Wednesday, June 29, 2011

मानवता



जुलाई  २००० 
मानव का सतत् प्रयास यही होता है कि वह उन्नति करे, आगे ही आगे बढ़े... अनंत की ओर उसका प्रस्थान उसी ऊंचाई की तलाश है, जहाँ वह पहुंचना चाहता है. अपने आस-पास के समाज को यदि हम गहराई से देखें तो भौतिक उन्नति के चिह्न स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं, पर मात्र भौतिक उन्नति ही काफ़ी नहीं, एक और क्षेत्र है आत्मिक उन्नति का. जहाँ आगे बढ़ने के लिये ईश्वरीय प्रेरणा सहायक होती है. कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर को मानव ने अपने आदर्शों का मूर्त रूप बनाकर स्थापित किया है. ऐसा कहते हुए वे मानवीय चेतना को परम तक पहुंचने में समर्थ मानते हैं, वह ऐसी स्थिति है जहाँ मानव और ईश्वर के बीच कोई भेद नहीं रह जाता. कोई वहाँ पहुँच चुका है यह बात अन्यों को प्रेरणा देती है. जैसे पानी का स्वभाव है ऊपर से नीचे की ओर बहना, मानवता का स्वभाव है नीचे से ऊपर की ओर बढ़ना.

Tuesday, June 28, 2011

सहज सुख


जुलाई २००० 
र्म जब जीवन में बढ़ता है तो इच्छाओं पर लगाम लगती है, वे मर्यादित होती हैं. कोई सीख दे तो फौरन प्रतिकार करने की इच्छा होती है, इसी तरह कोई गलती करे तो टोकने की इच्छा होती है, जो अनावश्यक है. चुप रह जाने की इच्छा बोलने की इच्छा से ज्यादा श्रेष्ठ है. अंतःकरण को शुद्ध व शांत रखने के लिये अनावश्यक इच्छाओं का पोषण नहीं करना चाहिए. मन जब शांत रहेगा तो सामर्थ्य बढ़ता है, हम सारे कार्य थोड़े से प्रयास से ही कर पाते हैं, कार्य बोझ नहीं लगता, थके बिना सहज ही हम अपने कर्तव्य को निभाते हैं. कर्त्तव्य पालन यदि समुचित हो तो अंतर्मन में एक अनिर्वचनीय अनुभूति होती है, सुख की अनुभूति... वह सुख इच्छा पूर्तिवाला क्षणिक सुख नहीं है, वह निर्झर की तरह अंतर्मन की धरती से अपनेआप फूटता है, सभी कुछ भिगोता जाता है... फिर न कोई अपना रह जाता है न पराया, न  द्वेष न  राग, जीवन एक सहज सी क्रिया बन जाता है, कहीं कोई संशय बाकी  नहीं रहता.

Monday, June 27, 2011

उच्च जीवन


मारे मन में ये तीन वृत्तियाँ मुख्य होती हैं, इच्छा, प्रेम और जिज्ञासा. यदि इनका स्द्पुयोग करें तो मन शांत होता है. इच्छा अर्थात अनगिनत कामनाओं की पूर्ति की अभिलाषा, यदि ये कामनाएं सत्वगुण से प्रेरित होंगी तभी द्वंद्व मिटेगा अन्यथा बना ही रहेगा. प्रेम यदि ईश्वरीय गुणों, जैसे सत्य, अहिंसा, शांति, आदि से होगा तभी आनंद फलित होगा और जिज्ञासा की प्रवृत्ति यदि जीवित रहेगी तो एक न एक दिन अंतिम सत्य की प्राप्ति की सम्भावना रहेगी. लेकिन यदि खोजने की इच्छा नहीं है, जानने की उत्सुकता नहीं है, और हम एहिक कार्यों में ही जीवन बिता देते हैं, छोटे-छोटे सुखों-दुखों से ऊपर उठने की हममें न तो सामर्थ्य है न ही आवश्कता, तो हमारा जीवन भी सामान्य ही रह जायेगा.

