लगते हैं तो देखने वालों को विचित्र लगता है. कोई भी रिश्ता यदि संतुलित रहे तो फूल की तरह सुगन्ध फैलाता है और यदि एकतरफा हो जाये तो उसमें  सकारात्मक ऊर्जा नहीं रहती। सन्त कहते हैं यदि कोई व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति श्रद्धा रखता है तो ईश्वर के प्रति प्रेम का बीज उसके भीतर पनपने लगता है. इसके विपरीत यदि कोई बुजुर्गों के प्रति सम्मान की भावना से अछूता है तो परम के प्रति श्रद्धा और आत्मिक सुख से वह वंचित ही रह जाता है.

मर्म धर्म का जानेंगे जब

२० दिसम्बर २०१६ 
धर्म के जिस रूप को हम जानते और मानते हैं, जिसमें मूर्ति पूजा भी शामिल है और व्रत-उपवास भी, धार्मिक उत्सवों और कुछ रीति-रिवाजों का पालन भी, उससे हम वास्तविकता से दूर ही रह जाते हैं, स्वयं की वास्तविकता, जगत की वास्तविकता और परमात्मा की वास्तविकता इन तीनों से दूर. जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त हम किसी अज्ञात ख़ुशी की आशा किये चले जाते हैं, जो एक न एक दिन मिलने वाली है. जीवन एक उत्सव कम संघर्ष अधिक ज्ञात होता है. सुख की आशा में हम तात्कालिक दुःख को भी हँसते-हँसते झेल जाने को तैयार रहते हैं, किंतु सच्चा धर्म सदा के लिए हर दुःख से मुक्ति का मार्ग सुझाता है. 

Sunday, December 18, 2016

राज अनोखा जिसने जाना

१९दिसम्बर २०१६ 
जीवन प्रतिपल एक रस बाँट रहा है, ऐसा रस जिसका न कोई ओर है न छोर, जो अपने होने की घोषणा नहीं करता, जो जरा सा भी मुखर नहीं है, जिसे महसूस करने के लिए मन की एक ऐसी सहज अवस्था चाहिए जो सन्तुष्टता से उपजती है. वास्तव में वर्तमान का हर नन्हा सा पल अपने भीतर अनंत तक प्रवेश करने की क्षमता छिपाये है. हम शब्दों के आवरण में इतने ढके हैं कि उस सूक्ष्म द्वार को अनदेखा कर देते हैं. अनजान भविष्य की दुश्चिंताओं के कारण तथा अतीत की स्वप्नवत स्मृतियों के कारण हम वर्तमान में रहते भी कहाँ हैं. हमारे  बिना ही जीवन इतना सरस और मधुर हो सकता है, इसका विश्वास भी तो नहीं होता। जिसे यह राज खुल जाता है वही वास्तव में घड़ी-घड़ी उस रस में डूब सकता है.

Saturday, December 17, 2016

वही ऊर्जा पल-पल बहती

 १८ दिसंबर २०१६ 
हमारा मन एक अनंत स्रोत की तरह है जिसमें से अनवरत विचारों की गंध फैलती रहती है. मनमें सहज ही संकल्प उठते हैं, उनमें से अधिकतर दिशाविहीन होते हैं जिससे वे कर्मों में नहीं बदल पाते। यदि हम मन की इस ऊर्जा को एक सार्थक मोड़ दे सकें तो जीवन उस वृक्ष की तरह पल्लवित होता है जो हर रूप में जगत के काम आता है. मन की इस ऊर्जा का दोहन करने से ही कोई आंतरिक सन्तोष का अनुभव भी सहज ही करने लगता है.

Friday, December 16, 2016

सहज सधे सो मधुर अति है

१७ दिसम्बर २०१६ 
अक्सर लोगों को ऐसा कहते हुए सुना जाता है कि भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है किसी को नहीं पता, अगले पल क्या घटने वाला है कौन जानता है, यह बात बाह्य परिस्थिति के लिए जितनी  सत्य है, उतनी ही असत्य भीतर की स्थिति के लिए है. यदि कोई स्वयं को जानता  है तो उसे मनःस्थिति पर नियंत्रण करना उसी तरह सहज हो जाता है जैसे मीन के लिए पानी में तैरना। भीतर सदा एकरस सहज शांत अवस्था को बनाये रखना उतना कठिन नहीं है जितना हम मान लेते हैं. हम यह भूल जाते हैं कि हमारा मन एक विशाल मन का हिस्सा है और वह विशाल मन परमात्मा का. साधना को अपने जीवन का अंग बना लेने पर भीतर जाना उतना ही सहज है जैसे श्वास लेना और छोड़ना। 

Thursday, December 15, 2016

कर्म बनें न बन्धनकारी


१६ दिसंबर २०१६ 

अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष  और अभिनिवेश ये पंच क्लेश हैं जो हमें बांधते हैं. मन जब इनमें से किसी भी वृत्ति में रहता है तो कर्माशय बनता है अर्थात उस समय किये जाने वाला हर कर्म बन्धन का कारण होता है. यहाँ कर्म मनसा, वाचा, कर्मणा कोई भी हो सकता है. कर्म पाप अथवा पुण्य कारी  कोई भी हो सकता है. जिस तरह पाप कर्म बन्धन कारी हैं उसी तरह पुण्य कर्म भी हमें सुख भोग के लिए जगत में लाते हैं. हर वृत्ति संस्कार को जन्म देती है और फिर उसी संस्कार से उसी तरह की वृत्ति का जन्म होता है और हम एक चक्र में फंस जाते हैं, इसे ही जन्म-मरण के चक्र के रूप में शास्त्रों में कहा गया है. मन यदि एकाग्र अवस्था में रहे अथवा तो निरुद्ध अवस्था में तब ही मन क्लेशों से उत्पन्न वृत्ति से रहित होता है, अर्थात कर्माशय नहीं बनता। नियमित ध्यान करने से ही इस स्थिति तक पहुँचा जा सकता है. 

