Saturday, February 25, 2023

ध्यान को जिसने साध लिया है

 संत व शास्त्र कहते हैं कि व्यायाम व भोजन की तरह दैनिक जीवन में ध्यान के जुड़ने से हमारे भीतर चैतन्य की एक ऐसी अवस्था का भान होता है जिसे  ब्रह्मांडीय चेतना कहा जाता है। इस अवस्था में साधक  सम्पूर्ण ब्रह्मांड को स्वयं के भाग के रूप में मानता है। जब हम जगत को अपने अंश के रूप में देखते हैं, तो जगत और हमारे मध्य कोई भेद नहीं रह जाता, हवा, सूरज, जल, आदि पंच तत्व हमें अपने अंश की रूप में सहायक प्रतीत होते हैं। अंतर का प्रेम जगत के प्रति दृढ़ता से बहता हुआ प्रतीत होता है। यह प्रेम हमें विरोधी ताकतों और हमारे जीवन की परेशानियों को सहन करने की शक्ति प्रदान करता है। क्रोध, चिंता और निराशा क्षणिक व विलीन हो जाने वाली क्षणभंगुर भावनाएँ बन जाती हैं और हीन अपने भीतर मुक्ति की पहली झलक मिलती है। 

Tuesday, February 21, 2023

जीना यहाँ मरना यहाँ

उपनिषद कहते हैं सृष्टि पूर्ण है, पूर्ण ब्रह्म से उपजी है और उसके उपजने के बाद भी ब्रह्म पूर्ण ही शेष रहता है, सृष्टि ब्रह्म के लिए ही है. इस बात को यदि हम जीवन में देखें तो समझ सकते हैं मन पूर्ण है, पूर्ण आत्मा से उपजा है अर्थात विचार जहाँ  से आते हैं वह स्रोत सदा पूर्ण ही रहता है, मन आत्मा के लिए है. विचार ही कर्म में परिणित होते हैं और कर्म का फल ही आत्मा के सुख-दुःख का कारण है. यदि आत्मा स्वयं में ही पूर्ण है तो उसे कर्मों से क्या लेना-देना, वह उसके लिए क्रीड़ा मात्र है. हम इस सत्य को जानते नहीं इसीलिए मात्र 'होने' से सन्तुष्ट न होकर दिन-रात कुछ न कुछ करने की फ़िक्र में रहते हैं. जहाँ  हमें जाना है वहाँ  हम पहुँचे  ही हुए हैं. जैसे मछली सागर में है, पंछी हवा में है आत्मा परमात्मा में है. मछली को पता नहीं वह सागर में है, पंछी को ज्ञात नहीं वह पवन के बिना नहीं हो सकता, वैसे ही आत्मा को पता नहीं वह शांति के सागर में है. मीन और पंछी को इसे जानने की न जरूरत है न ही साधन हैं उनके पास पर मानव क्योंकि स्वयं को परमात्मा से दूर मान लेता है और उसके पास ज्ञान के साधन हैं, वह इस सत्य को जान सकता है. यही आध्यात्मिकता है, यही धार्मिकता है, यही साधना का लक्ष्य है.   प्रतिपल जीवन यह याद  दिलाता है, अनन्त ऊर्जा का एक स्रोत चारों और विद्यमान है. कितने ही लोग सूर्य ऊर्जा का इस्तेमाल कर रहे हैं और कितने ही पवन ऊर्जा का. युगों से ये स्रोत मानव के पास थे पर उसे वह उपाय नहीं ज्ञात था जिसके द्वारा मानव इनका लाभ ले सकता था. इसी तरह  ज्ञान, प्रेम, शांति, सुख की अनन्त ऊर्जा भी परमात्मा के रूप में हर स्थान पर विद्यमान है पर कोई जानकार  ही उसका अनुभव कर पाता है. 