Saturday, June 25, 2011

यज्ञ


जैसे स्वप्न में हम एक से अनेक बन जाते हैं, ऐसे ही एक मूल से सारा जगत बना है. हम जहाँ से आये हैं जब उस मूल को भूल जाते हैं, अपने को एक अलग इकाई मान बैठते हैं, इससे स्वार्थ उत्पन्न होता है. स्वार्थ ही दुःख का कारण है. जीवन को एक यज्ञ मान कर यदि हम सामूहिक चेतना का विकास करें, अपनी समृद्धि का लाभ अपने आस-पास के लोगों को भी मिले ऐसा भाव रखें. समत्वभाव से सुख-दुःख का सामना करें, तो जीवन एक उत्सव बन सकता है.

Friday, June 24, 2011

जीवन



जून २००० 
सार्थक जीवन, सही मायनो में जीना अथवा वास्तविक जीवन क्या है, यह प्रश्न हर कोई कभी न कभी  खुद से पूछता है. जीने को तो हम सभी जिए चले जा रहे हैं. लेकिन अपनी सारी योग्यताओं, क्षमताओं को पहचाने बिना, हमें अपने सामर्थ्य का ज्ञान ही नहीं है. जीवन की गहराई में गए बिना एक अधूरा-अधूरा सा उथला-उथला सा जीवन जीते जाते हैं कि जीवन की शाम हो जाती है. कितने ही निराधार भय, अनेकों व्यर्थ दुश्चिंताएं, व्यर्थ की कल्पनाएँ करते रहते हम अपने आस-पास की सच्चाई को नहीं देखते. बस कल्पना के असत्य को ही सत्य मान कर उसके पीछे दौड़ते रहते हैं. सत्य ठोस और स्थूल नहीं होता सो हम उसे देख नहीं पाते. मन को व्यर्थ के झाड़-झंखाड़ से भरे उन्हीं कंटीली पगडन्डियों पर उलझते चलते रहते हैं. अपने को सीमा में बांध हम एक कैदी का सा जीवन व्यतीत करते हैं, जबकि हमारे भीतर उन्मुक्त गगन में उड़ने की क्षमता मौजूद है. बस जागरण की ओर कदम बढ़ाने भर की देर है.   

Thursday, June 23, 2011

ज्ञान



जून २००० 
मारे भीतर ज्ञान का अटूट खजाना भरा है. जिसकी चाबी खोजने का हम प्रयास ही नहीं करते, इस चाबी को हमने ही खोया है और इसे पाने की सामर्थ्य भी हममें मौजूद है. ज्ञान अनादि व अनंत है, विचार उदय होता है और अस्त होता है, पर ज्ञान शाश्वत है. ऐसे ज्ञान को पाना ही मानव जीवन का ध्येय होना चाहिए. ऐसा ज्ञान अंतर्मन में छिपे गुणों को उभारता है. सहजता, निर्मलता, अक्रोध, निरहंकारिता आदि सदगुण तथा अन्य सभी गुण जो हमें पवित्र बनाते हैं, स्वयं के साथ साथ तब हम जग को भी उनकी सुगंध से भर सकते हैं. हमारी सम्भावनाएं असीम हैं.

Wednesday, June 22, 2011

कर्म


जून २०००
 किसी कर्मयोगी ने ठीक ही कहा है, कर्म ही पूजा है. कर्म के द्वारा ही हम अपने तथा अपने आस-पास के वातावरण, परिस्थितियों तथा स्तर में सुधार ला सकते हैं. कर्मयुक्त जीवन उहापोहों से भी दूर रहता है. किन्तु कर्म सद्कर्म हो, ऐसा कर्म जो नैतिकता, धार्मिकता तथा आध्यात्मिकता के दायरे के अंतर्गत ही हो, जो स्वार्थ युक्त न हो. ऐसा कर्म अपने आप ही भक्ति बन जायेगा. ईश्वर पर विश्वास किये बिना मानव का काम चल ही नहीं सकता, उसी का बनाया हुआ यह मायाजाल है, सो शेष सब कुछ, यानि फल आदि उसी पर छोड़ कर चिंतामुक्त रहने में ही भलाई है.  