Wednesday, December 14, 2016

जगे चेतना भीतर ऐसी

१५ दिसम्बर २०१६ 
जीवन में कई बार ऐसा होता है जब हम दोराहे पर खड़े होते हैं. एक रास्ता जाना-पहचाना होता है, जिस पर चल कर हम कहीं भी तो नहीं पहुंचते  पर रास्ते का न तो कोई भय होता है न ही कोई दुविधा, दूसरा मार्ग अपरिचित होता है, वह कहाँ ले जायेगा ज्ञात नहीं होता उस पर चलने के लिए विरोध सहने का साहस भी चाहिए और मार्ग की कठिनाइयों का सामना करने की हिम्मत भी. अक्सर हम पहला  मार्ग ही चुन लेते हैं क्योंकि इसमें कोई जोखिम नहीं है और नतीजा यह होता है हम वहीं रह जाते हैं जहाँ थे. जीवन हमें कई बार अवसर देता है पर किसी न किसी तरह का भय हमें आगे बढ़ने से रोक लेता है. क्या ये सारे भय हमारे मन की दुर्बलता के परिचायक नहीं हैं. भीतर एक चेतना ऐसी भी है जो चट्टान की नाईं हर विरोध का सामना कर सकती है पर उसका हमें कोई स्मरण ही नहीं है.

Tuesday, December 13, 2016

सहज हुआ मन है संतोषी

१४ दिसम्बर २०१६ 
किसी भी बात अथवा घटना को देखने के कम से कम दो नजरिये होते हैं, अधिक से अधिक तो अनेक हो सकते हैं. इसका अर्थ हुआ यदि  दो व्यक्तियों में आपस में विवाद हो रहा हो तो दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही हो सकते हैं. अपनी बात रखते हुए कोई यदि इस सत्य को भी स्मरण कर ले तो एक पल में उसके भीतर सहजता का जन्म हो जाता है और यही सहजता धीरे-धीरे संतोष में बदलने लगती है. संतोष ध्यान को जन्म देता है और ध्यान पुनः हमें सहज बनाता है और यह  सहजता इस जगत के प्रति अटूट विश्वास को जन्म देती है.

Monday, December 12, 2016

पल पल साथ बना है जिसका

 १३ दिसम्बर २०१६ 
अस्तित्त्व ने हमें सब कुछ दिया है, यह सुंदर सृष्टि उसने हमारे लिए ही बनाई है. इस जाते हुए वर्ष के अंतिम दिनों में एक बार रुककर हम भी यह क्यों न पूछें कि  वह हमसे क्या चाहता है, उसके प्रति हमारा क्या देय है. हम उसे क्या उपहार दे सकते हैं. शायद वह इतना ही चाहता है कि हम उससे जुड़े रहें, उससे अपने दिल का हाल  कहें, पल-पल घटने वाले उसके चमत्कारों को आश्चर्य भरे भाव से निहारें। वर्तमान में चलते हुए हमारी नजरें सुखद भविष्य की ओर लगी रहें, जो हम भावी पीढ़ी के लिए छोड़ जाने वाले हैं.

Sunday, December 11, 2016

स्वयं ही अपना भाग्य विधाता

१२ दिसम्बर २९०१६ 
हम सब आनंद चाहते हैं, स्वास्थ्य चाहते हैं और संबंधों में स्थायित्व चाहते हैं, किन्तु इस बात को भूल जाते हैं कि ये सब हमें स्वयं ही गढ़ने हैं और इन सबका स्रोत भीतर है बाहर नहीं। यदि मन के भीतर किसी भी कारण से एक भी दुःख का बीज बोया तो एक न एक दिन वह अंकुरित होगा, न केवल अंकुरित वह पल्लवित भी होगा जो भविष्य में दुःख का कारण बनेगा, शारीरिक स्वास्थ्य के साथ भावनात्मक असुरक्षा का कारण भी होगा। किसी भी वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति के प्रति कोई भी नकारात्मक भाव भी उसके साथ संबंधों को मधुर नहीं रहने देगा। 

पूज्य सदा हो कण-कण जग का

११दिसम्बर २०१६ 
 हम जिस वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति का हृदय से सम्मान करते हैं, उससे मुक्तता का अनुभव करते हैं अर्थात उनके अवाँछित प्रभाव या अभाव का अनुभव नहीं करते। सम्मानित होते ही वे हमारे भीतर लालसा का पात्र नहीं रहते। यदि हम सभी का सम्मान करें तत्क्षण मुक्ति का अनुभव होता है. इसीलिए ऋषियों ने सारे जगत को ईश्वर से युक्त बताया है. अन्न में ब्रह्म को अनुभव करने वाला व्यक्ति कभी उसका अपमान नहीं कर सकता, भोजन में पवित्रता का ध्यान रखता है. शब्द में ब्रह्म को अनुभव करने वाला वाणी का दुरूपयोग नहीं करेगा। स्वयं को समता में रखने के लिए, वैराग्य के महान सुख का अनुभव करने के लिए, कमलवत जीवन के लिए आवश्यक है इस सुंदर सृष्टि और जगत के प्रति असीम सम्मान का अनुभव करना। 

Friday, December 9, 2016

पल भर भी वह दूर नहीं है

१० दिसम्बर २०१६ 
जहाँ  हमें जाना है वहाँ  हम पहुँचे  ही हुए हैं. जैसे मछली सागर में है, पंछी हवा में है आत्मा परमात्मा में है. मछली को पता नहीं वह सागर में है, पंछी को ज्ञात नहीं वह पवन के बिना नहीं हो सकता, वैसे ही आत्मा को पता नहीं वह शांति के सागर में है. मीन और पंछी को इसे जानने की न जरूरत है न ही साधन हैं उनके पास पर मानव क्योंकि स्वयं को परमात्मा से दूर मान लेता है और उसके पास ज्ञान के साधन हैं, वह इस सत्य को जान सकता है. यही आध्यात्मिकता है, यही धार्मिकता है, यही साधना का लक्ष्य है.   

Thursday, December 8, 2016

एक ऊर्जा पल पल बहती

९ दिसम्बर २०१६ 
प्रतिपल जीवन यह याद  दिलाता है, अनन्त ऊर्जा का एक स्रोत चारों और विद्यमान है. कितने ही लोग सूर्य ऊर्जा का इस्तेमाल कर रहे हैं और कितने ही पवन ऊर्जा का. युगों से ये स्रोत मानव के पास थे पर उसे वह उपाय नहीं ज्ञात था जिसके द्वारा मानव इनका लाभ ले सकता था. इसी तरह  ज्ञान, प्रेम, शांति, सुख की अनन्त ऊर्जा भी परमात्मा के रूप में हर स्थान पर विद्यमान है पर कोई जानकार  ही उसका अनुभव कर पाता है. 

