Sunday, July 31, 2011

पूजा


जुलाई २००१ 
गुरुनानकदेवजी ने कहा है कि यह विशाल गगन ही उस परमेश्वर की आरती का थाल है, सूर्य, चन्द्र, तारे उसमें जलते हुए दीपक हैं, हवा फूलों और वनस्पतियों रूपी धूप की सुगंध फैला रही है और चंवर डुला रही है ... ऐसे विराट स्वरूप को क्या हम मन्दिरों में कैद कर सकते हैं...मंदिर हम जाते हैं ताकि उसकी याद आ सके, लेकिन वहाँ की पवित्रता भी यदि भीतर कोई परिवर्तन नहीं ला रही, तो भाव शून्य होकर पूजा करना समय व शक्ति का पूरा-पूरा उपयोग नहीं कहा जा सकता. हमारे भीतर पूर्ण जीवन की सम्भावनाएं छिपी हुई हैं, सृजन, सुख और आनंद के स्रोत हैं जो हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं. भीतर के मंदिर के द्वार खुलें यही बाहर के मंदिर की सार्थकता है. 

Friday, July 29, 2011

ईश्वरीय प्रेम


जुलाई २००१ 
ईश्वर को प्रेम करने का अर्थ संसार विरोधी हो जाना नहीं है. जब हमारे जीवन में प्रेम होता है तो वह सबके लिये होता है उसमे सारी समष्टि समा जाती है. ईश्वर, प्रकृति, मानव उससे कुछ भी अछूता नहीं रहता. प्रेम की बाढ़ सब कुछ बहा कर ले जाती है, उसमें गहन ऊर्जा छिपी है, जो आस-पास की हर वस्तु को एक नए दृष्टिकोण से दिखाती है.

Thursday, July 28, 2011

मैं कौन हूँ


july 2001
साधक के जीवन में एक स्थिति ऐसी भी आती है जब परमेश्वर की स्मृति में उसका मन सहज रूप से लगने लगता है, उसे लगाना नहीं पड़ता, अर्थात वह अपने वास्तविक रूप को पहचान लेता है. बस एक झीना सा पर्दा है हमारे और उसके बीच. जब तक यह पर्दा है हमें उसकी पूजा करनी पड़ती है जबकि वह हर क्षण हमारी श्रद्धा का केन्द्र है ही. वही ‘मैं’ का आधार है, आत्मा के आधार के बिना मन कैसे टिक सकता है. बाहरी सुविधाओं के पीछे हम भागते रहते हैं पर कोई न कोई कमी रह ही जाती है और इसी में जीवन पूरा हो जाता है. उस एक से प्रीति होने पर परम सुविधा मिलती है जो कभी छूटती नहीं. हम वास्तव में क्या हैं यह न जानने के कारण ही सारा भ्रम है, एक अँधेरी रात में एक ठूंठ को एक व्यक्ति चोर समझता है दूसरा साधु और तीसरा रोशनी करके उसकी असलियत जान लेता है. हमें भी इस जगत की असलियत जाननी है, न ही यह हमारे राग के योग्य है न ही द्वेष के, तभी हम मुक्त हैं और वही हम हैं. 

ध्यान की शक्ति


ध्यान के समय जब मन किसी वस्तु का चिंतन करने लगे तो यह भाव करना होगा कि उस वस्तु को देखने वाला मानस चक्षु और सोचने वाला मानस भी उसी आत्मा का ही अंश है. अपनी श्वास पर ध्यान ले जाने से भी ध्यान पुनः टिक जाता है. हमारी श्वास तथा विचारों में बड़ा सम्बन्ध हैं, साँस को नियंत्रित करके हम अपनी भावनाओं को भी नियंत्रित कर सकते हैं. शरीर में होने वाले कई रोग जो नकारात्मक भावनाओं के परिणाम हैं, दूर किये जा सकते हैं. श्वास के द्वारा पहले हमें भावनाओं को सकारात्मक बनाना है और फिर ध्यान के द्वारा सुप्त शक्तियों को जगाना है प्रेम की शक्ति और ज्ञान की शक्ति.