Tuesday, June 21, 2011

मुक्ति


मई २०००  

मुक्ति कौन नहीं चाहता ? मुक्ति पुरानी आदतों से, व्यर्थ के खोखले विश्वासों तथा पूर्वाग्रहों से ! मुक्ति की कल्पना ही मन को पंख लगा देती है. मुक्त हृदय कितना शांत हो सकता है, कितना पवित्र और कितना सामर्थ्यवान. उसमें सब कुछ करने की शक्ति आ जाती है, बंधन मुक्त को दुःख कहाँ? लेकिन सारी सीमाएं, दायरे, बंधन और गुलामी की जंजीरें क्या हमारी खुद की ईजाद की हुई नहीं हैं? आदर्श से आदर्श स्थिति में भी हम अपने हृदय को नीचे गिरा लेते हैं. दुःख की कल्पनाएँ,  भविष्य के प्रति आशंका, साथ ही द्वेष, कटुता और इन सबसे बचे भी रहे तो दूसरों को सुधारने का लोभ... यही सब मन को नीचे गिराता है. हम अन्यों से तो अपेक्षाएँ करते हैं पर स्वयं उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतरे या नहीं, इसका ध्यान नहीं रखते. इस सुंदर जगत की सुंदरता को नकार कर केवल कमियों पर नजर डालना कहाँ तक उचित है. संसार में रहते हुए भी यदि मन को मुक्त रखना तथा दुनियादारी निभाना आ जाये तो अंतर्मन से रस का स्रोत कभी सूखेगा नहीं.  



Monday, June 20, 2011

सहज सुख


मई  २००० 
जिस सुख को मानव सारी दुनिया में खोजता फिरता है, वह उसे अंतर्मुखी होकर अपने भावों, विचारों, और संवेदनाओं को समझ कर ही मिल सकता है. यदि हमारा सहज स्वभाव ही शांतिपूर्ण न हो तो कुछ नहीं हो सकता, जैसे फूल अपने आप खिलता है व खिलते ही सुगंध बिखेरने लगता है, खुशी अंतर से स्वयंमेव प्रकट होनी चाहिए, वह खुशी मन को तो प्रकाशित करेगी ही बाहर भी खुशबू फैला देगी. जैसे तुलसीदास ने कहा है, देहरी पर रखा दीप अन्दर-बाहर दोनों जगह उजाला फैलाता है. अदृश्य रूप से ईश्वर तो हमारे साथ सदा है, वह हमारे सरों पर अपना हाथ रखे ही हुए है. हमें बस इतना ही करना है कि उसके प्रकट होने में बाधा न खड़ी करें.  

Saturday, June 18, 2011

नैतिक मूल्य


मई२०००  

 ज सब ओर नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है, इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि नैतिक मूल्यों के प्रति आस्था ही खत्म हो रही है., यदि हमारी चेतना का स्तर स्वार्थ से ऊपर उठकर परार्थ की ओर हो तथा उससे भी आगे परमार्थ के स्तर पर तक हो जाए तो नैतिक मूल्यों की स्थापना अपने आप हो जायेगी. परमार्थ की चेतना का अर्थ है कि हम अपने सभी कर्मों को ईश्वर अर्पण कर दें, तब सारे कार्य ही पूजा हो जायेंगे और हम कर्म बंधन में भी नहीं बंधना पड़ेगा.    