पूर्णमदः पूर्णमिदं

९ दिसम्बर २०१६ 
उपनिषद कहते हैं सृष्टि पूर्ण है, पूर्ण ब्रह्म से उपजी है और उसके उपजने के बाद भी ब्रह्म पूर्ण ही शेष रहता है, सृष्टि ब्रह्म के लिए ही है. इस बात को यदि हम जीवन में देखें तो समझ सकते हैं मन पूर्ण है, पूर्ण आत्मा से उपजा है अर्थात विचार जहाँ  से आते हैं वह स्रोत सदा पूर्ण ही रहता है, मन आत्मा के लिए है. विचार ही कर्म में परिणित होते हैं और कर्म का फल ही आत्मा के सुख-दुःख का कारण है. यदि आत्मा स्वयं में ही पूर्ण है तो उसे कर्मों से क्या लेना-देना, वह उसके लिए क्रीड़ा मात्र है. हम इस सत्य को जानते नहीं इसीलिए मात्र 'होने' से सन्तुष्ट न होकर दिन-रात कुछ न कुछ करने की फ़िक्र में रहते हैं. 

Tuesday, December 6, 2016

टिक जाये जब मन ध्यान में

७ दिसम्बर २०१६ 
जीवन के स्रोत से जुड़े बिना मन सन्तुष्ट नहीं हो सकता, जिस तक जाने का उपाय है ध्यान। पहले-पहल  जब कोई ध्यान का आरम्भ करता है तो भीतर अंधकार ही दिखाई देता है, विचारों का एक हुजूम न जाने कहाँ  से आ जाता है, किन्तु साधना व निरन्तर अभ्यास से मन ठहरने लगता है और उस स्रोत की झलक मिलने लगती है जहाँ  से सारे  विचार आते हैं. मन के पार जाये बिना कोई मन को देख नहीं सकता उस पर नियंत्रण का तो सवाल ही नहीं उठता। ध्यान का  अनुभव किये बिना उस अनन्त शांति का स्वाद नहीं मिल सकता जिसका जिक्र सन्त कवि करते हैं, ध्यान ही वह राम रतन  है जिसे पाकर मीरा नाच उठती है. एक मणि  की तरह वह भीतर छिपा है जिसकी खोज ही साधक का लक्ष्य है.

Monday, December 5, 2016

मन है छोटा सा

६ दिसम्बर २०१६ 
जैसे हम अपने घर में वस्तुओं का संग्रह करते रहते हैं, न केवल आवश्यक वस्तुओं का बल्कि कई बार तो ऐसी वस्तुओं का भी जिनकी आवश्यकता कभी नहीं पड़ती अथवा तो पुरानी वस्तुएं जिनकी उपयोगिता भी नहीं रही ; उसी तरह हम मन में विचारों का भी संग्रह करते चले जाते हैं, मन जो एक उपवन बन सकता था उसे अस्त-व्यस्त जंगल बना देते हैं जहाँ  यादों के जाल  हैं और मान्यताओं और विश्वासों के कैक्टस भी. जहाँ  फूल खिलने के लिए सूर्य की रौशनी को पहुँचने  के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है. आस-पास का वातावरण खुला-खुला हो, जरूरतें कम हों तो मन भी हल्का रहता है और इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि  इस दुनिया से रुखसत करते समय हमें अल्प पीड़ा होगी क्योंकि जो छूट रहा होगा वह थोड़ा सा ही होगा।

जब जैसा तब तैसा रे

५ दिसम्बर २०१६ 
जीवन हमें नित नए रूप में मिलता है. यदि हमारा मन सीमाओं में बंधा है, मान्यताओं में जकड़ा है तो हम इसकी नवीनता को अनदेखा कर देते हैं और एक ही ढर्रे में जिए चले जाते हैं. यदि हर पल को वह जिस रूप में मिलता है वैसा ही स्वीकार करने का स्वभाव बना लिया जाए तो मन फूल की तरह ताजा बना रहेगा और निर्भार भी. 

Sunday, December 4, 2016

योग साधना होगा सबको


संसार का अर्थ है जो पल-पल बदलता है, अगले पल क्या होने वाला है कोई नहीं जानता. कोई कितना भी प्रयास करले  उसके जीवन की परिस्थितियां सदा उसके अनुकूल नहीं रहतीं। हर सुख अपने पीछे दुःख छिपाये है, तो आखिर मानव के पास कोई विकल्प है या नहीं, इसका उत्तर योग के द्वारा ही मिल सकता है. योग ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा हर मानव अपने भीतर एक ऐसी अवस्था को प्राप्त कर सकता है जिसे बाहर की कोई परिस्थिति छू भी नहीं पाती। योगी ही सदा समता में रहना सीख पाता है.  

Friday, December 2, 2016

प्यास लिए मनवा हमारा यह तरसे


जीवन का उद्देश्य क्या है, यदि कोई गहराई से इस पर सोचे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि  हर आत्मा अखंड प्रसन्नता का अनुभव करना चाहती है. उसके सारे  प्रयास इसी दिशा में होते रहते हैं. इन्द्रियों के विषयों के द्वारा सुख प्राप्त करना उसमें सबसे पहला साधन है. धन के बिना यह सम्भव नहीं तो मानव श्रम करता है, सुख-सुविधा के साधन जुटाता है. विकास की ओर  बढ़ता हुआ समाज उसी सुख की आशा करता है जो आत्मा की पुकार है. समाज सेवा के द्वारा भी कुछ लोग संतोष  का अनुभव करते हैं और कई पुण्य  कमाकर, किन्तु बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो इस सच्चाई को स्वीकार करते हैं कि जिस सुख की तलाश वह बाहर कर रहे हैं वह सहज ही उन्हें  मिल सकता है. ऐसा सुख ही अनवरत बहती हुई धारा  की तरह निरंतर उन्हें तृप्त कर सकता है. इसके बाद वे जो कुछ भी करते हैं उसके पीछे कुछ पाने की कामना नहीं रहती बल्कि भीतर का संतोष ही कृत्यों के रूप में बाहर प्रकट होता है.

