Monday, April 30, 2012

आशुतोष जय शिव शम्भु


फरवरी २००३ 

भस्म-भूषित शिव सिखाते
एक दिन तुम राख होगे,
मुंड माला है गले में
कह रही तुम खाक होगे !

विष गले में थाम रखना
वाक् में माधुर्य झलके,
गंग धारा शीश धारे
 शीतलता उर से ढलके !

स्वर्ग सा निर्मित हृदय 
श्वेत हिम कैलाश जैसा,
चन्द्र मस्तक पर सुशोभे
भाव मधु औषधि जैसा ! 
शिव के मस्तक पर जो चन्द्रमा है वह कहता है कि भीतर ज्ञान होने पर भी जहाँ कहीं से ज्ञान मिले, उसे ससम्मान मस्तक पर धारण करना चाहिए. सर्पों को आपने आभूषण की तरह धारण करने वाले शिव कहते हैं कि विषम परिस्थितियों को भी गले का हार बना लो. गले में मुंडमाला सदा अंत काल का स्मरण बनाये रखने के लिये है. कैलाश पर वास बताता है कि मन की स्थिति ऊँची बनी रहे. औघड़ दानी है शिव हमें भी लुटाने की प्रेरणा देते हैं, वैसे भी एक दिन सब छूट ही जाने वाला है.  


Sunday, April 29, 2012

संत वचन पर करें विचार


फरवरी २००३ 
सत्संग में हृदय में कितने पवित्र भाव उठते हैं. हमारे जीवन में तेज हो, भगवद् तेज और आध्यात्मिक तेज. जो तभी आता है जब अंतर में क्षमा हो, धैर्य हो और पवित्रता हो. पवित्रता विचारों में, वाणी में, कर्म में. भोजन सात्विक हो, शुद्ध हो, सुपाच्य हो. स्नेह से बनाया गया हो. परोसते समय हृदय में निर्दोष प्रसन्नता हो. बनाते समय हृदय शांत हो. आँख देखने योग्य ही देखे और कान भी सद्विचारों को ग्रहण करें. इस जगत में जब राम व कृष्ण की निंदा करने वाले मौजूद हैं तो हमारी निंदा हो इसमें आश्चर्य क्या, उसे व्यर्थ की बात जानकर छोड़ देना ही ठीक होगा. संयम, नियम और दृढ़ इच्छा शक्ति हमारे मन को मांजती है, वह चमक उठता है और तब उसमें परम झलकता है. जिस सत्संग में ऐसे सुंदर विचार मिलें उसकी जितनी कद्र की जाये कम है. सदगुरु हृदय को अंधकार से प्रकाश में ले आते हैं. आत्मा का सूरज तो सबके हृदय में है पर बादलों से ढका है, संत वाणी की शीतल लहर इन  बादलों को उड़ा ले जाती है सब कुछ कितना स्पष्ट हो जाता है, अंतर में एक ऐसा आनंद का, कृतज्ञता का, प्रेम का भाव उठता है कि उसके सम्मुख कुछ भी नहीं ठहरता.

Thursday, April 26, 2012

भक्ति का आलोक


फरवरी २००३ 
कृष्ण टेढ़े हैं, एक बार वह यदि हृदय में आ जाएँ तो निकलते नहीं ! वह हमारी आत्मा हैं और विवेक भी, प्रेम और ज्ञान का अद्भुत समन्वय ! भक्त जब एक बार अपना मन उन्हें सौंप देता है तो फिर वह मन कहीं और कैसे लग सकता है. सूरदास ने ठीक कहा है जहाज के पंछी की तरह तरह इधर-उधर घूम कर वहीं लौट आता है. उसकी कथाएँ भी अनुपम हैं. कितनी बार सुनो फिर नयी  लगती हैं. इन्हें सुनकर ही भक्त का मन उनकी ओर आकर्षित होता है. फिर साधना के बाद जब गहन शांति का अनुभव होता है तो विरह अश्रु बहते हैं, वह कृपा करते हैं और कभी-कभी उनकी झलक भी दिखने लगती है. फिर तो मन विवश हुआ सा उन्हें स्मरण करता है. अधरों पर नाम अपने आप आने लगता है. उसका मन जैसे संसार से कोई मोह नहीं रखना चाहता, कोई अपेक्षा नहीं, और जब अपेक्षा नहीं तो दुःख कैसा? एक तृप्ति या संतोष का भाव लिये उसका मन सदा एक रहस्यमय आनंद में डूबा रहता है, शायद इसी को भक्ति कहते हैं.



