Sunday, November 30, 2014

नील गगन के पार चलें अब

जून २००७ 
जैसे ईश्वर सभी के हृदयों में निवास करता है वैसे ही प्रत्येक के अंतर में विश्वास भी होता है और संदेह भी. विश्वास बढ़ता रहे तो व्यक्ति भक्त हो जाता है, संदेह बढ़ता रहे तो जिज्ञासु हो जाता है. लेकिन जहाँ विश्वास न बढ़े तो अंधविश्वासी और संदेह न बढ़े तो अज्ञानी रह जाता है. भक्त और जिज्ञासु एक दिन स्वरूप में ही पहुंच जाते हैं. जब अपनी खबर मिलने लगती है तो परिवर्तन शुरू होने लगता है. भक्ति और ज्ञान दो पंख हैं जिनसे हम अनंत आकाश में उड़ सकते हैं. भक्ति जीवन का पंख है और ज्ञान मृत्यु का. मानव रूपी पक्षी को यदि नील गगन में उड़ान भरनी है तो जीवन के साथ मृत्यु का भी वरण करना होगा. दिन उजाला है तो मृत्यु रात्रि है, दिन के साथ रात न हो तो जीना कठिन हो जाये.

लहरों सा मन गिरता उठता

जून २०१४ 
‘मैं कुछ हूँ’ से ‘मैं हूँ’ तथा ‘मैं हूँ’ से ‘है’ तक की यात्रा ही अध्यात्म की यात्रा है. जब ‘है’ की अनुभूति होती है तो कोई भेद नहीं रहता. समाधि की अवस्था तभी मिलती है. मन जब अपने मूल स्वरूप में टिक जाये तत्क्षण समाधि घटती है. आत्मा शुद्ध चिन्मात्र सत्ता है, वह आकाशवत है. मन उसमें उठने वाला एक आभास ही तो है. मन को जब हम अलग सत्ता दे देते हैं तभी बंधते हैं. जहाँ द्वैत है वहाँ दुःख है. विचार भी उसी आत्मा की लहरें हैं जो आनन्दमयी है. भीतर उठने वाले सारे संशय, डर तथा भ्रम उसी आत्मा से ही तो उपजे हैं, वे दूसरे नहीं हैं, उनसे कैसा डर. विचार तो शून्य से उपजा है और शून्य में ही विलीन हो जाने वाला है. सागर क्या अपनी लहरों से डरेगा चाहे लहर कितनी भी बलशाली  क्यों न हो, आकाश क्या बादलों की गर्जन से डरेगा ?  आत्मा सागर की तरह गहरी और आकाश की तरह अनंत है, वह निर्मल है, वह जहाँ है वहाँ न कोई गुण है न दुर्गुण, वहाँ कुछ भी नहीं है, निर्दोष, अनछुई वह शुद्ध प्रकाश है. प्रकाश का कोई आकार नहीं, वह उससे भी सूक्ष्म है. 

Friday, November 28, 2014

जब टूटेगा सपना मन का


हम जीवन भर एक स्वप्न से दूसरे स्वप्न में ही तो प्रवेश करते रहे हैं ! हमारा जीवन अभ्यास और वैराग्य के बल पर ही इस चक्र से निकल सकता है. द्रष्टा में रहने का अभ्यास तथा संसार से वैराग्य, संसार जो पल-पल बदल रहा है, नाशवान है. हम जब संसार में ज्यादा उलझ जाते हैं तो स्वयं को भूल जाते हैं और भीतर की शांति और चैन से हाथ धो बैठते हैं. हमारे पास जो बहुमूल्य है वह है प्रेम, वही ईश्वर है, वही सत्य है, उसकी कीमत कुछ भी नहीं, वह तो बिन मोल मिलता है, बस दिशा बदलनी है, उसे खोजना नहीं है वह पहले से ही है केवल उसकी ओर देखना भर है. हम उतना सा भी कष्ट नहीं उठाना चाहते, हम सोचते हैं, जो मिला ही है उसकी क्या चिंता, थोडा संसार भर लें, पर यह भूल जाते हैं यह संसार आज तक किसी को नहीं मिला ! 


