Sunday, September 23, 2012

घर जाना है सबको इक दिन


अगस्त २००३ 
अपने मन की वृत्ति को भीतर की ओर ले जाना है, उस स्रोत से जोड़ना है जहां से उसका जन्म हुआ है. हमें घर वापस लौटना है. मनोवृत्ति जब तक बाहर भटकती है तो अशांत होगी और भीतर अपने मूल स्वरूप से मिलेगी तो सुख पायेगी. जब से मानव होश सम्भालता है एक दौड़ शुरू हो जाती है, लेकिन उसे यह होश नहीं रहता यह दौड़ किसलिए है, कहाँ खत्म होगी, क्यों हम तलाश रहे हैं, किसे तलाश रहे हैं वह यह रुक कर पूछता तक नहीं, बस भेड़चालमें चलता रहता है. घूमता रहता है, गिरता है, चोट खाता है फिर उठकर चल देता है, कहीं कोई अच्छा मंजर दिखाई पड़ता है तो उसमें खो जाता है, लगता है इसे ही पाना था, पर वह क्षणिक सुख समाप्त हो जाता है, पीड़ा की सौगातदे  जाता है, फिर एक नई दौड़, लेकिन हमारा मन जब भीतर लौटता है तो असीम शांति का अनुभव करता है, ऐसा आनंद जो क्षणिक नहीं है, सत् है, वही हम हैं हम प्रेम से उपजे हैं, प्रेम हमारा स्वभाव है, अपने शुद्ध रूप को पाकर वह थम जाता है. अब और भटकाव नहीं, ठहराव आता है जीवन में. यह भीतर जाने की प्रक्रिया सद्गुरु हमें सिखाते हैं. इसके लिए मन को शांत करना है, ध्यानस्थ होना है, तटस्थ भाव से भीतर देखना है. 


Friday, September 21, 2012

जीवन एक साधना है


‘कुछ कुछ’ से ‘कुछ नहीं’ किया फिर ‘सब कुछ’ बना दिया...साधना का यही करिश्मा है. संतों के जीवन को देखकर यही तो लगता है. धूल का एक कण ही एक दिन हिमालय बन सकता है, पानी का एक कतरा सागर बन सकता है. सतत साधना सीमित को असीमित कर सकती है. सत्य भरे हुए बादल की तरह है जो मन रूपी धरती की प्यास बुझाता है. वह शमा है, जो निरंतर जल रही है ताकि अंधकार से साधक निकल आए, अज्ञान का अंधकार जो हमारे दिलों को छोटा कर देता है, हमारे सच्चे स्वरूप को हमसे जुदा कर देता है. संत किसी भी पल आयी हुई मृत्यु का बाहें फैलाकर स्वागत भी कर सकता है, उनके हाथ इतने बड़े हो जाते हैं कि सारा ब्रह्मांड उनमें समा सकता है. 

सहज हुआ जो स्वयं को जाने


हमारा जीवन जो बाहर-बाहर है, क्षणभंगुर है, वहाँ सभी कुछ बदल रहा है, जो सीखा हुआ है, पर जो भीतर है, जो हम अपने साथ लेकर ही आये हैं, वह शाश्वत है. जब हम उस शाश्वत की ओर नजर डालते हैं तभी जीवन में फूल खिलते हैं. देह, मन, बुद्धि और इन्द्रियों से परे एक चेतन सत्ता..जो निर्दोष है, शुद्ध है पर हम उसे देखते ही नहीं, एक शिशु कोरा पैदा होता है, जगत उसे सिखाता है, लेकिन इस सीखे हुए ज्ञान के कारण उस ओर कभी उसकी नजर नहीं जाती, जो वह लेकर ही आया था, प्रेम, शांति और आनंद शिशु के पास होते ही हैं, पर वयस्क होते-होते वे कहीं खो जाते हैं, वे छिप जाते हैं. ‘ध्यान’ से वे उभर आते हैं, तब हमारी सारी चेष्टाएं निष्काम होती हैं, हम अलिप्त रहकर जीना सीख जाते हैं. हम अपने स्वभाव को प्राप्त हो जाते हैं.