आत्मा का फूल


वही इस जगत का आधार है. वही सारे स्पन्दनों का आधार है. पहले शब्द हुआ फिर उसके अनुरूप आकृति. हमारे भीतर भी वही आदि सत्ता विद्यमान है. यह जगत हमें इसीलिए तो प्रिय लगता है, क्योंकि यह सब कुछ उसी का है. एक उसी को चाहो तो प्रकृति भी साथ देने लगती है. जगत जो  हर पल अपना शासन मन पर करना चाहता है, वह भी प्रिय लगने लगता है. समय का प्रतिबंध, जीवन में अनुशासन, और एक कर्म बद्धता अपने आप आने लगती है. वह हमारे ह्रदय की हर बात जानते हैं, गुणातीत, सबके मध्य होते हुए भी अलिप्त,, सुख-दुःख से परे, उद्वेग रहित, आकाश की भांति... उनसा होने के लिये ही उनको चाहना, धर्म के मार्ग पर दृढ़ रहना है. यदि परम के प्रति प्यास जगी है तो उस पौधे को सींचते रहना चाहिए. अन्यथा वह पौधा सूख जायेगा. सभी को पूर्णता की तलाश है. तन और मन के स्तर पर हम कभी पूर्ण नहीं हो सकते, आत्मिक स्तर पर ही हम पूर्णता का अनुभव कर सकते हैं. इसकी झलक मिलते ही अपना आप जैसे सारे ब्रह्मांड को व्याप्त कर लेता है. दुनिया एक खेल लगती है...एक नाटक. ध्यान से देखें तो जीवन का अर्थ क्या है ? क्या यह फूलों के खिलने और और फिर मुरझा कर झर जाने जैसा नहीं है. पर मुरझाने से पूर्व वे अपनी सारी खुशबू को लुटाते हैं जो उनके भीतर है. आत्मा में भी प्रेम की खुशबू  है, हमारे तन व मन भी प्रेम की मांग करते हैं, आत्मा के लिये वे भी ‘पर’ हैं, उसका सबसे पहला प्रेम तो उन्हें ही मिलता है. इसके बाद वह अपने आप बिखरने लगता है.


Tuesday, April 24, 2012

तमसो मा ज्योतिर्गमयः


फरवरी २००३ 
हम प्रकाश के उपासक  हैं. प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है. ज्ञान की उपासना करें तो हृदय में कैसी शांति का अनुभव होता है जो अधरों को सदा खिला रखती है. अंतर में प्रसन्नता का अनुभव तभी हो सकता है जब कोई उद्वेग न हो, मान की चाह न हो, संक्षेप में कहें तो जब मन माया पर विजय प्राप्त कर ले. माया अर्थात जो है नहीं पर दिखता है. जो कुछ भी हमें चारों ओर दिख रहा है प्रतिपल बदल रहा है, नहीं की ओर जा रहा है. जिसका प्रभाव क्षणिक है उसका असर मन पर लेना मूर्खता ही है. उसे सत्य मान कर उसमें स्वयं को लिप्त कर लेना ही अज्ञान है, जितनी शीघ्र इस अज्ञान से मुक्ति मिलेगी उतना शीघ्र हमारे भीतर ज्ञान का सूर्य चमकेगा. यह जो कभी-कभी मन में विक्षिप्तता घर कर लेती है, किसी की कही बात, किसी का किया व्यवहार हृदय को, एक क्षण के लिये ही सही, बींधता है तो इसका अर्थ यही है कि अभी भीतर अँधेरा है. यह जगत जैसा हम चाहते हैं वैसा ही रूप धर लेता है. मन में कोई चाह न हो, तृप्ति हो तभी ज्ञान टिकता है. जहाँ चाह जगी उद्वेग होगा, जबकि वह क्षणिक ही होती है कुछ समय बाद उसका कोई महत्व नहीं रह जाता, उसके बिना भी हम बड़े मजे से रह सकते थे, मात्र अपने अहं को पोषने के लिये हम चाहते हैं कि हर चाह पूरी हो. तब निष्कर्ष यही निकला कि अहं ही दोषी है. मिथ्या अहंकार ही हमें अपने को बहुत कुछ मानने की सलाह देता है, हम यदि कुछ हैं तो उस परम सत्ता के अंश मात्र हैं, उसने हमें एक पात्र बनाया है, अपने पात्र को सही ढंग से निबाहें, बस यहीं तक हमारा बस है, उसके आगे वही जाने...वह हमें असीम स्नेह करता है !   