Wednesday, July 27, 2011

भीतर-बाहर


अहंकार रूपी पवन हमारी मन रूपी तरंग को संसार सागर के तट से टकराती रहती है. जो हम इस दुनिया को बांटते हैं, वही हमें वापस मिलता है. सारा ब्रह्मांड एक प्रतिबिम्ब है एक प्रतिध्वनि है. हम जैसा दिखाना चाहते हैं, देखना चाहते हैं, वही हमें दिखाई पड़ता है. जो कुछ बाहर है वही भीतर है और जो कुछ भीतर है वही बाहर है. बाहर की सच्चाई को हम बुद्धि के स्तर पर समझ सकते हैं पर भीतर के सत्य को अनुभूति के स्तर पर समझना होगा. प्रतिपल अंतर को साक्षी भाव से देखने की कला विकसित करनी है. जो भी स्फुरणा जगे उसके प्रति सजग होकर संवेदना को देखना है. धीरे धीरे संवेदना शांत होती जाती है और स्फुरणा भी शांत होती जाती है. 

Monday, July 25, 2011

जागरण


मई २००१ 
उठ जाग मुसाफिर भोर भई” यह गीत बचपन में प्रभात फेरी में गाते थे पर इसमें किस जागरण कि बात कही गयी है तब यह समझ नहीं आता था. संत बताते हैं कि जागना है अपने जीवन के प्रति... कुछ बनने की दौड़ में जो द्वंद्व हम भीतर खड़े कर लेते हैं उनके प्रति. अकड़ जो हमारे मन को जकड़ लेती है बेहोशी की निशानी है, खाली मन जागरण की, क्योंकि मन का स्वभाव ही ऐसा है कि इसे किसी भी वस्तु से भरा नहीं जा सकता इसमें नीचे पेंदा ही नहीं है, तो क्यों न इसे खाली ही रहने दिया जाये व्यर्थ के झंझट से भी छूटे, मुक्ति का अहसास उसी दिन होता है जब सबसे आगे बढ़ने की वासना से मुक्ति मिल जाती है. 

Saturday, July 23, 2011

कर्म और कर्म फल


मई २००१ 
किसान यदि बीज बोते हुए सजग है तो फल अपने आप ही अच्छा आयेगा. कर्म करते समय यदि हम सजग रहें तो कर्म के फल की चिंता करने की जरूरत नहीं रहेगी. प्रकृति के इस नियम को जिसने मात्र बुद्धि के स्तर पर नहीं, अनुभूति के स्तर पर समझ लिया तो धर्म उसके जीवन में स्वतः आ जायेगा. धर्म सरल है उनके लिये जो चित्त से सरल हैं. करेले का बीज लगाकर कोई आम की आशा करे तो उसे क्या कहेंगे ऐसे ही कोई भी कर्म चाहे वह कितना ही छोटा हो स्वार्थ वश, मलिन भाव से अथवा क्रोध से किया गया हो तो परिणाम दुखद ही होगा. भीतर यदि संकीर्णता हो तो बाहर का सुख भी व्यर्थ ही सिद्ध होता है.   

Friday, July 22, 2011

वास्तविक जीवन



मृत्यु बोध को उपलब्ध हुए बिना जीवन विकार मुक्त नहीं हो सकता. यदि हम हर क्षण मृत्यु को याद रखें तो ही वास्तविक जीवन की कद्र करना सीखेंगे. तन मरण धर्मा है, परतंत्र है. इसे प्रकृति के नियमों के अनुसार एक न एक दिन विसर्जित होना है. हम अपनी सारी ऊर्जा इसी को बचाए रखने के लिये लगाते हैं. मन भी परतंत्र है इन्द्रियों का. किन्तु यह चाहे तो स्वतंत्र हो सकता है और उसी दिन यह भी अमन हो जायेगा. आत्मा अमर है, स्वतंत्र है, पर उसका अनुभव मन के पार जा कर ही होगा. इस अनुभव के बाद ही हमें अमरता का अर्थात वास्तविक जीवन का बोध होगा.

Thursday, July 21, 2011

दर्शन


अप्रैल २००१ 

हमारे कर्म यदि हमारे अहंकार का पोषण करने वाले होंगे तो मुक्ति का ख्याल भी दिल से निकाल देना होगा. हम मनसा, वाचा कर्मणा जो कुछ भी करें सभी अंतरात्मा की प्रसन्नता हेतु हों न कि अहं को संतुष्ट करने के लिये. तभी हमारा जीवन उस महान सूत्रधार का प्रतिबिम्ब बनेगा. अपनी संवेदना को तीव्रतर करते हुए भावनाओं को पुष्ट करते हुए तथा चिंतन को गहन करते हुए एक दर्शन तलाशना होगा जो हमें अध्यात्म मार्ग पर ले जायेगा, जो भीतर से उपजेगा वही सार्थक होगा, सुंदर भी और  वही शाश्वत भी.