Thursday, November 27, 2014

चलो चलें अब निज देश में

मई २०१४ 
बोलते समय हमारी वाणी के साथ हमारे भीतर की तरंगे भी प्रभावित करती हैं, वाणी यदि मधुर होगी तो तरंगे प्रेम लेकर वाणी से पहले ही पहुंच जायेंगी और भीतर यदि कटुता है, खीझ है, क्रोध है, अहंकार है तो वाणी से पहले वही सब तरंगें लेकर जाएँगी, बात का असर नहीं होगा बल्कि हमारी बात अभी कही भी नहीं गयी उसके प्रति नकारात्मक भाव पहले ही जग उठा होगा. भीतर का वातावरण शांत हो, मधुर हो तभी तो तरंगे ऐसी होंगी और ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जब हम भीतर उस जगह रहना सीखें जहाँ कोई विक्षेप नहीं है, जहाँ एक सी सौम्यता है, जहाँ न अतीत का दुःख है न भविष्य का डर, जहाँ निरंतर वर्तमान की सुखद वायु बहती है. मन से परे आत्मा के उस आंगन में हम अपना निवास बनाएं जहाँ प्रेम, आनंद, शान्ति के कुछ है ही नहीं. हम जब जरूरत हो तभी चित्त, बुद्धि, मन तथा अहंकार के क्षेत्र में जाएँ अपना काम करके तत्क्षण अपने घर में लौट आयें तब मन में उठे विचार भी शुद्ध होंगे, बुद्धि भी पावन होगी तथा स्मृतियाँ भी सुखद बनेंगी और शुद्ध अहंकार होगा. वाणी तथा कर्मों की शुद्धता अपने आप आने लगेगी, ऐसे में हमारी वह शक्ति जो अभी व्यर्थ चिन्तन, वाचन में चली जाती है बचेगी, ध्यान में लगेगी तथा लोकसंग्रह भी स्वतः ही होने लगेगा.

ध्यान सधे से सध जाये सब

मई २००७ 
चिदाकाश ही शून्य है, वहाँ प्रकाश भी नहीं है, रंग भी नहीं, ध्वनि भी नहीं, बल्कि इसे देखने वाला शुद्ध चैतन्य है जो आकाश की तरह अनंत है और मुक्त है. जो कुछ भी हम देखते या अनुभव करते हैं सब क्षणिक है नष्ट होने वाला है पर वह चेतना सदा एक सी है, अविनाशी है. मृत्यु के बाद भी उसका अनुभव होता है बल्कि कहें वही अनुभव करता है. जब तक हम उसे मन से पृथक नहीं देख पाते, मन के द्वारा वही सुख-दुःख भोगता है. अधिक से अधिक उसी में हमें टिकना है. आनंद स्वरूप उस चेतना में जितना-जितना हम रहना सीख जायेंगे, मृत्यु के क्षण में उतना ही हम शांत रहेंगे. आगे की यात्रा ठीक होगी. ध्यान में हम उसी में टिकते हैं या टिकने का प्रयास करते हैं. वहाँ कुछ भी नहीं है, न विचार, न द्रष्टा न दृश्य, न कोई संवेदना, केवल शुद्ध बोध !   

Tuesday, November 25, 2014

मुक्ति बिना यहाँ चैन नहीं

मई २००७ 
संत कहते हैं, चंड-मुंड, मधु-कैटभ तथा शुंभ-निशुंभ, रक्त बीज सब हमारे भीतर हैं. हृदय और मस्तिष्क ही चंड-मुंड हैं, अति भावुकता भी नहीं और अति बौद्धिकता भी नहीं, दोनों का संतुलित मेल ही हमारे जीवन को सुंदर बनाता है. राग-द्वेष ही मधु-कैटभ हैं और उनसे मुक्ति तब तक नहीं मिल सकती जब तक हमारी चेतना प्रेम में विश्राम न पा ले. जन्मों-जन्मों के संस्कार जो रक्त-बीज रूप में हमारे भीतर पड़े हैं, उनसे भी तभी मुक्त हुआ जा सकता है जब चेतना मुक्त हो. अभी तो तन, मन व चेतना तीनों एक-दूसरे से चिपके हुए हैं, एक को हर्ष हो तो दूसरा उसे अपनी पीड़ा मान लेता है, एक को हर्ष हो तो दूसरा उसे अपना हर्ष मान लेता है और होता यह है कि एक न एक को तो सुख-दुःख का अनुभव होता ही है, तो हर वक्त बेचारी चेतना बस परेशान, दुखी या ख़ुशी में फूली हुई रहती है, उसे कभी मन के साथ अतीत में जाकर पछताना पड़ता है तो कभी भविष्य में जाकर आशंकित होना पड़ता है, वह कभी चैन से रह ही नहीं पाती, नींद में भी मन उसे स्वप्न की झूठी दुनिया में ले जाता है. 