स्व को जिसने जान लिया है


फरवरी २००३ 
मृत्यु कितनी सृजनात्मक है. जन्म होने की प्रक्रिया सदा एक सी है पर इंसान कितने विभिन्न तरीकों से मरते हैं. हर व्यक्ति की मृत्यु किसी न किसी खास रोग या कारण से होती है. अनगिनत रोग हैं और प्राकृतिक आपदाएं हैं. युद्ध, हिंसा, आतंक के शिकार भी होते हैं कुछ लोग और कुछ अपनी मृत्यु का चुनाव स्वयं करते हैं. जो जन्मा है वह मरेगा ही, यह ध्रुव सत्य है पर जो मरा है वह पुनः जन्मेगा ही, यह सत्य नहीं है. वह मुक्त भी हो सकता है, प्रेत भी हो सकता है . पर हर जीवित की मृत्यु तय है, फिर हमें किस बात का गर्व रहता है, इस माटी में मिल जाने वाली देह का या इस मन का जो कभी संतुष्ट होना जानता ही नहीं, जो सदा कमियों पर नजर रखता है अपनी नहीं दूसरों की...अभिमान यदि सच्चे अर्थों में हो सकता है तो ‘स्व’ का जो प्रेम, शांति, आनंद, सुख, ज्ञान, शक्ति व पवित्रता का पुंज है. मानव मात्र इस ‘स्व’ का अधिकारी है.  


Sunday, April 22, 2012

घट घट में घटती रामायण


फरवरी २००३ 
प्रतिपल हमारे भीतर रामायण चल रही है. राम, हमारी आत्मा का जन्म तब होता है, अर्थात हम स्वयं का अनुभव तब करते हैं जब दशरथ यानि दस इन्द्रियों का मिलन कुशलता (कौशल्या) से होता है. जीवन में मैत्री (सुमित्रा), और श्रद्धा(कैकेयी) होती हैं. श्रद्धा जब अटूट न रहे तो स्वयं से अलगाव हो जाता है. बुद्धि रूपी सीता का हरण तब अहंकार रूपी रावण कर लेता है.  श्वास-प्राणायाम (हनुमान) की सहायता से हम पुनः बुद्धि का आत्मा से मिलन कराते हैं.
इसी तरह महाभारत का युद्ध भी लड़ा जा रहा है. एक ओर लोभ आदि दुर्गुणों का प्रतीक दुर्योधन है  तो दूसरी ओर सात्विकता का प्रतीक अर्जुन, आत्मा रूपी कृष्ण उसके सारथि हैं. सदगुणों को जब  वनवास मिलता है, दुःख उठाना ही पड़ता है पर अंत में विजय सत्य की होती है. हमें प्रतिक्षण प्रेय तथा श्रेय में से चुनाव करना होता है. यह चयन ही हमारे भविष्य की नींव रखता है.

Friday, April 20, 2012

सार सार को गहि रहे


साहित्य में हंस को नीर-क्षीर विवेक ग्राही माना गया है. ऐसा व्यक्ति जो संसार से सत् को तो ग्रहण करे असत् को त्यागता जाये, हंस कहा जाता है, जैसे रामकृष्ण, परमहंस कहलाते हैं. हमने भी अपने जीवन में सार्थक क्षणों को अपनाना है, सार्थक कार्य करने है, सार्थक शब्दों का उच्चारण करना है. इस छोटे से जीवन में इतना समय किसके पास है कि सभी कुछ ग्रहण करता चले, मन को जितना- जितना खाली रखें उतना अच्छा है. अपने लक्ष्य की ओर पहुँचाने वाले साधनों को अपनाना ही अच्छा होगा. यदि किसी का लक्ष्य परम आनंद या शांति को पाना हो तो सेवा, सत्संग व साधना इसके साधन हैं, वाणी का संयम, प्रमाद का त्याग, स्वस्थ तन व मन इसके उपकरण हैं, संत कहते हैं, सेवा से कर्म शुद्धि होती है, ध्यान से मन शुद्धि व योग साधना से तन शुद्धि. मनसा, वाचा, कर्मणा कुछ भी ऐसा न हो जो शास्त्र विरुद्ध हो, जो हिंसा में आता हो, जिससे किसी को पीड़ा हो. ईश्वर के प्रति अटूट निष्ठा रखते हुए, अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए शेष समय का उपयोग अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये लगाना होगा. जब तक ज्ञान में स्थिति नहीं होगी, द्वंद्वों से मुक्ति नहीं मिलेगी. 