Tuesday, July 19, 2011

ध्यान से ध्यान तक

 अप्रैल २००१ 
जीवन में साधना, स्वाध्याय व अनुशासन हो तभी मन का कोलाहल शांत हो सकता है और जब तक यह कोलाहल शांत नहीं होगा, ध्यान नहीं टिकेगा. ध्यान के लिये स्वयं को तैयार करना होगा, सभी कार्यों को थोड़ी देर के लिये तिलांजली देकर मन को हर तरह की तरंगों से मुक्त करना होगा, इस पथ पर जो भी चले उसे अपना अहं छोड़ ही देना होगा. सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी तथा मान-अपमान में समता रखनी होगी. आधा घंटे के ध्यान से चौबीस घंटों के लिये ऊर्जा मिल सकती है, जो पुनः ध्यान में सहायक होगी. 

अंतर का संघर्ष

कुछ नया करें, नया सोचें, नया बोलें, कुछ नया होगा तो उस पर चिंतन होगा, मेधा तीव्र होगी. धारा के साथ बहने में कोई शक्ति नहीं लगती धारा के विपरीत बहने में ही संघर्ष है. आदर्शों को यदि जीवन में अपनाना है तो संघर्षो का सामना करना ही होगा. जो बाधाओं को सीढियाँ बना कर ऊपर चढ़ जाता है उसके अंतर में आह्लाद उत्पन्न होता है जो अंतर को सिंचित करता है. जीवन में कोई भी व्रत हो और उसका पालन करने की दृढ़ता हो तभी दीक्षा का जन्म होता है जिससे क्षमता बढ़ती है, क्षमता से श्रद्धा और श्रद्धा से अंतिम सत्य की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है. उसके बिना जो भी हम करते हैं वह बस तैयारी है. 

Monday, July 18, 2011

ध्यान

ध्यान वह स्थिति है जहाँ मन नहीं रहता, न अतीत की चिंता, न भावी की कल्पना. संसार समय की बदलती हुई स्थिति को ही दर्शाता है. ध्यान समय, संसार, व मन तीनों से अतीत ले जाता है. ज्ञान का अधकारी समाहित मन ही हो सकता है. ध्यान मन का स्नान है. मन स्वस्थ होता है, चेतना जगती है, मन हल्का होता है लेकिन यह सब परिणाम है, ध्यान के वक्त तो केवल शून्यता होती है, संसार से परे की झलक मिलती है ध्यान में. जो इस जगत को ईश्वर मय जान लेता है उसका ध्यान सहज ही टिकता है. कुछ क्षणों का ध्यान ही शांति की गहरी अनुभूति कराता है. 

Saturday, July 16, 2011

परमार्थ का मार्ग

फरवरी २००१ 
परमार्थ की राह पर चलने वाले को कदम-कदम पर सजग रहना है. हर देखी, सुनी वस्तु का चित्र हमारे मन पर अंकित हो जाता है. दुःख को मिटाते-मिटाते व सुख की चाह करते-करते जीवन बीत जाता है, मिथ्या की सत्यता स्पष्ट नहीं होती. ज्ञान रूपी सूर्य को पीठ देकर हम छाया के पीछे दौड़ते हैं. तुच्छ को महत्व देने से ही हम स्वयं में श्रद्धा नहीं कर पाते. यह संसार सापेक्ष है, लेकिन कुछ तो है जो मानक है. उस परम की खोज में ही वास्तविक आनंद है, बाकी सारे कार्य उस उद्देश्य की प्राप्ति के निमित्त ही होने चाहिये. हमारा व्यवहार, वाणी, कर्म, त्तथा सँग भी इस बात का परिचायक होना चाहिए कि हम उस पथ के यात्री हैं.

Friday, July 15, 2011

यथार्थ और आदर्श

जनवरी २००१ 
मानव के पास भाव, विचार, और विवेक का बल है, लेकिन वह उसका सदुपयोग नहीं कर पाता. अपने बाहरी व्यक्तित्व को सजाने- संवारने का प्रयत्न तो करता है किन्तु भावनात्मक, बौद्धिक और आत्मिक व्यक्तित्व को निखारने का प्रयास नहीं करता, सो आडम्बर और पाखंड पूर्ण जीवन जीता है. भीतर से हम जितना सत्य के निकट होंगे, यथार्थ का सामना करेंगे, वास्तविकता को पहचानेगें उतना ही आंतरिक व्यक्तित्व व्यक्त होगा, अन्यथा दोहरी जिंदगी जीने को विवश होंगे. हमें अपने आदर्शों को  मूर्त रूप देना होगा तथा उसे जीवन में यथासम्भव उतरना होगा. सच्चा आनंद, मन की शांति का अनुभव हमें तभी होता है जब हम आदर्शों के निकट होते हैं.