Friday, November 21, 2014

प्रेम बिना सब सूना सूना

मई २००७ 
हमारे भीतर प्रेम का अनंत खजाना है, करुणा का अथाह सागर है और सत्य तो हमारी आत्मा का स्वरूप ही है. हम इन्ही तत्वों से तो बने हैं, ये हमें कहीं से लाने नहीं, हमें इन्हें लुटाना है क्योंकि ये कभी खत्म न होने वाला भंडार है. हम देखेंगे जितना-जितना हम इसे बांटते हैं उतना-उतना यह भीतर से और स्रावित होता है. यही सेवा है. हम यदि आध्यात्मिक जीवन जीना चाहते हैं तो इस मार्ग के अलावा और कोई मार्ग नहीं. ज्ञान मुक्त करता है पर बिना प्रेम के वह मुक्ति अहंकार में बदल सकती है. ईश्वर के प्रति प्रेम हमें आनंद से भर देता है पर उस आनंद को जब हम भोगने लगते हैं तो फिर अटक जाते हैं, सेवा ही सच्चा मार्ग है, जिस पर हमें चलना है. 

Thursday, November 20, 2014

दर उसका है मंजिल जिसकी

मई-२००७  
ईश्वर विभु है और आत्मा अणु, दोनों एक ही तत्व से बने हैं. जिसे जीने की इच्छा हुई वह आत्मा जीव कहलायी तथा जिसे जीने की इच्छा नहीं है वही तो परमात्मा है. ‘वह है’ बस इसी तक हमें पहुंचना है अर्थात ‘मैं हूँ’ से ‘यह है’ तक का सफर ही साधना है. आत्मा का अनुभव पहले अपने भीतर होता है फिर उसी को सभी के भीतर हम देखते हैं. कृष्ण कहते हैं जो सबमें मुझे और मुझमें सबको देखता है वही वास्तव में देखता है. अहंकार की छुट्टी हो जाती है और हम उसके चंगुल से बच जाते हैं. अभी तक तो हम अपने कर्मों के द्वारा भटकाए जाते रहे हैं पर ईश्वर के द्वार पर आकर यह भटकन समाप्त हो जाती है. 


Tuesday, November 18, 2014

स्वयं ही स्वयं को तार सकेगा

मई २००७ 
इस जगत में हम जो भी करेंगे वह अंततः अपने ही साथ करते हैं, यह जगत एक प्रतिध्वनि है. उदास होकर जगत को देखो तो जगत भी उदास होकर देखता है. हम सोचते हैं क्रोध हम दूसरों पर कर रहे हैं, तो प्रार्थना करके मन को शांत कर लेते हैं. बुद्ध कह रहे हैं, कृत्य हमारा है, देर-सबेर लौटेगा, वर्धन छोटा-बड़ा हो सकता है पर लौटेगा जरूर. स्वयं से उपजा कोई भी विकार स्वयं को वैसे ही नष्ट कर देता है जैसे लोहे पर लगा जंग लोहे को. किसी भी कारण से जब दुःख आये तो उसे एकांत में झेल लेना ही उचित है, तो ही हम उस दुःख से निखर कर वापस आयेंगे, अन्यों को दोषी मानकर प्रतिकार करने वाला एक चक्र में फंस जाता है. जो कांटे हमने जन्मों-जन्मों में बोये हैं उनसे बच नहीं सकते, जगत तो उसे लाने में निमित्त भर बनता है.


Monday, November 17, 2014

भावना हो शुद्ध अपनी

मई २००७ 
संत कहते हैं, मृत्यु से हमें भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, हम तो हर पल उसकी ओर कदम दर कदम चल ही रहे हैं. हर श्वास जो बाहर जाती है, वह छोटी मृत्यु ही है. एक नियम के अनुसार हमारी मृत्यु होनी ही है, जो अवश्यम्भावी है उससे डरना व्यर्थ है. हमारे भीतर गुप्तचित्र है, जिसके आधार पर हमारा अगला जन्म होता है. इस प्रकृति में सभी कुछ स्वभाव से हो रहा है, पर अहंकार यह मानता है कि वह कर्ता है, यही कर्म बाँधता है. जो कर्म हम वर्तमान में बांधते हैं वह भविष्य में फल रूप में सामने आते हैं. मन, वचन, काया की जो भी क्रिया हम करते हैं वह सभी पूर्व के कर्मों के फलस्वरूप ही मिले हैं. सजग रहकर हम कर्म करने में बदलाव ला सकते हैं, हम इस जीवन में क्षण-प्रतिक्षण जैसा भाव बनाते हैं वही बंधता है, यदि भाव शुद्ध हो तो कर्म नहीं बँधते और हम मुक्ति की तरफ ही बढ़ते जाते हैं.