Thursday, December 1, 2016

ऋत के साथ एक हुआ जो

२ दिसंबर  २०१६
जब हम ऋत  के नियमों का  पालन करते हैं, उसके साथ जो एक हो जाते हैं, तब  जीवन से द्वंद्व मिट जाता है. आचरण को जो शुद्ध कर लेता है बहुत सारी  परेशानियों से बच जाता है, किन्तु जो न प्रकृति के साथ एक होता है न ही सामान्य आचार  का सम्मान करता है वह दुःख को निमन्त्रण दे रहा होता है. परमात्मा अथवा प्रकृति हर हाल में सबके प्रति समान व्यव्यहार करती है हम स्वयं ही अपने भाग्य का निर्माण करते हैं. 

Wednesday, November 30, 2016

मन ही माया


हर सुबह एक नए अंदाज में प्रकटती है, सूर्य भी नए रूप में दिखाई देता है. आकाश वही है पर बादलों के बदलते रूप उसे नित नया कलेवर पहना देते हैं. इसी तरह आत्मा सदा एक सी रहने पर भी मन पल-पल बदलता है, तीन गुणों के मेल से कभी हँसता कभी उदास होता है. शास्त्रों के अनुसार आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वी का निर्माण हुआ है. उसी तरह आत्मा से प्राण, प्राण से ऊर्जा, ऊर्जा से मन तथा मन से देह का निर्माण होता है. साधना के द्वारा जितना-जितना सतोगुण बढ़ता जाता है, मन आत्मा के निकट पहुँच जाता है.

Monday, November 28, 2016

मिलकर भी जो मिले कभी न


 परमात्मा उनकी नजरों से छुपा रहता है जो उसे ढूंढते ही नहीं, जो उसकी याद में अश्रु बहाते  हैं उन्हें तो वह मिला ही हुआ है. रात-दिन वह उन्हें राह दिखाता  है जिनके भीतर  उसके प्रेम का दीपक जलता रहता है. जिन्होंने उस अनदेखे परमात्मा से रिश्ता बना लिया है, जिनके भीतर प्रीत की अग्नि निरंतर जलती रहती है. जो उसके दर  पर आकर झुक जाते हैं उन्हें वह तत्क्षण मिल जाता है और जो तनकर खड़े रहते हैं उनके लिए वह बेगाना ही बना रहता है. यूँ तो सभी उसकी कृपा के अधिकारी हैं पर वह किसी पर अपना अधिकार नहीं जताता, पूर्ण स्वतन्त्रता देता है. आश्चर्य तो तब होता है जब जिन्हें वह मिल जाता है उन्हें भी न मिलने का भरम बना ही रहता है और एक मधुर सी तलाश सदा ही चलती रहती है. 

Tuesday, November 15, 2016

जब आवे संतोष धन

१५ नवम्बर २०१६ 
भक्ति, युक्ति, शक्ति और मुक्ति, ये चारों जीवन में हों तो जीवन सफल होता है. वास्तव में देखा जाये तो भक्ति और मुक्ति आत्मा का मूल स्वभाव है, शक्ति उसका गुण और यदि ये तीनों हों तो युक्ति खोजने कहीं जाना नहीं पड़ता. चेतना में सहज ही ज्ञान है. ध्यान में न जानने की इच्छा हो न कुछ पाने की तो जो संतुष्टि सहज ही प्राप्त होती है, उसी से भक्ति का पोषण होता है.  

Wednesday, November 2, 2016

मुक्ति की जब जगे कामना

३ नवम्बर २०१६ 

परमात्मा ने मानव को परम स्वतन्त्रता भी दी है और साथ ही परम परतन्त्रता भी. हम आजाद हैं चाहे भला करें या बुरा करें. किन्तु अस्तित्त्व के नियम बड़े सूक्ष्म हैं, जो पल-पल पीछा किया करते हैं और हमारे हर कृत्य का फल हमें भोगना ही पड़ता है ! चाहे वह कर्म मानसिक हो वाचिक हो या शारीरिक हो. कर्म करने की हमें पूर्ण स्वतन्त्रता है पर फल पर हमारा कोई अधिकार नहीं, उसे हम तिल मात्र भी बदल नहीं सकते. कर्म के फल ही हमें बांधते हैं. कर्म का फल हमें दो रूप में मिलता है, एक तात्कालिक सुख या दुख के रूप में और दूसरा संस्कार के रूप में. संस्कार वश हम बार-बार वही कर्म किये चले जाते हैं जिनसे अतीत में दुःख भी पा चुके हैं. इस चक्रव्यूह से निकलने का नाम ही मोक्ष है.

Wednesday, October 19, 2016

पल पल जीवन को जी लें

२० अक्तूबर २०१६ 
जीवन का कैनवास कितना विशाल है, इसका आयाम अनंत तक फैला है. हमारा छोटा सा जीवन असीम सम्भावनाएं छिपाए है. मानव व्यर्थ ही स्वयं को देहों के छोटे-छोटे घरोंदों में कैद मानकर, मान्यताओं व धर्मों की दीवारों में बंट जाता है, और अपनी ऊर्जा व्यर्थ के कर्मों में लगा देता है. जब कि आकाश अपने अनदेखे हाथ हमारे सिरों पर रखे झांक रहा है. इस रंगमंच पर घटते हुए दृश्य की साक्षी धरा भी है. जीवन जो अपने शुद्धतम रूप में हर कहीं है, मानव देह में अपनी पूरी क्षमता के साथ प्रकट हुआ है.  

Monday, October 17, 2016

श्वास श्वास में वही बसा

१८ अक्तूबर २०१६ 
सुबह से शाम तक हम जो भी करते हैं, यदि सचेत होकर करें तो कितनी ऊर्जा बचा सकते हैं. सजग होते ही हमारे मन में एक ठहराव आने लगता है, जो आवश्यक को सहेजता है और अनावश्यक को जाने देता है. यदि पुराने संस्कारों वश कुछ ऐसे कार्य भी हम करते हैं जिनसे बाद में  हानि ही होने वाली है तो धीरे-धीरे वे संस्कार भी खत्म होने लगते हैं. क्योंकि जानबूझकर कोई आग में हाथ नहीं डालता. भगवान बुद्ध तो हर श्वास के प्रति सजग रहने को कहते थे. ध्यान देने से श्वास की गति तेज रह ही नहीं सकती और श्वास यदि धीमी है तो विचारों की गति स्वत: ही धीमी हो जाती है. 