Thursday, July 14, 2011

सहज स्वभाव

दिसंबर २००० 


अभाव ही इच्छा को जन्म देता है, और अभाव अज्ञान से उत्पन्न होता है, अभाव हमारा सहज स्वभाव नहीं है क्योंकि हम वास्तव में पूर्ण हैं. अपूर्णता ऊपर से ओढ़ी गयी है, और चाहे कितनी ही इच्छा पूर्ति क्यों न हो जाये यह मिटने वाली नहीं, क्योंकि पूर्ण तो मात्र ईश्वर है वही इसे भर सकता है. इसी तरह हम मुक्त होना चाहते हैं जबकि मुक्त तो हम हैं ही, बंधन खुद के बनाये हुए हैं, प्रतीत होते हैं. ईश्वर से हमारा सम्बन्ध सनातन है, हम उसी के अंश हैं, उसका प्रेम ही हमारे हृदय में झलकता है. अज्ञान वश जब हम इस सम्बन्ध को भूल जाते हैं तथा प्रेम को स्वार्थ सम्बन्धों में ढूंढने का प्रयास करते हैं तो दुःख को प्राप्त होते हैं. इसीलिए सदगुरु कहते हैं कि न अभाव में रहो, न प्रभाव में रहो बल्कि स्वभाव में रहो. 

Wednesday, July 13, 2011

संत मन

नवम्बर २००० 
चलो सखि, यह मन संत बनाएँ ! यदि यह मन ( जो सारे क्रिया कलापों का केन्द्र बिंदु है) संत बन  जाये तो हम अपने सहज स्वरूप को प्राप्त कर सकते हैं. ऐसा मन जो आलोचना नहीं करता, नुक्ताचीनी से परे है, कुछ चाहता नहीं है, अपेक्षा नहीं रखता, लोभी नहीं है,  जो मुक्त है परम्पराओं से, पूर्वाग्रहों से, जड़ मान्यताओं से. मन जो कहीं अटका नहीं है, गतिमान है, संत की तरह, जल की धार की तरह बहता जाता है तट को भिगोता हुआ पर तट से बंधता नहीं. जिस पर कोई लकीर नहीं पड़ती जो प्रेम से ओत-प्रोत है, जीव मात्र के प्रति प्रेम से, जो अमानी है. 

Tuesday, July 12, 2011

श्रद्धा

मन रूपी मार्ग पर दिन भर विचारों के यात्री आते-जाते रहते हैं. हमें उन पर प्रतिबंध लगाना है, यात्री कम होंगे तो मार्ग स्वच्छ रहेगा, और धीरे-धीरे उन यात्रियों का आना-जाना इतना कम हो जाये कि मन दर्पण की भांति चमकने लगे, और आत्मा झलकने लगे. सत्संग, सेवा और साधना इसमें हमारी सहायता करते हैं, सत्संग में सद्वचन मिलते हैं जिससे आत्मा व परमात्मा के प्रति श्रद्धा का भाव उपजता है, श्रद्धाहीन व्यक्ति रसहीन होता है, वह चतुर या ज्ञानी तो हो सकता है पर उस सहज सुख से वह वंचित रहता है जो ईश्वर के नाम स्मरण मात्र से मिलता है. 