Wednesday, September 19, 2012

वही वही है चारों और


अगस्त २००३ 
हमारे हृदय सिंधु में से ही कृष्ण का जन्म होना है, अभी तक तो उसमें से विष ही निकलता आया है, कुछेक रत्न भी निकले होंगे पर अमृत रूपी कृष्ण का निकलना अभी शेष है. हमारे मन के कारागार में देवकी रूपी बुद्धि अभी कैद है जब कृष्ण प्रकट होंगे तो कारागार के द्वार खुल जायेंगे और प्रकाश ही प्रकाश सब और फ़ैल जायेगा. वैसे तो कृष्ण वहाँ अब भी हैं, वह तो कहीं जाते ही नहीं, हमारी ऑंखें ही देख नहीं पातीं, वह जो सहज प्राप्त है, हवा, धूप, और बादलों की तरह, वह कृष्ण तभी मिलेगा जब मन को राधा बना लें. प्यास गहरी हो ललक भरी तो वह हाजिर है तत्क्षण, उसे अपना बना लें तो वह छोड़कर कहीं नहीं जाता, वह सदा के लिए वहीं वास करता है. वही तो मानव मन की सबसे बड़ी आवश्यकता है, उसी की चाह है जो नए-नए रूप धर के सम्मुख आती है.

रोम रोम जब उसे पुकारे


अगस्त २००३ 
साधक के जीवन में अनुशासन की अत्यधिक आवश्यकता है, समय की पाबंदी रहे, उसका सदुपयोग हो, उसके महत्व को जानते हुए हम कर्म करें. प्रातः उठकर यदि सभी के लिए मंगल कामना हो तो दिन भर उसकी सुगन्धि मिलती है. भाव और विचार ही वाणी व कर्म को जन्म देते हैं. वह पुण्यों की खेती करे ऐसे ही बीज बोये जिसके फल सुखकारी हों. हर अशुभ कर्म, वाणी अथवा सोच दुःख का वह  बीज होता है जो हम स्वयं ही बोते हैं और भविष्य में उसका फल हमें ही काटना होता है. आज हमारे जीवन में जो भी दुखद घटता है वह हमारे ही कर्मों का प्रतिफलन है. ऐसा मन जिसे सत्य की आकांक्षा हो उसमें कोई विकार आए भी क्यों, परम सत्य शुद्धता चाहता है, खोट, कपट, मिलावट, दम्भ, छल अथवा झूठ उसे नहीं भाते, वह हमारे मन को निर्मल देखता है तभी अपने कदम वहाँ रखता है. हमारे हृदय में उसके लिए पुकार, प्यास, चाह कितनी गहरी है, इसका पता उसे चल जाता है, जिस क्षण हम विकारग्रस्त होते हैं अथवा तो निर्मल होते हैं तत्क्षण हमें अनुभव होता है. उसकी कृपा तभी होती है जब हमारे रोम-रोम से उसकी चाह उठती है. तभी वह जिस भी परिस्थिति में रखे, उसे स्वीकारते हुए समता की भावना बनाये हुए और अंतर में उसके प्रेम को अनुभव करते हुए साधक इस जगत में व्यवहार करता है.

Tuesday, September 18, 2012

अति सूक्ष्म है उसकी वाणी


अगस्त २००३ 
यदि हमारे मन में कोई ऐसी बात किसी के लिए आती है जो उसके सम्मुख नहीं कह सकते तो समझना चाहिए कि मन में विकार जगा है, मन में जगा हर विकार हमें बताता है कि अभी हम प्रभु से कितनी दूर हैं, और जब हम गलती को दोहराते हैं तो वह जड़ पकड़ लेती है तब मन की संवेदनशीलता धीरे-धीरे कम होने लगती है और हम प्रभु की उपस्थिति को भी भूल जाते हैं. हमें तो हर क्षण उसकी अलख जगानी है, अपने हृदय को कोमल बनाना है, इतना कोमल कि सूक्ष्मतर विकार भी उसे आघात पहुँचाए और हम सजग हो जाएँ. अपने हृदय पर पड़ी ईश्वर की छुअन भी हम तभी अनुभव कर पाते हैं अन्यथा तो वह इतना निकट है कि उसकी आवाज हमें स्पष्ट सुनाई देनी चाहिए. उसकी उपस्थिति का भाव होता रहे तो मन कितना पवित्र महसूस करता है. मनसा, वाचा, कर्मणा हमें सजग रहना ही होगा, कहीं भी चूके तो सिवा पछतावे के कुछ भी हाथ आने वाला नहीं है. प्रभु के पवित्र नामों का उच्चारण करते समय जब मन आँसुओं से भीग जाये कि यह वही जिह्वा है जिससे न जाने कितने अपशब्द हमने बोले हैं और उसी का उपयोग हम ईश्वर के नामों का उच्चारण करने में करते हैं, तो स्मरण आए, मन तो और भी सूक्ष्म है. खाली मन ही उसका चिंतन कर सकता है.