Tuesday, September 27, 2016

भीतर एक अजब दुनिया है

२८ सितम्बर २०१६ 
सुख, शांति, प्रेम और आनन्द का खजाना भीतर है और हम उन्हें बाहर ढूँढ़ते हैं. वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति से हमें सुख मिलता हुआ प्रतीत होता है, पर है सब उधार का, उसका हिसाब चुकता करना ही पड़ेगा. कभी सेहत की कीमत पर कभी रिश्तों की कीमत पर. यहाँ हर मुस्कान की कीमत आंसू से देनी ही पडती है. यह जगत द्वन्द्वों के बिना टिक ही नहीं सकता. तभी तो कहते हैं संत के लिए यह होकर भी नहीं होता क्योंकि वह द्वन्द्वातीत हो जाता है. उसने भीतर वे स्रोत ढूँढ़ लिए हैं जहाँ बेशर्त बिना किसी कीमत के सुख के झरने फूटते रहते हैं. मीरा कहती है, राम रतन धन पायो..कबीर गाते हैं, पानी विच मीन पियासी, मोहे सुन-सुन आवे हांसी.. 

जरा जाग कर जग को देखें

२७ सितम्बर २०१६ 
जीवन को यदि जागकर नहीं जीया तो कदम-कदम पर बंधन की प्रतीति होगी. जागकर देखना क्या है, यही कि इतना बड़ा संसार किसी अनजाने स्रोत से आया है, यह सारी सृष्टि किसी एक बड़े नियम से संचालित हो रही है. हम भी इसी सृष्टि का एक अंग हैं, प्रकृति में सब कुछ अपने आप ही हो रहा है, हमारे भीतर भी श्वास निरंतर चल रही है, रक्त का प्रवाह हो रहा है, भूख का अहसास हो रहा है, भोजन पच रहा है. भीतर जो प्रेम आदि के भाव उठते हैं, उन्हें भी तो हमने नहीं सृजा है, सुख-दुःख के भाव भी तो प्रकृति से मिले हैं. हमने जो कुछ भी पाया है सब यहीं से मिला है. हम इसके साक्षी बनकर आनंद का अनुभव करें अथवा स्वयं को कर्ता मानकर सुख-दुःख के भोक्ता बनें.

Monday, September 26, 2016

नित नूतन हो ज्ञान हमारा

२६ सितम्बर २०१६ 
शिशु जन्मता है और इक्कीस वर्ष की आयु तक उसके शरीर का विकास होता रहता है, किन्तु बुद्धि के विकास की कोई सीमा नहीं है. एक सामान्य व्यक्ति व्यस्क होने तक जिस ज्ञान को अपनाता है, उसी के आधार पर सारा जीवन बिता देता है. वह कभी भी रुककर अपने स्वभाव, अपनी आदतों, मान्यताओं, धारणाओं तथा पूर्वाग्रहों की जाँच नहीं करता, और बेवजह दुःख उठाता रहता है. भूतकाल में लिए गये जो निर्णय वर्तमान में गलत साबित हो रहे हैं, यदि महज स्वभाव वश हम उन्हें दोहराए चले जाते हैं तो भविष्य के लिए भी दुःख के बीज बो रहे हैं. साधक होने का अर्थ यही है कि हम सजग होकर स्वयं का निरंतर आकलन करें, और एक सूक्ष्म दृष्टि से मन को भेदकर सही-गलत का निर्णय करें और किसी भी क्षण जीवन में फेरबदल करने में पल भर भी न झिझकें.

Sunday, September 18, 2016

भीतर इक मुस्कान छिपी है

१९ सितम्बर २०१६ 
संत हमें बतलाते हैं कि आत्मा की शक्ति अपार है, हम उसी अखंड, अनंत परमात्मा का अंश हैं. जीवन संघर्ष नहीं सुखमय क्रीड़ा है. यहाँ हमें किसी के साथ मुकाबला नहीं करना है, अपने को श्रेठतर बनते हुए देखने का आनंद मात्र लेना है. हमारे सिवा कोई भी हमरा मूल्यांकन कर ही नहीं सकता. अपने मन की गहराई में हर आत्मा जानती है उसे क्या चाहिए, बस वह यह नहीं जानती कि उसके आपने पास ही वे सारे खजाने भरे हैं, जगत में थोड़ा घूमघाम कर, भटक कर जब वह अपने घर लौटती है तो पाने का आनंद बढ़ जाता है, और तब जो मुस्कान अधरों पर खिलती है उसे दुनिया की कोई हलचल मिटा नहीं सकती.

वर्तमान गर जाये संवर

१८ सितम्बर २०१६ 
जीवन में अगले पल क्या घटने वाला है, हमें इसकी खबर नहीं है. यही अनिश्चितता इसे अनुपम बनाती है. वास्तव में जो कुछ भी हमें मिलता है कभी न कभी हमने ही उसकी तैयारी की थी. समय के भेद के कारण हम उस वक्त समझ नहीं पाते और भाग्य मानकर कभी ख़ुशी-ख़ुशी और कभी मन मसोसकर स्वीकार कर लेते हैं. क्या ही अच्छा हो आज के बाद हम स्वयं अपने भविष्य की तस्वीर गढें, और अपनी आँखों के सामने उसे सच होता हुआ देखें. सारा अस्तित्त्व हमारी राह देख रहा है इसमें हमारा सहयोगी बनने के लिए. हर अगला पल पिछले पल से ही उपजा है हर कल आज से ही उपजने वाला है. आज इतना मधुर बना लें कि कल मधुमास बन कर सामने आये.