Friday, June 17, 2011

बुद्धि


बुद्धि रूपी मछली जब आत्मा रूपी सागर को छोडकर मन और इन्द्रियों रूपी संकरी नहरों में आ जाती है तो उसका संबंध सागर से छूट जाता है और वह व्याकुल हो उठती है. जब वह पुनः आत्मा के सागर में पहुँच जाती है तो सुखी हो जाती है.... ईश्वर से हमारा संबंध वैसा ही है जैसा बूंद या लहर का सागर से. हमें उसने तीन शक्तियाँ दी हैं जानने की शक्ति, करने की शक्ति व मानने की शक्ति... जिनका सदुपयोग करके ही हम इस संसार सागर से पार हो सकते हैं. 

Wednesday, June 15, 2011

सजगता


मई २००० 

म ईश्वर को प्रार्थना में माता-पिता तो कह देते हैं पर न तो पिता की आज्ञा में रहते हैं न माँ के वात्सल्य के पीछे छिपे उसके भाव का आदर करते हैं, फिर यदि मनमानी करने वाले तथा माँ के  प्रेम को नकार कर जाने वाले पुत्र की तरह दुःख को प्राप्त हों तो इसमें आश्चर्य क्या ? कभी कभी लगता है कि ईश्वर पर विश्वास करना, उसके बताए मार्ग पर चलना, उसे सब कुछ सौंप कर खाली हो जाना कितना सहज है, लेकिन यह कार्य सचमुच तलवार की धार पर चलने जैसा कठिन है. क्योंकि जरा से  हम सचेत नहीं रहे तो संसार उस हृदय पर अपना अधिकार जमा लेता है जहाँ एकनिष्ठ प्रभु का अधिकार होना चाहिये था.

वर्तमान का सुख


मई २०००

जीवन की इस यात्रा में हमें थोड़ा सा सम्भल-सम्भल के चलना है, मंजिल तभी मिलेगी. व्यर्थ ही भूत की स्मृतियों तथा भविष्य की कल्पनाओं में भ्रमित रहकर कहीं वर्तमान को कटु न बना लें. ईश्वर प्रेम के रस का अनुभव यदि एक बार भी हो जाये तो जगत में दोष नजर ही नहीं आता ऐसा संत कहते हैं. अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते रहें तो मन स्वयंमेव ही प्रफ्फुलित रहता है. बेचैनी का जन्म तब होता है जब हम अपने मार्ग से हटते हैं, जैसे बीमारी का आगमन तभी होता है जब हम स्वास्थ्य के नियमों का पालन नहीं करते.



Tuesday, June 14, 2011

सुख-दुःख



मई २००० 
साधक के लिये यह जरूरी है कि वह अपने मन पर नजर रखे ऐसा न हो कि उसका मन ही उसके खिलाफ हो जाये. मन की एक विशेषता है कि वह एक साथ दो स्थितियों में नहीं रह सकता, जिस क्षण वह सुखी है दुखी नहीं है और जिस क्षण वह दुखी है सुखी नहीं है,  इस विशेषता का लाभ उठाते हुए यदि हम दुःख की स्थिति में एक क्षण के लिये भी ईश्वर की कृपा का आश्रय लेते हुए मुस्कुरा दें तो दुःख भाग जायेगा. मुस्कुराने को अपनी आदत बना लें तब तो कहना ही क्या. जहाँ ईश्वर प्रेम व ईश्वर स्मृति हो वह जीवन धीरे-धीरे निर्दोष होता चला जाता है.  

Monday, June 13, 2011

समता


मई २०००
जो टिकता नहीं वह जगत है और जो मिटता नहीं वह परम सत्य है. बस इतनी सी बात समझ में आ जाये तो ईश्वर के मार्ग पर चलना सहज हो जाता है. यह जगत हमें कई पाठ पढ़ाता है, ठोक-पीट कर इस काबिल बनाता है कि हम उस परम को जान सकें. जब कभी कृतज्ञता के भाव के कारण हृदय भर आता है, अथवा साधना के कारण सुख का अनुभव होता है तब भी यह स्मरण रखना होगा कि यह भी एक अवस्था है जो टिकने वाली नहीं है, सुखद अथवा दुखद दोनों ही अवस्थाओं से जो परे नहीं गया वह परम को नहीं पा सकता. अनुकूल या प्रतिकूल दोनों में जो सम रहना सीख गया वही उस पथ का यात्री है. हमारे भीतर अमृत भी है और विष भी, पर सत्य दोनों के पार है.  