Monday, July 11, 2011

भूलभुलैया


अक्टूबर २००० 
हम दुनियावी बातों में इस कदर उलझे रहते हैं कि सर उठाकर यह देखने की फुरसत भी नहीं निकाल पाते कि इस उलझाव से परे भी कोई दुनिया है. हम इस बात से बेखबर ही रहते हैं कि कहीं कोई उलझन भी है. इसी उलझाव को जिंदगी मानकर जिए चले जाते हैं. जैसे पतंगों को दीये की लौ में जल जाना ही जीवन का परम उद्देश्य लगता है वैसे ही हमें भी इन रोजमर्रा के साधारण से दिखने वाले कामो में अपनी सारी ऊर्जा, (शारीरिक, मानसिक और आत्मिक) खपाते रहते हैं. इस ऊर्जा का कोई और उपयोग भी हो सकता है हम सोचने की जरूरत ही महसूस नहीं करते. ईश्वर से की गयी प्रार्थनाएं भी स्वार्थ से परिपूर्ण होती हैं, हम यही चाहते हैं कि इन झंझटों में वृद्धि हो कि हम इनमें और उलझे रहें, मदहोश रहें, ताकि बड़े प्रश्नों से बचे रहें, ऐसे प्रश्न जो मन को झकझोरते हैं, आत्मा को कटघरे में खड़ा करते हैं. हम इसी भूलभुलैया में मग्न रहना चाहते हैं.

Saturday, July 9, 2011

जीवन और मृत्यु

लहरें सागर में जन्मती हैं, रहती हैं और नष्ट होती हैं, पर उन्हें इसका भान नहीं होता, ऐसे ही हम ईश्वर में जन्मते, रहते और नष्ट होते हैं, हमें अपने अस्तित्त्व का भान अपने जीवित रहने का भान मृत्यु के समय होता है. जीवन भर हम मृतकों के समान जीते रहते हैं, एक बेहोशी की हालत में. तभी हमें अपने भीतर रहने वाले ईश्वर के दर्शन नहीं होते. हम हर पल बाहर की ओर भाग रहे हैं, और फिर एकाएक मौत का परवाना आ जाता है, तब पीछे मुडकर देखने का वक्त भी नहीं होता. हम समय रहते जाग सकते हैं, इसके लिये मन के द्वार को झाड़-बुहार कर उस पाहुने की प्रतीक्षा करनी होगी जो आने के लिये स्वयं ही प्रतीक्षा कर रहा है.   

Friday, July 8, 2011

विवेकी जन


सितम्बर २००० 
विवेकी को इस जगत से या परमात्मा से कुछ पाने की इच्छा नहीं रहती, वह तो पूर्ण हो चुका होता है. उसे कुछ पाना शेष नहीं रहता बल्कि छोड़ना ही शेष रहता है. संसार में आसक्ति को छोड़ना, सुख बुद्धि को छोड़ना, विकारों को छोड़ना और धीरे-धीरे काल्पनिक वृत्तियों को त्याग कर अपने आप में ठहर जाना. वह अपने सुख-दुःख के लिये स्वयं को जिम्मेदार मानता है, मानता ही नहीं बल्कि जानता है, क्योंकि विवेकी कोई भी निर्णय स्वयं के अनुभव के आधार पर करता है. 

Thursday, July 7, 2011

प्रेम और मोह

अगस्त २००० 
प्रेम एक व्यापक तत्व है, समुन्दर की तरह विशाल और आकाश की तरह निस्सीम ! जहाँ भी, जिसके भी हृदय में प्रेम होगा वह सबके लिये, प्राणी मात्र के लिये होगा. मोह एक संकीर्ण धारा की तरह है. मोह बंधन में डालता है जबकि प्रेम मुक्त करता है. नीला आकाश हमारी आत्मा का मूल स्वभाव है, स्वच्छ, निर्मल, मुक्त और असीम. विचारों के बादल उसे आच्छादित कर भी लें तो भी हमें उसकी स्मृति को बनाये रखना है प्रतिक्षण, प्रतिपल ! हमारा मन जो चारों दिशाओं में बिखरा-बिखरा सा रहता है उसे एकत्र करना है, एक रूप देना है. यह संसार जैसा हमें दिखाई देता है वास्तव में वैसा है नहीं. पल-पल बदलते इस संसार को बस साक्षी भाव से देखते जाना है. प्रतिक्रिया ही दुःख का कारण है, देर-सबेर सत्य अपने-आप ही सम्मुख आ जाता है, सत्य की स्थापना नहीं करनी पड़ती वह तो स्वयंभू है. 

Wednesday, July 6, 2011

मन से परे


यदि कोई सुख और शांति चाहता है तो उसे आध्यात्मिकता को अपनाना ही होगा. अध्यात्म का अर्थ है अपने भीतर उतरना, भीतर का संयोजन, शोधन व आत्म विश्लेषण. ऊपरी मन बहुरुपिया है, कभी उत्थान की ओर जाता है कभी पतन की ओर ले जाता है. कभी संयमी हो जाता है कभी विलासी. मात्र इसके सहारे रहे तो हम कभी शाश्वत सुख नहीं पा सकते. इससे परे एक ऐसा मन भी हमारे पास है जो निर्विकार है. जहाँ उतर-चढ़ाव नहीं हैं, जो परम आनंद का स्रोत है. अभ्यास व वैराग्य के द्वारा वहाँ तक पहुंचना ही अध्यात्म है. 