Saturday, September 17, 2016

चलें मूल की ओर

१७ सितम्बर २०१६ 
जीवन के लिए जो भी अति आवश्यक है, प्रकृति ने उसे सहज ही दिया है. हवा, पानी, धूप के बिना हम अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते. प्रातःकाल की शुद्ध वायु में भ्रमण, जब सूर्य की किरणें भी धरा का स्पर्श करती हों तथा जब भी सम्भव हो सके सागर, नदी अथवा खुले जल स्रोत के निकट शीतल जल का सान्निध्य, तन और मन को प्रफ्फुलित कर देता है. प्राणायाम के रूप में वायु एक औषधि भी है, जल और धूप भी प्राकृतिक चिकित्सा में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. आज शहरी सभ्यता के दुष्प्रभाव अनेक बीमारियों के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं, जिनका समाधान प्रकृति के द्वारा   किया जा सकता है.    

Wednesday, September 14, 2016

सत्यं शिवं सुंदरं

१५ सितम्बर २०१६ 
जीवन हजार रूपों में हमारे सम्मुख आता है और हर रूप एक से बढ़कर एक होता है. अभी धूप खिली थी और न जाने कहाँ से बादलों का हुजूम चला आता है, बरसने लगता है. प्रकृति भरपूर है, वह अपनी नेमतें हर पल लुटा रही है. जीवन का आधार इस सौन्दर्य के पीछे छिपा है. वही हर कृत्य को अर्थ से भर देता है, मनसा, वाचा, कर्मणा हमारा हर छोटा-बड़ा कृत्य उसी से उपजा है और उसी के लिए है जब यह सत्य उद्घाटित होता है तब मानो हर तरफ जीवन खिलता हुआ प्रतीत होता है. 

कुदरत के संग जीना है

१४ सितम्बर २०१६  
सद्गुरू कहते हैं एक ही तत्व से यह सारा अस्तित्त्व बना है ! सारा खेल ऊर्जा का ही है ! मन भी ऊर्जा है और तन भी ! सब चेतना ही है, जो ऊर्जा बहती रहे वही सफल है. भोजन, जल, सूर्य, नींद तथा श्वास सभी तो ऊर्जा के स्रोत हैं, हम जिनसे लेते ही लेते हैं, लेकिन जब तक देना शुरू नहीं कर देते तब तक ऊर्जा भीतर दोष पैदा करना शुरू कर देती है. रचनात्मकता तभी तो हमें स्वस्थ बनाये रखती है. यदि हम एक माध्यम बन जाएँ जिसमें से प्रकृति प्रवाहित हो और अपना काम करती जाये, हम उसके मार्ग में कोई बाधा खड़ी न करें, तो हम जीवन के साथ एकत्व का अनुभव करते हैं.

Tuesday, September 13, 2016

द्वैत मिटेगा जब भीतर से

१३.९.२०१६ 
शिशु अबोध होता है, उसे अपने पराये का बोध नहीं होता, वह सभी को सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है. वयस्क होने पर उसे भेद का बोध होता है, वह जगत को बाँट कर देखता है. राग-द्वेष जगाता है. उसका निर्दोष स्वभाव खो जाता है. उसे यदि पुनः अपने सहज स्वरूप को पाना है तो प्रतिक्रमण करना होगा. पुनः द्वैत की दुनिया के पार जाना होगा. उस ‘एक’ में गये बिना मुक्ति नहीं. साधना होगा मन को ताकि भीतर उस 'अबोधता' को पा सके जो एक शिशु के रूप में उसे सहज ही प्राप्त थी. 

Thursday, August 18, 2016

यह राखी बंधन है ऐसा

१८ अगस्त २०१६ 
रक्षा का यह बंधन जो बांधता है और जो बंधवाता है दोनों के लिए एक सा महत्व रखता है. एक मर्यादा का प्रतीक है यह रेशमी धागा, मर्यादा मूल्यों की, प्रकृति के संरक्षण की और स्वयं को उच्च जीवन की और ले जाने वाले पथ पर स्थिर रहने की. कलाई में बंधा यह याद दिलाता है कि संबंधों की गरिमा को हर हाल में निभाना है, निभाना ही नहीं उनमें नित नये रंग भरने हैं. सीमाओं में बंधी सुंदर जलधार ही नदी कहलाती है, जिसके दोनों तटों पर जीवन खिलता है. उसी तरह जीवन को कुछ मर्यादाओं में बांधकर गति प्रदान करने का उत्सव है रक्षा बंधन, जिसके कारण समाज में एकत्व और आत्मीयता की भावना का विकास होता है.     

Thursday, August 11, 2016

माली सींचे मूल को

१२ अगस्त २०१६ 
जब तक स्वयं की सही पहचान नहीं मिलती, जीवन में एक अधूरापन महसूस होता है. सब कुछ होते हुए भी एक तलाश जारी रहती है. देह किसी भी क्षण रोगग्रस्त हो सकती है, मृत्यु को प्राप्त हो सकती है, यह भय भी अनजाने सताता रहता है, शेष सारे भय उसकी की छाया मात्र हैं. स्वयं की पहचान करना इतना महत्वपूर्ण होते हुए भी हम इस कार्य को टालते रहते हैं, इसका कारण शायद यही है कि हमें लगता ही नहीं कि हम स्वयं को नहीं जानते, तभी हम अक्सर दूसरों से यह कहते हैं, तुम मुझे नहीं जानते. इस जानने में एक बड़ी भूल यह हो रही है कि जन्म के बाद इस जगत में हमने जो भी हासिल किया है, उसी से हम स्वयं को आंकते हैं. वृक्ष का जो भाग बाहर दिखाई देता है उसका मूल भीतर छिपा है. इस जीवन में हमने जो भी पाया अथवा खोया है उसका मूल भीतर है. यदि बाहर को संवारना है तो मूल से परिचय करना ही होगा.  