Sunday, September 16, 2012

कहते हैं किसको मुक्ति


अगस्त २००३ 
आजादी का अर्थ क्या है, आजादी यानि हमारे मन की आजादी, कोई बंधन नहीं, पूर्ण मुक्त, जीवन मुक्त, न इच्छाओं का बंधन न कामनाओं का, न लोभ का, न मोह का न ईर्ष्या का न अहंकार का. हम हैं ही क्या इस विशाल ब्रह्मांड के सम्मुख और हममें या अन्य किसी में अंतर ही क्या है तो हम किसका अहंकार करें और किससे  ईर्ष्या करें. यह जगत हमें दे ही क्या सकता है जो हमारे पास पहले से ही नहीं है, तो हमें लोभ भी क्यों हो. कौन यहाँ पूर्ण है तो क्रोध किस पर करें. जब हम ही अपूर्ण हैं तो हमें क्या अधिकार है कि क्रोध करें. यही सारे विकार ही तो हैं जो हमें गुलाम बनाते हैं. सद्गुरु हमें आजाद करते हैं, सारे बंधनों से मुक्ति दिलाते हैं. हम बिन पंखों के मुक्त गगन में उड़ने लगते हैं. हम उस देश के वासी हैं जहां रोग नहीं, शोक नहीं, आनंद ही आनंद है. जहां करुणा है, प्रेम है, जहां अपनत्व है, जहां अद्वैत है, जो ब्रह्म का देश है, जो कृष्ण का वृन्दावन है, गोकुल है, जहां प्रेम की वंशी बजती है. जहां विकारों के असुरों का कृष्ण नाश कर देते हैं. जहां अंतर में मन की राधा का मन के कृष्ण से निरंतर मिलन होता है. ऐसी मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है जिसे एक बार पाने के बाद पुनः हमें गुलाम नहीं बनना है. मुक्ति का एक बार स्वाद जो ले ले फिर उसे सोने की जंजीरें भी बांध नहीं पाएंगी वह तो अमृत पान कर चुका है फिर क्यों पोखर के पास जायेगा. संत तभी हमें साधना, सेवा, सत्संग और स्वाध्याय के मार्ग पर चलने का परामर्श देते हैं, यही पथ मुक्ति का पथ है.

Friday, September 14, 2012

बने बांसुरी कान्हा की जो


अगस्त २००३ 


शंकर कहते हैं, भज गोविन्दं, भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढ़ मते...वे मानव को मूढ़ कहते हैं, कितना झकझोरता है उनका वचन, संत निर्भीक होता है, उसे समाज से कुछ तो चाहिए नहीं वह  सिर्फ देता है, और जो देना जनता है वह डांट भी सकता है. हम वास्तव में कितने धार्मिक हैं इसका इसका पता संत के सम्मुख जाने से ही चलता है. उनकी बातें एक आईना हैं जिसमें हमें अपना वास्तविक चेहरा दिखाई देता है. वह सत्यस्वरूप हैं और उनके सम्मुख जाते ही हमारा झूठ उजागर हो जाता है. हम जो प्रेम से अपने अंतर को भर लेते हैं उनके प्रति, ईश्वर के प्रति, क्यों कठोर हो जाते हैं जब जगत से व्यवहार करते हैं. ईश्वर को माता-पिता मानकर आराधनाएं तो करते हैं, पर वास्तविक माता-पिता की सेवा से क्यों घबराते हैं. आदर्शवादिता की बातें तो बहुत करते हैं पर जीवन में उन्हें उतारने से पीछे हट जाते हैं. सद्गुरु उस बांसुरी की तरह हैं जो स्वयं पीड़ा सहकर राग उत्पन्न करती है, वह कटती है, तपती है, विरह की पीड़ा सहती है, तभी कृष्ण के अधरों से लगती है. वैसे ही संत संत होने पूर्व विरह की आग में जलते हैं, तभी प्रभु का दीदार होता है, और उसके मुख बन जाते हैं, वह उसकी तरफ से बोलते हैं. हमारे जीवन में स्वार्थ नहीं रहता, झूठा गर्व नहीं रहता, हम भी प्रभु का साधन बन जाते हैं वह हमसे काम करवाने लगता है, और हमारे कुशल-क्षेम का भार अपने ऊपर ले लेता है.