Sunday, June 12, 2011

आध्यात्मिक यात्रा


मई २०००
नुक्ते की फेर में जुदा हुआ
नुक्ता ऊपर रखा तो खुदा हुआ
हम भी अपने मन रूपी नुक्ते को सही जगह नहीं लगाते और ईश्वर से विमुख हो जाते हैं. बिना इसके मस्तिष्क को ज्ञान की हजारों बातें भर लेने से भी कोई लाभ नहीं होता, वह मात्र बौद्धिक विलास बन  कर रह जाता है. यदि वास्तव में अनुभव न किया जाये तो धर्म भी नशे की तरह है. धीरे धीरे ही सही आध्यात्मिक यात्रा जारी रखनी होगी. इस संसार को स्वप्न की भांति देखने की समझ आने लगे, दूसरों के दृष्टिकोण को देखने की तथा हरेक में उसी अन्तर्यामी के प्रकाश को देखने की समझ आने लगे व अपनी त्रुटियों को स्वीकारने की हिम्मत भी, इससे मानसिक ऊर्जा का ह्रास नहीं होता तथा मन कमल पत्तों पर पड़ी ओस की बूंदों की नांई शांत रहता है.

Friday, June 10, 2011

साक्षीभाव


मई २००० 

सुख-दुःख आदि अवस्थायें जीवन में आती रहती हैं लेकिन इन्हें साक्षी भाव से देखने वाला आत्मा अलिप्त ही रहता है, ध्यान व योग करते समय इस साक्षीभाव का अभ्यास करने से वह सामान्य अवस्था में भी घटने लगता है. ईश्वर पर विश्वास करो तो सब कुछ कितना सरल हो जाता है. क्योंकि वही एकमात्र सत्य है और हर मानव का अंतिम उद्देश्य है सत्य की प्राप्ति, साथ ही यह जग हमारे स्नेह का पात्र बने, निस्वार्थ, निष्काम व शुद्ध स्नेह, ऐसा स्नेह जो मात्र स्नेह के लिये है.

Thursday, June 9, 2011

सत्संग


मई २०००
किसी भी संवेदनशील हृदय को प्रकृति अपनी सुंदरता से मोह लेती है, फिर इस सुंदरता को रचने वाले के प्रति आकर्षण जगता है. इस तरह अनजाने ही आध्यात्मिकता का एक नन्हा सा बीज अंतर में बो दिया जाता है, मौसम आते जाते रहते हैं, कभी प्रतिकूलता मिलती है कभी अनुकूलता और अंकुर को पौधा बनने में बरसों लग जाते हैं, मनीषियों, ऋषियों, संतों और अवतारों के जीवन उनके सदुपदेशों के रूप में इस पौधे को जल और भोजन मिलता है और धीरे धीरे यह बढ़ने लगता है. यात्रा आरम्भ तो हो जाती है लेकिन इसे दिशा मिलती है सत्संग से.