Tuesday, August 9, 2016

जीवन इक वरदान बने

९ अगस्त २०१६ 
यदि कोई तारों भरे आकाश को देखकर प्रफ्फुलता से नाच सकता है, और सुबह की किरण का स्पर्श पाकर उसी भांति उठता है जैसे पंछी जगते हैं तो वह अभी भी निसर्ग से जुदा नहीं हुआ है. शहर की प्रदूषित हवा और कंक्रीट के जंगलों में पला व्यक्ति आज कुम्हला गया है क्योंकि न तो वहाँ पूर्णिमा का चाँद दिखाई देता है न भोर का उगता हुआ सूरज..जंगल और गाँव के निकट रहने वाला व्यक्ति अभी भी खिला नजर आता है. प्रकृति कुछ करती नजर नहीं आती पर वहाँ सब कुछ अपने आप होता है. प्रकृति से जुड़ा व्यक्ति भी कुछ करता हुआ नहीं लगता, उससे कर्म होते हैं वैसे ही जैसे पेड़ों पर फूल लगते हैं. तब जीवन अपने आप में पूर्ण नजर आता है.

Thursday, July 28, 2016

कर्म में ही आनंद छिपा है

२८ जुलाई २०१६ 
हम जिस समय जो भी कार्य कर रहे होते हैं उस समय उसका कोई मूल्य हमारी नजर में नहीं होता, बल्कि भविष्य में जो कुछ उस कर्म से मिलेगा उसे ही मूल्य देते हैं. जैसे कोई नौकरी कर रहा है तो महीने के अंत में मिलने वाले धन में उसका मूल्य देखता है, फिर जब धन मिलता है तो उसका मूल्य भी उन वस्तुओं में देखता है जो उससे खरीदी जाएँगी, और वस्तुओं का मूल्य तब होगा, जब वह मिलने वाले को प्रसन्न करेंगी, और इस तरह हम एक चक्र में घूमते रहते हैं. जीवन हमें अर्थहीन लगने लगता है, यदि हर पल ऐसा हो कि जो भी हम कर रहे हों अपने आप में ही मूल्यवान हो, तो जीवन उत्सव बन जाता है. 

Tuesday, July 26, 2016

सजगता ही ध्यान है

जुलाई २०१६ 
एक बार एक व्यक्ति एक संत के पास गया अपने जीवन की परेशानियाँ कहीं और उनसे शांति का मार्ग पूछा. संत ने कहा,  ध्यान ! उस व्यक्ति ने कहा एक शब्द में आपने मेरे इतने सारे सवालों का जवाब दे दिया, कुछ और कहें, संत ने दो बार कहा, ध्यान, ध्यान. पुनः उस व्यक्ति ने कहा, विस्तार से कहें. संत ने तीन बार कहा, ध्यान, ध्यान, ध्यान. ध्यान से ही सजगता आती है. असजगता ही दुःख है और सजगता ही सुख है.

Wednesday, July 20, 2016

मन हुआ जब सहज संतोषी

२१ जुलाई २०१६ 
हमें अपनी प्राथमिकताओं को समझना होगा. जीवन में हम क्या चाहते हैं, क्या सुख-सुविधा जुटाना ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है. स्वयं को स्वस्थ व सुरक्षित बनाये रखने में ही क्या हमारी सारी ऊर्जा व्यय होती है. इन सबको प्राप्त करते हुए क्या भीतर तनाव भी होता है. यदि हाँ, तो हम जो चाहते हैं हमारे कर्म उसके विपरीत हैं, वे हमें अपने लक्ष्य से दूर ही ले जायेंगे. जीवन स्वयं में आनन्द है, जीवन मात्र ही अनंत सुख का स्रोत है, क्या इसका अनुभव होने पर कोई अभाव रहेगा. संतोष तब सहज स्वभाव बन जायेगा और स्वास्थ्य तब प्राप्त करना नहीं होगा, हम स्व में ही स्थित रहेंगे.  

Tuesday, July 19, 2016

बिन गुरू ज्ञान न होए

१९ जुलाई २०१६ 
सद्गुरु कहते हैं जीवन गुरूतत्व से सदा ही घिरा है. गुरु ज्ञान का ही दूसरा नाम है. अपने जीवन पर प्रकाश डालकर हमें ज्ञान का सम्मान करना है, अर्थात सही-गलत का भेद जानकर जीवन में आने वाले दुखों से सीखकर ज्ञान को धारण करना है, ताकि पुनः वे दुःख न झेलने पड़ें. मन ही माया को रचता है और अपने बनाये हुए लेंस से दुनिया को देखता है. साधक वह है जो कोई आग्रह नहीं रखता न ही प्रदर्शन करता है. देने वाला दिए जा रहा है, झोली भरती ही जाती है. हमें वाणी का वरदान भी मिला है और मेधा भी बांटी है उसने. यदि उसे सेवा में लगायें जीवन तब सार्थक होता जाता है. भक्ति और कृतज्ञता के भाव पुष्प जब भीतर खिलते हैं, मन चन्द्रमा सा खिल जाता है, गुरु पूर्णिमा तब मनती है. 

Friday, July 15, 2016

टिक जाएँ निज स्वभाव में


सतयुग में कोई ध्यान नहीं करता क्योंकि कोई मानसिक रूप से बेचैन नहीं होता। कोई ईश्वर की पूजा नहीं करता क्योंकि किसी को कोई भी अभाव नहीं होता।  ज्ञान की साधना नहीं होती क्योंकि कोई अज्ञानी नहीं होता। कोई संत नहीं होता क्योंकि कोई असंत नहीं होता। आज समाज में जितना ज्ञान बढ़ रहा है उतना ही पाखंड  भी बढ़ रहा है. जितना लोग होशियार हो रहे हैं उतने ही चालाक भी हो रहे हैं. इसका अर्थ हुआ जब तक कोई द्व्न्द्वों के पार नहीं चला जाता तब तक उनसे मुक्त नहीं हो सकता। अच्छे बने रहने का आग्रह बुरे से पीछा छुड़ाने देता।  मन के पार आत्मा में स्थित रहकर ही  कोई दोनों के पार जा सकता है. स्वभाव में टिकना आ जाये तो ही सुख-दुःख दोनों से मुक्त हुआ जा सकता है.

Monday, July 11, 2016

दूर हटेगी जब हर बाधा

११ जुलाई २०१६ 
परमात्मा और हमारे बीच मल, विक्षेप व आवरण तीन बाधाएँ हैं. संचित पाप तथा देह के विकार ही मल हैं, मन की चंचलता व दुर्गुण ही विक्षेप है तथा मोह व अज्ञान का आवरण है. ये सभी दूर हो जाएँ तो परमात्मा हमारे सम्मुख ही है. हमारी प्राणशक्ति जितनी अधिक होगी भीतर उत्साह रहेगा, समाधान रहेगा, प्राणशक्ति घटते ही रोग भी घेर लेते हैं तथा मन भी संदेहों से भर जाता है. देह में हल्कापन लगे तो प्राणशक्ति अधिक है, भारीपन लगे तो शक्ति कम है.  