Sunday, November 16, 2014

कहत कबीर सुनो भई साधो

अप्रैल २००७ 
सद्गुरू हमें वाणी के द्वारा ज्ञान देते हैं, सही-सोच बनाने में सहायता करते हैं. एक साधक को चेतना के विकास के लिए श्रवण करना चाहिए. शास्त्रों को सुनने से जीवन में सुखद परिवर्तन आता है. अच्छा सुनना साधना की पहली सीढ़ी है. नितांत एकांत में भी हम सुनते हैं, प्रकृति से भी हम सुनते हैं. भद्र सुनने से हम भद्रता को संग्रहित करते हैं, अपने को सही रखना सीखते हैं. निर्विषयता, निर्विकारता तभी आती है, भ्रम और भय से मुक्ति मिलती है, जब हम सही सुनते हैं. जीवन में रस तभी आता है, उत्साह आता है, हमारा चिन्तन सकारात्मक होता है, मोह नष्ट होता है और अपने स्वरूप की झलक मिलती है, बोध जगता है. वाणी भगवान का बीज है, जो समय आने पर भक्ति का वृक्ष बनता है. जिसमें प्रेम के सुंदर फल लगते हैं, उन फलों में सेवा की मिठास होती है. चेतना को संकीर्णता से ऊपर उठाकर परमात्मा के निकट ले जाना सीखते हैं जो उस पर कृपा का जल बरसाते हैं, ज्ञान की खाद देते हैं और हृदय सुंदर भावनाओं का उपवन बन जाता है, वहाँ जाकर मन को विश्राम मिलता है, बुद्धि भी वहाँ शांत होकर सजगता को प्राप्त होती है.


मैं हूँ मंजिल...मैं ही मुसाफिर

अप्रैल २००७ 
सद्गुरु कहते हैं, मैं हूँ मंजिल, मैं ही सफर भी... मैं ही मुसाफिर हूँ..अर्थात हमारा मन व बुद्धि भी उसी आत्मा से निकले हैं, यानि वही हैं, तो जिसे आत्मा तक पहुंचना है वह मन रूपी यात्री भी आत्मा ही है और जिस साधन से वहाँ पहुंचता है वह भी तो उसी एक से ही निकला है. तो सफर भी वही है और लक्ष्य तो वह है ही, कितना सरल व सहज है अध्यात्म का रास्ता न जाने कितना पेचीदा बना दिया है इसे लोगों ने. सीधी सच्ची बात है कि हमारा मन जब अपना स्वार्थ साधना चाहता है, अपनी ख़ुशी चाहता है तो यह आत्मा से दूसरा हो जाता है और जब अपनी नहीं बल्कि समष्टि की ख़ुशी चाहता है, यह जान जाता है कि जगत एक दर्पण है, यहाँ जो हम करते हैं वही प्रतिबिम्बित होकर हमारे पास आता है तो यह खुशियाँ देना प्रारम्भ करता है, जिससे लौटकर वही इसके हिस्से में आती हैं. अहंकार को पोषने से सिवाय दुःख के कुछ हाथ नहीं आता क्योंकि अहंकार हमें अन्यों से पृथक करता है जबकि हम सभी एक ही विशाल सृष्टि के अंग हैं, एक-दूसरे पर आश्रित हैं, स्वतंत्र सत्ता का भ्रम पालने के कारण ही सुख-दुखी होते हैं, हम ससीम मन नहीं असीम आत्मा हैं !