Thursday, September 13, 2012

वही हमें पथ दिखलाता है


जिसने परम लक्ष्य तय कर लिया है, वह हर परिस्थिति में समभाव बनाये रखेगा, हर स्थिति को अपने लक्ष्य की ओर ले जाने वाला बनाएगा. लक्ष्य का स्मरण कर्त्तव्य से च्युत नहीं होने देता. इस जगत में हम अकेले ही आए हैं, और अकेले ही जाना है यह बीच का जो वक्त है, वही हमें मिलजुल कर बिताना है पर याद इतना ही रखना है की यह बीच का समय हमारी सारी ऊर्जा को ही न ले ले,  हमें अंतर में ध्यान के अमृत को पीना है. शरीर में होने वाली संवेदनायें किसी न किसी भावना की द्योतक हैं, यदि संवेदना को देखें और देखते-देखते वह खत्म हो जाये तो वह भावना भी नहीं रहती. ध्यान में तभी हमारी सभी नकारात्मक भावनाएं खत्म होने लगती हैं, और हम साफ-स्वच्छ बाहर निकल आते हैं. ध्यान एक तरह से स्नान ही हुआ न, भीतरी स्नान. फिर जब मन विधायक हो जाता है तब प्रज्ञा प्रकट होती है. अभी रास्ता लम्बा है पर रास्ता भी कितना मोहक है, अद्भुत है, परमात्मा का संग इसे और भी मोहक और आनन्दप्रद बना देता है.

Wednesday, September 12, 2012

झर जाता है फूल यहाँ ज्यों


अगस्त २००३ 
ईश्वर का एक नाम काल भी है, काल अर्थात मृत्यु जो सभी के लिए तय है, यदि हम मृत्यु का स्मरण सदा हृदय में बनाये रखें तो कभी अभिमान के शिकार नहीं हो सकते. संसार में वैसे ही यदि कोई रहे जैसे फूल रहता है, जब तक डाली पर है, जगत को देता है  फिर चुपचाप झर जाता है, हम भी जब तक यहाँ हैं, जगत को कुछ न कुछ दें फिर जब जाने का समय आए तो शांत भाव से चले जाएँ, क्योकि जाना भी तो वहीं है जहां से हम आए हैं. जीवन मौन से ही शुरू होता है और मौन में ही समाप्त होता है, मौन इसलिए अतिशय प्रिय है, सन्नाटे और शांति में सुकून मिलता है, जैसे कोई मौन में भी बात कर रहा हो. बाहर का शोर भीतर हलचल मचा देता है, जैसे भीतर का शोर बाहर की अशांति का कारण भी होता है. भीतर का मौन बाहर की व्यवस्था का कारण भी होता है. हमें शांति का अनुभव करना हो तो भीतर के मौन में उतरना ही होगा, वहीं से संगीत फूटता है और वहीं से शब्दों का जन्म होता है, बाहर जो विविधता प्रतीत होती है वह ऊपर-ऊपर ही है, गहरे में सब एक है, वह एक ही संतों का आराध्य है, वह एक परब्रह्म जो इस समस्त मायाजाल के पीछे है. वह अटूट मौन में ही है, वहाँ कोई चतुराई काम नहीं आती. 