Thursday, July 7, 2016

भक्ति करे कोई सूरमा

७ जुलाई २०१६  
तेरी बज्म तक तो आऊँ, जो यह आना रास आए
यह सुना है जो भी लौटे, वे उदास आए !


गुरु की दृष्टि, उसकी वाणी, उसका स्पर्श और उसका चिन्तन भी साधक के भीतर जागृति ले आता है. तब एक भिन्न तरह की उदासी उसे घेर लेती है, जो अब इस दुनिया में उसे चैन नहीं लेने देती. वह भी प्रेम के पंख लगाकर अनंत गगन में उड़ान भरना चाहता है. भक्ति मार्ग सहज भी है और कठिन भी. ‘प्यार सभी का काम नहीं, आंसू सबका आम नहीं’ ! सद्गुरु की उदारता ही परमात्मा की कृपा करवाती है, साधक की पात्रता नहीं. 

Wednesday, June 29, 2016

उसका हाथ सदा है सिर पर

२९जून २०१६ 
परमात्मा जीवन में कितने अनजाने रस्तों से प्रवेश करता है, हम इसका अनुमान भी नहीं कर सकते. माता-पिता बच्चे की सुरक्षा के लिए कोई कसर नहीं रखते, वैसे ही वह परमात्मा कदम-कदम पर सहायता करता है. जीवन में आने वाली हर चुनौती एक उपहार देती है. कितनी ही बाधाएँ आयें, आत्मा की शक्ति घटती नहीं, वह नये-नये कर्मों का फल भोगती है और नये अनुभव प्राप्त करती है. आत्मा में ज्ञान है और वही उसे पथ से भटकने नहीं देता.  

Monday, June 27, 2016

हुकुम रजाई चालिए

२८ जून २०१६ 
हमारे जीवन में आने वाला दुःख इस बात का सूचक है कि हम ऋत के नियम के प्रतिकूल चल रहे थे. हम दुःख को मिटाने का प्रयास तो करते हैं पर नियम के अनुसार नहीं चलते. यदि हमें लगता है किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति के कारण हमें दुःख है तो कारण वह व्यक्ति नहीं है बल्कि एक स्वतंत्र आत्मा पर अधिकार जताने का हमारा व्यर्थ प्रयास ही है, न ही वह वस्तु, सम्भवतः उसका सही उपयोग करना हमें नहीं आता, न ही कोई परिस्थिति हमारी मन:स्थिति को तब तक प्रभावित कर सकती है जब तक हम उसे अनुमति न दें. यदि कोई कार्य ऋत के अनुकूल है तो उससे सुख ही उत्पन्न होगा. प्रभाव या अभाव से मुक्त होकर स्वभाव में रहना ही ऋत का नियम है. 

पूर्ण: मद: पूर्ण: मिदं

२७ जून २०१६ 
ऋषियों ने गाया है परमात्मा पूर्ण है, उस पूर्ण से निकला जगत भी पूर्ण है. हर चेतना मूल रूप में अपने आप में पूर्ण है. एक बीज प्रकृति की हर बाधा को पार करता हुआ जगत में अपनी सत्ता को प्रकट करता है. एक शिशु भी बिना कुछ सिखाये ही प्रेम और शक्ति का प्रदर्शन करता है. कितना अच्छा हो हर व्यक्ति को अपनी निजता में जीने का अधिकार मिले, किसी से किसी की तुलना न हो, प्रतिस्पर्धा न हो. इस स्थिति में क्या सहज ही मानव तनाव और हर तरह के दबाव से स्वयं को मुक्त नहीं पायेगा.

Saturday, June 25, 2016

आगे ही आगे जाना है

२६जून २०१६ 
जीवन में हमें जिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है और जिन लोगों के सम्पर्क में हम आते हैं वे सभी परिस्थितियाँ और लोग किसी न किसी रूप में हमें विकसित करने के लिए उत्सुक हैं. उनके प्रति हमारा रवैया ही इस बात को तय करेगा कि हम इस अवसर का लाभ उठा रहे हैं अथवा इससे स्वयं की हानि कर रहे हैं. आत्मा की उन्नति अथवा अवनति की सौ प्रतिशत जिम्मेदारी उसकी स्वयं की होती है. बाहरी रूप से परिस्थिति चाहे कैसी हो, किन्तु भीतर से हमारी प्रतिक्रिया कैसी रही, कर्म का फल इसी बात से मिलता है. 

Friday, June 24, 2016

खोलें दिल का द्वार

२४ जून २०१६  
हम जीवन में जो चाहते हैं वह पा सकते हैं बशर्ते हमें यह स्पष्ट हो कि हम चाहते क्या हैं ? स्वयं को जाने बिना हम यह जान ही नहीं पाते कि हमारी वास्तविक मांग क्या है, और स्वयं हुए बिना स्वयं को जाना नहीं जा सकता. स्वयं होने के लिए हृदय का द्वार खटखटाना होगा. बुद्धि पर भरोसा छोड़कर भाव जगत में प्रवेश करना होगा. कुछ पलों के लिए हानि-लाभ की भाषा त्यागकर जीवन को उसके सच्चे स्वरूप में जानना होगा.

Friday, April 8, 2016

बन जाएँ सो जो चाहें


जगत में जिस किसी को भी जिस शै की तलाश है, उसे पाने के लिए खुद ही वह बन जाना होता है. इस जगत का अनोखा नियम है यह, यहाँ स्वयं मिटकर स्वयं को पाना होता है. तपता हुआ सूरज बन कर ही प्रकाश फैलाना सम्भव है, हिम शिखर हुए बिना शीतलता क्योंकर बिखरेगी, प्रेम यदि पाना है तो स्वयं प्रेम बने बिना कहाँ मिलेगा इसी तरह शांति का अनुभव भी शांत हुए बिना नहीं खिलेगा.