Thursday, April 19, 2012

इच्छा तेरे रूप अनेक


 फरवरी २००३ 
अक्सर आवश्यकता एवं इच्छा में हमें भेद नहीं मालूम पड़ता, जो वस्तु हमारी आवश्यकता की पूर्ति करे वह कभी दुःख का कारण नहीं बन सकती. इच्छा हमें मानसिक उद्वेग देती है, एक दौड़ में हम शामिल हो जाते हैं. इच्छा उठते ही मन में संकल्प-विकल्प उठते हैं, उसे पूरी करने की धुन हमें बेचैन कर देती है. निर्दोष लगने वाली इच्छा भी मन को अटकाती है, पथ पर चलना संभव नहीं हो पाता. पानी सा मन बहता रहे यही साधना की पहली शर्त है. जैसे आकाश पर बादल आते हैं और चले जाते हैं. मन, बुद्धि आदि आत्मा के चिदाकाश पर आने-जाने वाले बादलों के समान अनित्य हैं, ज्ञान का सूर्य जब निकलता है तो आकाश की स्वच्छ नीलिमा झलकती है.

Wednesday, April 18, 2012

सबमें वही समाया है


साधना के आरम्भ में एक भक्त अथवा साधक के लिये उसका इष्ट ही एकमात्र आराध्य होता है, उसी में उसे सभी देवी-देवताओं के दर्शन होते हैं. जैसे वृक्ष की जड़ों को सींचने से उसके हर अंग तक जल पहुँच जाता  है वैसे ही एक की पूजा करने से सबकी पूजा हो जाती है. आगे जाकर वह सबमें उस एक को देखने लगता है. वह जान जाता है कि कहीं भी बंधना नहीं है, मुक्ति के पथ पर चलना शुरू किया है तो  जंजीर सोने की भी हो तो उसे कटवा देना चाहिए. सतोगुण तक जाकर उससे भी पार जाना होता है. अस्तित्त्व हमारी हर छोटी बड़ी इच्छा को पूर्ण करना चाहता है, पर हम उसका प्रतिदान नहीं दे पाते हैं. प्रेम हमें संसार की हर जड़-चेतन वस्तु के प्रति सजग बनाता है. परम को प्रेम करें तो वही प्रेम उसकी सृष्टि की ओर प्रवाहित होने लगता है.  

Tuesday, April 17, 2012

प्रेम जगाए भाव अनोखे


मिथ्या अहंकार के कारण हम स्वयं को एक लघु इकाई मान बैठते हैं, पर जब हृदय प्रेम से परिचित होता है तो अहंकार गल जाता है. सभी अपने लगते हैं. सभी के भीतर वही एक चैतन्य दीख पड़ता है. हम स्वयं को विशाल अनुभव करते हैं. यह भाव अनोखा है. कोई सुंदर दृश्य देखकर एक क्षण के लिये श्वास भी थम जाती है, कभी किसी के आँसू देखकर जो सूक्ष्म भाव मन में उठते हैं, उस कान्हा की कोई कथा याद आने पर कभी मुस्कान तो कभी आँखों से जल बहता है, ये सभी प्रेम के ही रूप हैं. यह संसार उसकी लीला है, यह सोचकर जो कौतूहल होता है, इस विशाल ब्रह्मांड को अरबों, नक्षत्रों, और नाना जीवों को धरा पर चलते-फिरते देखकर कितना अचरज होता है, फिर हमारा स्वयं का मन..एक क्षण में कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है. आत्मा की सुंदरता, जो ध्यान में दीख पड़ती है. हमारे भीतर का संगीतमय सुंदर संसार...यह सब कितना विचित्र है. और कितने भाग्यशाली हैं हम कि यह सब देख पा रहे हैं.  

Sunday, April 15, 2012

आनंद हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है


फरवरी २००३
आत्मा का ज्ञान हमारे भीतर के कुसंस्कारों को उसी तरह जला कर समाप्त कर देता है जैसे कोई चिंगारी सूखी घास को. न जाने कब से हम कुछ खोज रहे हैं, अब हृदय में ज्ञान की प्यास जगी है, ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति फलित हुई है. ज्ञान के दीपक के प्रकाश में बैठने का अवसर मिला है. मन को भी तो विश्राम चाहिए, मन की दौड़ जहाँ खत्म होती है वहीं से आध्यात्मिक लोक की शुरुआत होती है. जो हमारा वास्तविक घर है क्योंकि हम न देह हैं न मन, ये तो हमें प्रकृति द्वारा प्राप्त उपकरण हैं. हमारा वास्तविक रूप बुद्धि व अहंकार से परे एक आनंदमय सत्ता है, जो उस चिन्मय परमात्मा का अंश है. परमात्मा इस सृष्टि का कारण है, हमारा हितैषी है, सुह्रद है. जब तक हम देहात्म भाव से मुक्त नहीं हो पाते तो इस आनंद से वंचित रहते हैं जो हमारा अधिकार है. आत्मस्वरूप में टिकते ही अंतर में प्रेम का अनवरत प्रवाह होता है, तृप्ति का अनुभव होता है,विचारों के प्रति सजगता बढ़ती है सरलता और सहजता हमारा स्वभाव बन जाता है.