Saturday, November 15, 2014

प्रेम गली अति सांकरी

अप्रैल २००७ 
संत कहते हैं हम लाख चाहें, शब्दों से अपनी बात समझा नहीं सकते, जो काम मौन कर देता है वह शब्द नहीं कर पाते. हम अपने व्यवहार से, भीतर छिपी करुणा से किसी हद तक अपने विरोधी को भी प्रभावित कर सकते हैं. भीतर जो प्रतीक्षा है उसी में सारा रहस्य छिपा है. आतुरता, प्यास यही साधना की पहली शर्त है. ज्ञान को जितना भी पढ़ें, सुनें, गुनें, तृप्ति नहीं मिलती. वह परमात्मा कितना ही मिल जाये ऐसा लगे कि मिल तो गया है फिर भी मिलन की आस जगी रहती है. प्रेम में संयोग और वियोग साथ-साथ चलते हैं. इसलिए भक्त कभी हँसता है कभी रोता है, वह ईश्वर को अभिन्न महसूस करता है पर तृप्त नहीं होता, फिर उसे सामने बिठाकर पूछता है, पर दो के बीच की दूरी भी उसे सहन नहीं होती. वह स्वयं मिट जाता है केवल ईश्वर ही रह जाता है. ज्ञानी भी एक है, और कर्मयोगी के लिए यह सारा जगत उसी एक का स्वरूप है. एक का अनुभव ही अध्यात्म की पराकाष्ठा है.

Thursday, November 13, 2014

तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई

अप्रैल २००७ 
जिस तरह मिट्टी अग्नि में तपकर प्याला बन जाती है और उपयोग में आती है, वैसे ही हमारा यह माटी का तन जब ईश्वर की लगन रूपी लौ में तप जाता है तब यह उसके हाथों का उपकरण बन जाता है और काम में आता है. ईश्वर की लगन भी क्रमशः तीव्रतर होती जाती है, पहले राख में छिपी अंगारे की तरह जो ऊपर से दिखायी भी नहीं देती, हमारे भीतर छिपी रहती है, फिर तपते हुए लाल अंगारे की तरह जो प्रकाश भी देता है व ताप भी, फिर गैस की नीली लपट की तरह और फिर माइक्रोवेव ओवन की तरह जो नजर भी नहीं आती बस चुपचाप अपना काम करती रहती है. ज्ञान पा लिया है साधक को यह अहंकार भी छोड़ना होगा पर नहीं मिला है, सदा यह संदेह भी नहीं रखना है. मध्यम मार्ग पर चलना श्रेष्ठ है. आत्मा का परमात्मा से नित्य का संबंध है, हमें बनाना नहीं है, हम स्वयं आत्मा हैं यह बात जितनी भीतर दृढ़ हो जाएगी तो उतना ही हम परमात्मा से अभिन्नता अनुभव कर सकेंगे, और तब शेष ही क्या रहा ?


Wednesday, November 12, 2014

कोई नहीं वहाँ रहता अब

अप्रैल २००७ 
साधक का मन जब ख़ाली हो जाता है, कोई वस्तु नहीं मांगता, कुछ नहीं चाहता, जैसे यह है ही नहीं ! कुछ छूट भी  जाये तो भीतर एक कतरा भी न हिलता, कुछ हो तभी न हिलेगा, मन की गहराई में कुछ भी नहीं है वहाँ सब कुछ अचल है वहाँ कोई हलचल नहीं... वहां से केवल एक पुकार आती है कि कैसे इस जगत को कुछ दे दें, देने की बात ही अब प्रमुख है. प्रभु भी तो हर पल दे ही रहा है. अपना प्रेम, करुणा, और कृपा..सद्गुरु भी यही कर रहे हैं. साधक उनके जैसे बनने का प्रयत्न तो कर ही सकता है ! वह दे और बस ! एक क्षण भी वहाँ रुके नहीं, उस लेने वाले का आभार लेने के लिए बल्कि उसका आभारी हो कि वह वहाँ है ताकि उसके भीतर प्रेम जगे... न जाने कितने जन्मों से वह लेता आया है..अब और नहीं !