सत्यं-शिवं-सुन्दरं


अगस्त २००३ 
सुख-दुःख से परे, मान-अपमान से ऊपर, इच्छा-अनिच्छा के द्वंद्व से मुक्त मन कितना सुंदर है. सत्यं-शिवं-सुन्दरं का जब जीवन में प्रवेश हो संभवतः तभी वास्तविक जीवन शुरू होता है. सत्य ही शिव है, और जो कल्याणकारी है, वही सुंदर है, यह जगत हमारे मन का प्रतिबिम्ब ही दिखाता है. जब मन शांत हो, सौम्यता को धारण कर चका हो, जगत में रची गयी सैकड़ों लीलाएं चाहे वे सुखद हो अथवा दुखद, अब एक सी प्रतीत होती हैं. घड़ी-घड़ी मन भीतर आ जाता है, उसी केन्द्र की ओर जो उसका मूल है, बाहर के कार्यों को करने के लए उसे सप्रयास बाहर लाना पड़ता है. इसे ही अमनी भाव कहते हैं. मौन से कैसी प्रीति हो जाती है. वाणी के मौन के साथ-साथ भीतर का मौन.. क्योंकि अब कोई चाह शेष नहीं रहती, जब इस जगत से विशेष कुछ मिलने वाला नहीं है जो पहले से ही हमारे पास नहीं है तो बाहर क्यों जाएँ. भीतर कोई मिल गया है जिसे जानकर ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ पाना शेष नहीं रह गया है. सब कुछ इतना सहज हो जाता है मानों जन्मो-जन्मों से इसी पथ के राही हों. तब जीवन एक खेल लगता है.

Monday, September 10, 2012

मन हो जैसे खुला गगन



मन की कामनाओं की पूर्ति के लिए हम परिस्थितियों के गुलाम बन जाते हैं, सब कुछ होते हुए भी अभाव का अनुभव करते हैं, किसी के पास भोजन हो, वस्त्र हों, और घर हो फिर उसे क्या चाहिए, लेकिन मन इच्छाएं खड़ी किये जाता है और उसमें जो बाधा डालता है उस पर क्रोध जगाता है, सूक्ष्म अहंकार भी उसमें सम्मिलित होता है. हमें खुद पर इतना तो वश होना ही चाहिए कि वस्तुओं को उसके सही उपयोग की दृष्टि से ही आंकें. जिसका मन कभी खाली होता ही नहीं तो तन रूपी घर में रहने वाली आत्मा को कहाँ स्थान मिलेगा, वह सिकुड़ कर रहने के लिए विवश हो जाती है. जैसे ही हम अपनी सूक्ष्मतम भावनाओं के प्रति सजग हो जाते हैं, अनावश्यक अपने आप झर जाता है. मन खाली होने लगता है. तब हम ईश्वर की उपस्थिति को महसूस करने लगते हैं.उसकी याद ही मन को व्यर्थ की कामना में उलझने से बचाती है. ज्ञान भी तभी भीतर टिकता है. अखंड शांति का भाव जगता है.

Sunday, September 9, 2012

कृष्ण से कोई दूर नहीं है


अगस्त २००३ 
कृष्ण की वाणी अमोघ है, अमूल्य है, वह हमें ज्ञान का उपहार देते हैं, जिसे पाकर हम कृतकृत्य हो जाते हैं, कितने सरल शब्दों में कितनी उच्च बात वह कह जाते हैं, उनका प्रेम अनंत है, वह प्रेमस्वरूप हैं, तभी वह संसार के हर प्राणी से प्रेम करते हैं, हित चाहते हैं सभी का और जो भी उनकी शरण में जाता है, उसके कुशल क्षेम की रक्षा का भार वह स्वयं ले लेते हैं. वह जानते हैं हमारे लिये क्या उचित है क्या नहीं, वह हमारी भौतिक और आध्यात्मिक दोनों मांगों को स्वीकारते हैं, वह हमें पूरा का पूरा अपनाते हैं और स्वयं को भी पूरा का पूरा दे डालते हैं, वह कुछ शेष नहीं रखते, वह दूरी नहीं चाहते. वह प्रेम के बदले मात्र प्रेम ही चाहते हैं. वह सफलता असफलता को संसार के नजरिये से नहीं देखते. वह हमारे मन को पढ़ना जानते हैं और उसी के अनुरूप ज्ञान देते हैं. कृष्ण से हमारी निकटता भावना के स्तर पर है और आत्मिक स्तर पर भी, बल्कि वह स्वयं ही हमारी आत्मा है, तभी वह इतना अपना लगता है. उसकी आँखें देखना चाहें तो मीरा की आँखें देखनी होंगी, वह और हमारा अपना आप एक ही है, इस एकता की अनुभूति में अनोखा आनंद है, शांति है और प्रेम है. यहाँ कोई भेद नहीं, यह सहना है उस अथाह प्रेम को जो भक्त के भीतर उमड़ता है तो कचोट कर रख देता है. 