Wednesday, June 8, 2011

प्रेम


अप्रैल २०००
मानवीय सदगुणों में सर्वोत्तम है प्रेम, उसी के कारण सृष्टि में सुंदरता है, यही समस्त प्रश्नों का हल है यदि मानव-मानव के प्रति प्रेम का भाव रखे तो सारे वैमनस्य, सारी क्षुद्रता पल भर में मिट जाये. प्रेम लेकिन सच्चा होना चाहिए, ऐसा प्रेम, जो प्रतिदान नहीं मांगता. ऐसा प्रेम सबके जीवन में एक न एक बार उदित होता है, पर उसे कुचल दिया जाता है, ईर्ष्या, लोभ, मोह और क्रोध जैसे अवगुण प्रेम को ढक लेते हैं. वह बीती वस्तु बन जाता है, और कभी-कभी लगता है कि प्रेम कभी था ही नहीं, शायद वह हमारा भ्रम था, पर भ्रम नहीं सत्य था, ऐसा सत्य जो झूठ के नीचे दबा सिसक रहा होता है. यदि क्रोध सत्य हो सकता है तो प्रेम क्यों नहीं ? जरूरत है बस उस कोमल पौधे को सींचने की, जीवित रखने की, आस-पास के झाड़-झंखाड़ को साफ कर उसे सही पोषण देकर बड़ा करने की, वही पौधा एक दिन हमारे जीवन में फलीभूत होगा और खुशियों के फूल बिखेरेगा.

Tuesday, June 7, 2011

पूर्णता


अप्रैल २०००
यदि हमारे जीवन का केन्द्र ईश्वर हो तो किसी भी तरह का दुःख या बाधा उसे घेर नहीं सकती, जहाँ ईश्वर का निवास होता है वही घट वैकुंठ बन जाता है. यदि हम अपने चारों ओर ध्यान से देखें तो पता चलता है कि मूलतः सभी इंसान एक हैं, सभी के कुछ आदर्श हैं, कुछ इच्छाएं हैं, कुछ सपने हैं, और सभी उस पूर्णता की तलाश में हैं, जिसे पाकर कुछ पाना शेष नहीं रह जाता, जिसे जानने के बाद कुछ जानना शेष नहीं रह जाता. 

Monday, June 6, 2011

अध्यात्म


अप्रैल २०००
पने सुख के लिये किसी बाहरी वस्तु, व्यक्ति या स्थिति पर जो आश्रित नहीं है, वह स्वाधीन है. जिसे कर्म का बंधन नहीं है, अपने आप में जो पूर्ण है, वह स्वाधीन है. जिसकी आवश्यकताएं कम हैं, जो दीन नहीं है, ऐसा एक ही तो है, वह है परमेश्वर ! हमें उसी के आदर्शों पर चलना है. जीवन एक यात्रा है और ईश्वर उसकी मंजिल. रास्ता कहीं दिखाई नहीं देता, रास्ता भी हमें खुद ही बनाना है. नैतिक मूल्यों की स्थापना करके अपने जीवन में शुचिता और पवित्रता को अपनाकर, अपने आसपास फैले दुर्गुणों से स्वयं को बचाकर, सिर्फ स्वयं को ही नहीं, परिवार को, समाज को, फिर राष्ट्र को सबल बनाना है. यही हमारी धार्मिकता है, यही आध्यात्मिकता है. अध्यात्म मात्र मुक्ति की कामना नहीं है, स्वयं को सबल, शुद्ध व आदर्श बनाते-बनाते कहीं स्वार्थी न हो जाएँ इसका भी ध्यान रखना होगा. लेकिन पहली सीढ़ी तो यही है, हृदय जब शुद्ध होगा, विचार उच्च होंगे, प्रेम की भावना उदात्त होगी मन संकुचित नहीं होगा, सभी प्राणियों में एक उसी की सत्ता का अनुभव होगा, सबको अपनी नजरों से देखेंगे तो सारा जहाँ अपना हो जायेगा, जो ईश्वर का स्थूल रूप है. मन में उहापोह नहीं रहेगी, भावनाएँ एक ओर केंद्रित होंगी तो ध्यान भी सधेगा और तब ईश्वर के सूक्ष्म रूप यानि आत्मा का साक्षात्कार भी होगा.