Sunday, November 9, 2014

शरण गये सो तृप्त भये

अप्रैल २००७ 
धर्म को यदि धारण नहीं किया तो व्यर्थ है, नहीं तो हमारी हालत भी दुर्योधन की तरह हो जाएगी, जो कहता है मैं धर्म जानता हूँ पर उसकी ओर प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म जानता हूँ पर उससे निवृत्ति नहीं होती. जितनी हम उठा सकें उतनी जिम्मेदारी हमें उठानी ही चाहिए. जैसे-जैसे हम किसी काम को करने का बीड़ा उठाते हैं वैसे-वैसे हममें और शक्ति भरती जाती है ! हम स्वयं ही अपनी शक्ति पर संदेह करते हैं और फिर आत्मग्लानि से भर जाते हैं. वास्तव में सारे गुण हमारे भीतर ही हैं, यह मानकर चलना है. अवगुण तो एक आवरण की तरह ऊपर-ऊपर ही हैं. यदि हम शरण में जाते हैं तो ईश्वर की पवित्रता हमारे सारे दोषों को दूर करने में सहायक होती है. वह पावन है और उसकी निकटता में हम भी पावन हो जाते हैं. जो शक्ति उससे मिलती है वह सृष्टि के हित में लगने लगती है, क्योंकि हम स्वयं तो तृप्त हो जाते हैं, जो एक बार सच्चे हृदय से शरण में गया वह तृप्त ही है !


Saturday, November 8, 2014

वर्तमान का पल ही अपना

अप्रैल २००७ 
कभी-कभी साधक को लगता है जैसे कुछ छूटा जा रहा है, लेकिन वह क्या है उस पर ऊँगली रखना कठिन है. भीतर एक बेचैनी सी होती है, मगर इतनी तीव्र भी नहीं, बस मीठी-मीठी आँच सी बेचैनी. उसे लगता है ईश्वर ने उसे इतना ज्ञान, इतना प्रेम और इतना समय दिया है उसका लाभ जग को नहीं मिल रहा है, वह तो हर पल सौ प्रतिशत लाभ में ही है. उसे ज्ञात हो गया है कि भुक्ति, मुक्ति और भक्ति ये तीन पदार्थ हैं, जिनमें से किसी को भी पाना है तो हमें वर्तमान में जीना शुरू कर देना चाहिए. जो भी घटित होता है वह वर्तमान में ही होता है. भूत हो चुका, भविष्य अभी हुआ नहीं. भूत में चिंता है, भविष्य में डर है, आनंद वर्तमान में ही है.

Tuesday, November 4, 2014

बन जाये मन अपना राधा

अप्रैल २००७ 
कृष्ण हमारी आत्मा है, मन की भीतर लौटती हुई धारा ही राधा है. जैसे-जैसे मन भीतर जाता है उसे आत्मा से प्रेम हो जाता है. उसे प्रेम रोग लग जाता है. “दिल हमको लुटा बैठा, हम दिल को लुटा बैठे, क्या रोग लगा बैठे...” जिसके रोम-रोम में प्रेम का रोग लगा है वह है भक्त. दोनों का मिलन ही विश्राम को प्रकट करता है. वास्तव में हमारा मन, बुद्धि समाधान चाहते हैं, जगत उसे समाधान दे नहीं सकता, परमात्मा ही दे सकता है, जो आत्मा रूप में हमारे भीतर है. संसार में उलझा हुआ मन अपने पद से नीचे गिर जाता है, शहजादे से भिखारी बन जाता है. वह जो आत्मा की तरंग है उसी की जाति का है उसी को भुलाकर विजातीय से प्रेम करने लगता है, पर खुद से मिलने की जब याद आती है तो भीतर मिलने की तड़प जगती है और मन भीतर लौटने लगता है.  

Monday, November 3, 2014

सहज मिले सो मीठा होए

अप्रैल २००७ 
अनात्मा से सुख लेने की चेष्टा यदि होती है, कुछ करने की इच्छा यदि अभी भी भीतर है, कुछ करके मान पाने इच्छा ! तो अभी पूर्ण शरणागति नहीं हुई है. आत्मा बलवती होती है जब हम उससे जुड़ते हैं. जब हम अकर्ता भाव में आ जाते हैं तो जो कुछ भी होता है वह सहज भाव से होता है. प्रत्यक्ष ज्ञान होने पर स्वयं को आत्मा रूप के अनुभव में सहजता ही सबसे बड़ा लक्ष्ण है. हम जितना सहज होकर जीते हैं सभी के साथ आत्मभाव में रहते हैं. जड़-चेतन दोनों के प्रति सहज प्रेम का अनुभव करते हैं. जो हम नहीं है वह कहना या मानना ही अहंकार है. यदि हम अभी भी स्वयं को शरीर, मन, बुद्धि मानते हैं, औरों के दोष हम तभी देख पाते हैं. दूसरों के दोष देखने से हम कर्म बांधते हैं. खुद के दोष प्रज्ञा दिखाती है, और इन्हें देखने से हम कर्मों से छूटते  जाते हैं !