Friday, September 7, 2012

दीप जले आस्था का भीतर


अगस्त २००३ 
हमारा जीवन निरंतर एक नदी की तरह अपने मूल से निकल कर अपने मूल में ही मिलना चाहता है, नदी का उद्गम व सागर दोनों जल के ही रूप हैं. उसी तरह हम जहां से आये हैं और जहां जाना है दोनों एक ही हैं, यह बीच का समय जो हम धरा पर बिताते हैं, तैयारी का समय है, तैयारी उससे मिलने की. जन्म के समय जैसी निर्दोषता शिशु में होती है वैसी ही निर्दोषता स्वयं में लानी है, शिशु जैसे खाली होता है सारे पूर्वाग्रहों से, वासनाओं से, हमें जगत से गुजर कर, अनुभवों के बाद स्वयं को वहाँ ले जाना है, संसार की वास्तिवकता को जानकर उससे परे हो जाना है. तृष्णा की आग जब जलाये तब जाग कर देखना है, अपनी ही वाणी जब शत्रुता निभाए तब सचेत होना है, भीतर संशय जब फन उठाये तो आस्था का दीप जलाना है. कोई व्यर्थ की चिंतना चले तो पूछना है, क्या अपनी उर्जा इस काम के लिए व्यय करना ठीक है, मन जब अहंकार को लगी ठेस के कारण व्यथित हो जाये तो हँसते हुए उसे देखना है, जैसे नासमझ बच्चे की हरकतें देखकर हम हँसते हैं. आज जो विचार है कल वही वाणी में उतरेगा और परसों वही कर्म में, विचार पर ही रुक जाएँ तो बहुत सारी ऊर्जा बच जाएगी. तभी निर्लिप्त होकर हम इस जगत में रह सकते हैं. तभी उस अवस्था का अनुभव अभी कर सकते हैं जो चिन्मय है, शाश्वत है, अजर है, नित्य है, शांत है, प्रेम है, आनंद है.

Thursday, September 6, 2012

एक देश ऐसा भी है


अगस्त २००३ 
‘’हम उस देश के वासी हैं, जहाँ शोक नहीं, जहाँ आह नहीं’’, जहाँ हम जमीन से ऊपर उठ जाते हैं. जहाँ हमारा मन, मन नहीं रहता, वह शुद्ध चेतना से संयुक्त हो जाता है. जहाँ कोई रूप नहीं, आकार नहीं, जिसका कोई नाम नहीं, जहाँ समय का बोध नहीं रहता, जहाँ स्थान का भी कोई बोध नहीं रहता. जब मन बिना किसी कारण के पूर्ण आनंदित रहता है, सभी के भीतर उस ब्रह्म के दर्शन होते हैं, सभी के साथ आत्मीय सम्बन्ध प्रतीत होता है,एक अद्भुत शांति का आभास होता है तब उसी लोक की झलक मन को मिली होती है. शास्त्रों की बातें तभी समझ में आती हैं, वरना शास्त्र अपना मूल अर्थ छिपाए ही रखते थे. उन्हें पढ़कर बुद्धि से जानना और है, जीवन में उतारना और है. हम ईश्वर की ओर एक कदम बढाते हैं तो वे हजार कदम हमारी ओर बढाते हैं. वह अनंत है सो उसका हर काम अनंत है.

Tuesday, September 4, 2012

एक ही माला के सब मोती


अगस्त २००३ 
जीवन के रंग विचित्र हैं. हम सभी एक विशाल अथवा कहें अनंत सृष्टि के भाग हैं, आपस में सभी जुड़े हैं, उस परमात्म तत्व के द्वारा. वह तत्व भीतर-बाहर हर जगह है, एक सूक्ष्म तन्तु के रूप में उसने सभी को बांध रखा है. कृष्ण ने गीता में कहा ही है कि यह सारा जगत मुझ धागे में मोतियों की भांति पिरोया हुआ है. यहाँ कोई भी एक से जुदा नहीं. एक ही आत्मा सभी के भीतर है, सभी को सुख-दुःख समान रूप से व्यापते हैं. पर जो इस संसार से परे हो जाता है, वह इस जगत को परमात्मा की नाईं द्रष्टा भाव से देखता है. जो कुछ भी इस जगत में जहाँ कहीं भी, जिस किसी के साथ भी हो चुका है, हो रहा है गहराई से सोचें तो खेल ही लगता है, नाटक की तरह हम अपने पात्र निभाएं तो खेल मजेदार है और यदि उसे सच्चा मानने लगें तो बुद्धि चकरा जायेगी, पर इसका पार न पा सकेंगे. यहाँ एक को खुश करो तो दूसरे को नाराज करना ही पड़ता है. सभी को साथ लेकर चलना हो तो अंतर में शुद्ध प्रेम होना चाहिये, ऐसा विशाल हृदय जो कोई भेद नहीं मानता, मानवेतर सृष्टि से भी उतना ही प्रेम रखता है. जो वस्तुओं का गुलाम नहीं, जो जीवनमुक्त है. 