Saturday, June 4, 2011

चरैवेति-चरैवेति


अप्रैल २०००
लना तो खुद ही पड़ेगा, कोई हमारे दिये की बाती ऊँची कर देगा पर रस्ता तो खुद ही तय करना होगा. अपने मन को विकारों से ग्रस्त स्वयं हमने किया है तो उसे मुक्त करने कोई और क्यों आयेगा,  वह हमारी थोड़ी सहायता जरूर कर देगा बस इतना ही. इन्द्रियातीत अवस्था का अनुभव करने के लिये अपने को धीरे-धीरे साधना तो खुद ही पड़ेगा.
अंधकार से प्रकाश की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, कटुता से माधुर्य की ओर जो ले जाये ऐसा ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है. शरीर का पोषण भोजन से, मन का पोषण शिक्षा से, पर आत्मा का पोषण मात्र ईश्वर के प्रेम से ही संभव है.

Friday, June 3, 2011

ईश्वर


  अप्रैल २०००
श्वर हर  क्षण हमारे साथ है, हमारे आस-पास है. हम अपने-आप में इतने खोये रहते हैं कि कुछ देखना नहीं चाहते, कुछ महसूस करना नहीं चाहते. हमारे चारों ओर प्रकृति का अतुलित खजाना बिखरा पड़ा है. यह ब्रह्मांड, अनगिनत सितारे, सभी तो उसकी याद दिलाते हैं.. हमारे इतने कार्य कैसे अपने-आप पूर्ण हो जाते हैं... शरीर के अंदर चलने वाला रक्त प्रवाह व नाडी स्पंदन क्या उसकी झलक नहीं दिखाता... लेकिन हम अपने को सर्वसमर्थ मानकर उस सत्ता को भूल जाते हैं. जिसके कारण से हम हैं, जो हमारे भीतर विवेक है, सद् है, आनंद है. हमारे जीवन में जहाँ कहीं भी विशुद्ध स्नेह, विशुद्ध आनंद है, वहीं ईश्वर है.

Thursday, June 2, 2011

अहंकार


अप्रैल २०००
र्त्ताभाव जब क्षीण हो जाये तो ही ब्रह्मभाव जगेगा, बीज जब मिटेगा तब ही तो वृक्ष बनेगा. जब तक कर्त्ता मौजूद रहेगा अहंकार बना ही रहेगा, और हम उस ईश्वर से दूर ही रहेंगे. अपनी आवश्यकताएँ कम से कम रखने से, अन्यों पर कम से कम आश्रित रहने से अहंकार का विस्तार नहीं होता. लोभ, क्रोध जैसे अवगुणों पर ध्यान देने से भी अहंकार कम होता है, लेकिन हम जो भी साधना करेंगे वह भी तो कहीं अहंकार को बढावा देने वाली ही नहीं सिद्ध हो रही. ईश्वर जो अपना आप बनकर बैठा है, सब देखता है और मुस्काता है कि उसका नाम लेने वाले भी किस तरह संसार के चक्रव्यूह में फंसे हैं. 

Wednesday, June 1, 2011

बंधन और मुक



अप्रैल२०००

संत कहते हैं, मन को विकारों का ही तो बंधन है, हम जो मुक्ति की बात करते हैं, वह मुक्ति विकारों से ही तो चाहिए. यदि धर्म धारण किया है तो विकार धीरे-धीरे ही सही पर निकलने शुरू हो जाते हैं. यदि नहीं होते अथवा बढ़ते हैं तो ऐसा धर्म किस काम का ? केवल पाठ करने या धार्मिक चर्चा करने मात्र से हम धार्मिक नहीं हो जाते. राग-द्वेष सब विकारों की जड़ हैं। वीतरागी तथा वीतद्वेषी होने के लिये मन पर संस्कारों की गहरी लकीर नहीं पड़नी चाहिए. हृदय से मैत्री व करुणा की धारा बहने लगे तो शीघ्र ही मन निर्द्वन्द्व हो जाता है. ऐसा तब होता है जब मन ध्यानस्थ होने लगता है। मन की गहराई में मैत्री व करुणा का साम्राज्य है, पर मन उसके प्रवाह में रोड़े अटकाता है, जब मन ना रहे तभी अमन अर्थात शांति का अनुभव होता है।