Tuesday, July 5, 2011

अनंत की चाह


अगस्त २००० 
मन की आसक्ति को, चाह को, प्रेम को अगर दिशा मिल जाये, भावनाओं को विचारों को केन्द्र मिल जाये तो जीने की कला अपने आप ही आ जाती है, यदि चाह नश्वर की हो तो सुख भी नश्वर ही तो मिलेगा, मन में अनंत की चाह हो तभी अनंत की ओर कदम बढ़ेंगे. जहाँ योग नहीं वहाँ भोग होगा और रोग भी हो सकता है. जहाँ राम नहीं वहाँ कामनाएँ होंगी जो अशांति का कारण बनेंगी... जीवन का संघर्ष द्वंद्वात्मक है, किन्तु परमात्मा सदा एक सा है.

Monday, July 4, 2011

जड़ व चेतन


अगस्त २००० 
जब हम स्थूल का चिन्तन करते हैं तो बुद्धि भी जड़ हो जाती है, प्रमाद मन की जड़ता है, यह वह स्थिति है जब मन परम चेतन के प्रति उदासीन है. सूक्ष्म का चिन्तन करने से बुद्धि चेतन होती है. जगत का चिंतन स्थूल है और जगदीश का सूक्ष्म. जैसे जब पानी वाष्पीकृत होता है तो उसकी शक्ति बढ़ जाती है, जमने पर घट जाती है. हम सारा जीवन एक आयाम को देखते –देखते ही बिता देते हैं, दूसरे आयाम की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता. परिधि पर ही रह जाते हैं, अपने केन्द्र को छू नहीं पाते. तभी जीवन में एक अधूरेपन का अनुभव होता है, पूर्णता की चाह बनी रहती है. अपनी पूरी ऊर्जा व ऊष्मा को पाने का अर्थ है चेतन बने रहना. एक सरिता की तरह सातत्य रूप से गतिमान रहना. स्फूर्तिवान होकर मन में नैसर्गिक व सद्कार्यों के प्रति सदप्रवृत्ति जगे रहना. 

Friday, July 1, 2011

बुद्धि कैसी हो


मैं, मेरे का भाव उत्पन्न करने वाली, राग-द्वेष पैदा करने वाली, एक दायरे में सीमित करने वाली तथा अखंड तत्व के प्रति उदासीन करने वाली बुद्धि अनर्थकारिणी है. परमार्थ तत्व को मानने वाली, विवेक व वैराग्य उत्पन्न करने वाली, ईश्वरीय ऐश्वर्य का अनुसंधान करने वाली, प्रकृति के रहस्यों को समझने व सराहने वाली बुद्धि अर्थकारिणी है. ईश्वर का ऐश्वर्य चारों ओर बिखरा पड़ा है, ब्रह्मांड के असंख्य नक्षत्रों, ग्रहों, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी और उस पर स्थित बर्फीले पर्वत, नीला सागर, हरियाली, जंगल के रूप में और उसका वैभव फलों के मधुर रस, पंछियों की मधुर बोली, और जीवन के पोषक तत्वों के रूप में हमें प्राप्त है, इस अनंत ईश्वरीय प्रसाद की कद्र करने वाली बुद्धि अर्थकारिणी है. 

मन और आत्मा


जुलाई २००० 

जैसे तरंग सागर में है और सागर तरंग में है, वैसे ही हमारा मन आत्मा में और आत्मा मन में है. यदि यह स्मरण सदा बना रहे बल्कि अपना अनुभव हो जाये तो हम व्यर्थ की चेष्टाओं से बचे रहेंगे, अपने सामर्थ्य व शक्ति का सही उपयोग हम कर सकेंगे. अभी तो हमारा बहुत सा वक्त पानी को कूटने जैसी व्यर्थ क्रियाओं में चला जाता है. अपने मन की चाबी व्यक्ति, वस्तु तथा परिस्थिति को सौंप कर हमने स्वयं ही परतंत्रता मोल ले ली है, जबकि हमारा सत्य स्वरूप शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सद चित आनंद है.