Monday, September 3, 2012

भीतर गूंजें गान अनोखे


अगस्त २००३ 
हमारी साधना का एकमात्र उद्देश्य अंतःकरण की शुद्धि है, अंतःकरण चित्त, बुद्धि, मन, अहंकार सभी को धारण करता है. सोचने की शक्ति भी यहीं है, हमारी सोच ही साधना का मार्ग तय करती है. बाह्य साधन तो मात्र तैयारी के लिये हैं. मानसिक स्थिति ही हमारी सही स्थिति को दर्शाती है. जब चित्त शुद्ध होगा तभी उसमें परमात्मा का वास होगा, अंतःकरण की शुद्धि का सबसे बड़ा साधन है अपने दोषों को देखना. सदगुरु रूपी आईने में हमें अपने दुर्गुण स्पष्ट दिखने लगते हैं, परदोष देखने की प्रवृत्ति, अधीरता, तितिक्षा की कमी, वाणी का असंयम और भी कई दोष जिन्हें हमें एक-एक कर के निकालना है, तभी चित्त शुद्ध होगा. सदगुरु इसके लिये एक सरल उपाय बतलाते हैं, जब संसार का चिंतन बंद करके हम परमात्मा का चिंतन करेंगे तो मन में विकार नहीं जगेंगे. दोष तभी आते हैं जब हम सांसारिक सुख चाहते हैं, फिर ध्यान में पूर्व संचित संस्कारों का क्षरण होगा और तब मन ठहर जाता है. भीतर मौन जगता है, उस मौन में संगीत सुनाई देता है. वह संगीत इतना सूक्ष्म होता है कि गहन मौन में ही हम उसे ग्रहण करते हैं. हमारा एक मात्र लक्ष्य यदि सत्य को जानना है तो व्यर्थ के कार्यों में स्वयं को लगाना अनुचित होगा. हमारा प्रत्येक क्षण उसी आत्मभाव को प्राप्त करने में लगे जो अमृतत्व है, जो हममें अनंत ऊर्जा का संचार करता है, जो कल्याण मय है, जो हमें आगे बढ़ते रहने को प्रेरित करता है. वही हमारा साध्य है.

Sunday, September 2, 2012

मन की मनसा मिट गयी, भरम गया सब टूट


जुलाई २००३ 
“मन की मनसा मिट गयी, भरम गया सब टूट” जब कोई आग्रह नहीं बचता, मात्र उसी को पाने का आग्रह हो, तब एक ही क्षण में सदगुरु दृश्य रूपी मैल दूर कराने की क्षमता रखते हैं, पर हमें उसके लिये स्वयं को तैयार करना है. सकाम भाव से कर्म करने की प्रवृत्ति का नाश हो, मन तुलना न करे, अच्छे-बुरे की भावना से भी ऊपर उठे, सिर्फ कार्य को नहीं कारण को भी देखे, और दोनों से निर्लिप्त रहे. यह जगत एक स्वप्न की नाई ही है जो प्रति पल गुजर रहा है. फिर इस गुजरने वाले दृश्यों को द्रष्टा की नाईं देखने में ही जीवन जा रहा है, ज्ञान दृश्य और द्रष्टा दोनों को शांत करता है, फिर मात्र एक आत्म सत्ता ही शेष रहती है, जिसके कारण यह जगत दृश्य मान है, हमें इस स्वप्न में अभिनय करना है, सो सजग होकर करेंगे कि यह सब तो अभिनय ही है, वास्तव में हम न करते हैं न भोगते हैं, शरीर करता है और मन भोगता है, हम न मन हैं न शरीर, सो व्यर्थ ही अधिक करने और अधिक पाने की इच्छा अपने आप शांत हो जाती है, मन में समता की भावना दृढ़ हो जाती है, भटकन तत्क्षण समाप्त हो जाती है. आत्मा की झलक हमें मिलने लगती है जो भव्य है.