Wednesday, February 15, 2023

शिव-पार्वती पुरातन प्रेमी

प्रेम एक वरदान की तरह जीवन में घटता है। वह अनमोल हीरे की तरह है, पर वक्त के साथ हर हीरे की चमक फीकी पड़ जाती है। दुनियादारी की धूल उस पर जमती जाती है। युवा धीरे-धीरे उस प्रेम को भुला ही बैठते हैं और कर्त्तव्य, ज़िम्मेदारी, जीविकोपार्जन, स्वार्थ, ज़रूरतें, संदेह और न जाने कौन से परत दर परत उस हीरे पर जमने लगती है। वे भूल ही जाते हैं कि प्रेम का दीपक कभी भीतर जगमगाता था, जब उनके दिल सदा रोशन रहते थे और वे ऊर्जा से भरे रहते थे। मीलों दूर रहकर भी वे एक-दूसरे की उपस्थिति को महसूस करते थे। जैसे भक्त भगवान को नहीं भूलता चाहे वे वैकुंठ में हों या कैलाश में ! प्रेम की वह आग धीरे-धीरे राख में बदल जाती है, पर कोई न कोई चिंगारी भीतर तब भी सुलगती है। अंतत: वह भी आग ही है, ज़रा सी हवा देने की देर है। हीरा, हीरा ही है, ज़रा चमकाने की देर है। हर पर्व इसी को याद दिलाने आता है। शिव-पार्वती का प्रेम अमर है। पार्वती बार-बार शिव के  लिए जन्म लेती है। वैसे ही प्रेम बार-बार खोकर फिर सजीव होता है। कोई अपनों से कितना भी रुष्ट हो जाए, पुनः-पुनः प्रेम भीतर जागता है। वह अमर है। शिवरात्रि इसी प्रेम को भीतर जगाने की याद दिलाने आती है।प्रेम हमारा अस्तित्व है, इसलिए वह कभी मृत नहीं होता। यदि वह विलीन होता हुआ सा लगे तो कोई पहले दर्पण में अपनी आँखों में झांके फिर अपने प्रियजन की आँखों में, केवल एक वही नज़र आएगा,  क्योंकि उसके सिवा कुछ है ही नहीं। सद्गुरू उसी प्रेम को सारे विश्व में बाँटने के लिए सारा आयोजन कर रहे हैं; क्योंकि प्रेम ही जग को चलाता है। 


Wednesday, February 8, 2023

जिसने उसको देखा भीतर

संतजन कहते हैं, परमात्मा का मिलना कठिन नहीं है, जो वस्तु हमारे निकट है उसको देखने के लिए कहीं जाना नहीं है, बल्कि उसके प्रति सजग होने की आवश्यकता है. हम अनुष्ठान, जप, तप आदि के द्वारा उसे पाना चाहते हैं, जो हमें मिला ही हुआ है।इनके द्वारा  सद्गुरु हमें अहंकार तजने की कला सिखाते हैं, शरणागत होना सिखाते हैं और भीतर ही वह प्रकट हो जाता है जो सदा से ही वहाँ था. वह आत्मा के प्रदेश में हमारा प्रवेश करा देते हैं. आत्मा के रूप में परमात्मा सदा मन को सम्भाले रहता है, उसे रोकता है, टोकता है और परमात्मा के आनंद को पाने योग्य बनाता है, उसको पाने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रहता. वह सुह्रद है, हितैषी है, वह नितांत गोपनीय है उसे गूंगे का गुड़ इसीलिए कहा गया है. वह आनंद जो साधक को मिलता है सभी को मिले ऐसे प्रेरणा भी तब भीतर वही जगाता है.भक्ति का आरम्भ वहाँ है जहाँ हमें ईश्वर में जगत दिखता है और चरम वह है जहाँ जगत में ईश्वर दिखता है. पहले पहल ईश्वर के दर्शन हमें अपने भीतर होते हैं, फिर सबके भीतर उसी के दर्शन होते हैं. ईश्वर कण-कण में है पर प्रेम से उसका प्राकट्य होता है. सद्गुरु हमें वह दृष्टि प्रदान करते हैं जिससे हम परम सत्ता में विश्वास करने लगते हैं. ईश्वर का हम पर कितना उपकार है यह तो कोई सद्गुरु ही जानता है और बखान करता है. शब्दों की फिर भी कमी पड़ जाये ऐसा वह परमात्मा आनंद का सागर है. 


Thursday, February 2, 2023

कौन देश के वासी हैं हम

धर्म के मूल में तीन बाते हैं, हम कहाँ से आये हैं, हम कहाँ हैं और कहाँ जाने वाले हैं? इनकी खोज ही हमें धर्म की ओर ले जाती है. संतों की वाणी सुनकर हमारे भीतर अपनी वास्तविक स्थिति का बोध जगता है. जिस क्षण कोई अपने सामने पहली दफा खड़ा हो जाता है, आमने-सामने..उसी क्षण वह सत्य को जान जाता है. उस क्षण उसके भीतर संसार से ऊपर उठने, जगने और व्यर्थ कामनाओं से मुक्त होने की चाह जगती है. वास्तव में हम उसी एक तत्व से आये हैं, उसी में हैं और उसी में लौट जाने वाले हैं. लेकिन लौटने से पूर्व हमें देखना है कि भीतर सुई की नोक के बराबर भी द्वंद्व  न बचे, उसका मार्ग बहुत संकरा है, उसमें से एक गुजर सकता है। दुई मिटते ही सारा अस्तित्व हमारी सहायता को आ जाता है, आया ही हुआ है. बाहर से संत, शास्त्र व भीतर से दैवीय प्रेरणा मिलने लगती है और हम उसकी ओर बढ़ते चले जाते हैं. जहां वह है वहाँ सभी ऐश्वर्य हैं। वह हितैषी है, अकारण दयालु है, वह ही तो है जिसने यह खेल रचा है. अंतत: वह स्वयं ही तो इस सीमित जगत के रूप में दिखायी दे रहा है। जबकि वास्तव में वह अलिप्त है और अनंत है।