Thursday, April 12, 2012

रहना असली घर में है


फरवरी २००३ 
संसार एक क्रीडास्थल है, जहाँ खेलते समय हमें ध्यान रखना है कि कोई ऐसा स्थान भी है जहाँ हम विश्राम लेते हैं, पुष्टि व तुष्टि पाते हैं. वह हमारा असली घर है. उस खेल में सफलता है मन की प्रसन्नता, तृप्ति और संतोष. भीतर की कंपकपी, दर्द, पीड़ा तब चले जाते हैं जब हमारे मन में छिपा प्रेम का स्रोत हमें मिल जाता है. जीवन में जो भक्ति घटित होती है वही वास्तविक शक्ति है. भजन गाते समय जब अंग-अंग भजन मय हो जाये तब भीतर आरती घटित होती है. हमारी आत्मा का चरित्र प्रकट होने लगता है. जीवन में सत्य का सँग साथ हो, स्वध्याय हो, सेवा हो और साधना हो तो ही खेल पूर्ण होता है. हमारे सम्पर्क में आने वाले भी हमारे लिये प्रसन्नता का स्रोत बन जाते हैं क्योंकि उनके साथ हमें अपना प्रेम व आनंद बाँटने का अवसर मिलता है.  

Wednesday, April 11, 2012

प्रेम गली अति सांकरी


फरवरी २००३ 
प्रेम हमें मानव से महामानव बना सकने की सामर्थ्य रखता है, प्रेम जो देना जानता है मात्र लेना नहीं. ईश्वर से अनन्य प्रेम हो तो हृदय में कृपणता नहीं रहती, रोग, शोक, मोह तो ऐसे छूट जाते हैं जैसे वस्त्रों को झाड़ देने पर धूल छूट जाती है. प्रेम पूर्वक यदि उसे बुलाएँ तो वह प्रकट भी होता है और नित्य नवीन रस का अनुभव कराता है. उस प्रेम के आगे संसार की अमूल्य से अमूल्य वस्तु भी कमतर है. उसका स्मरण ऐसी ऊँचाइयों पर ले जाता है जहाँ कुछ शेष नहीं रह जाता. जहाँ केवल वही रह जाता है. अपना आपा तो रहता ही नहीं, जो मिथ्या है, उसे तो नष्ट होना ही है, जो है उसी की सत्ता रह जाती है. उसी के नाते तो हमें इस सृष्टि से प्रेम है. उसे हमारा प्रेम भरा दिल ही चाहिए और कुछ नहीं, उस पल में उसके और हमारे मध्य और कुछ नहीं रहता. न संसार, न कोई इच्छा...बस दो ही सम्मुख होते हैं. वह प्रिय है, सम्पूर्ण है, अनंत है कि उसमें सब समाया है, फिर उसके बिना यहाँ कुछ और है ही नहीं, वह एक क्षण के लिये भी हमसे दूर नहीं है.   

Tuesday, April 10, 2012

संशय के पार


जनवरी २००३ 
स्वयं पर संशय, समाज पर संशय और परमात्मा पर संशय, ये तीनों हमें प्रयत्नपूर्वक छोड़ने हैं. इनमें से एक भी हमारे प्रगति में बाधक है. इसके लिये मन की वृत्ति बिखरी हुई न हो एक ओर टिकी हो. ध्यान सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम होता जाय, तभी शक्ति व सामर्थ्य उभरता है और अंततः सारे संशयों का नाश होता है. ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप है, भौतिक जगत में उसका सत् स्वरूप प्रकट होता है, जीवों में उसका चैतन्य स्वरूप प्रकट होता है और भक्तों में उसका आनंद स्वरूप प्रकट होता है. दुःख का निमित्त बाहर है, दुःख मिलने पर मन में दुखाकार वृत्ति होती है उस वृत्ति से यदि हम एकाकार हों तभी दुःख गहरा होता है, यदि साक्षीभाव से देखना आ जाये तो हम उसके  भागी नहीं  होंगे. साधना के पथ पर जब एक बार कदम रख दें तो मन में उठने वाले प्रश्नों का जवाब किसी न किसी माध्यम से मिल ही जाता है. उस परम सत्ता पर पूर्ण विश्वास हो तो वह हमारी हर पल खबर लेता रहता है.

Monday, April 9, 2012

सब तुझमें हैं तू ही सबमें


जनवरी २००३ 
सदगुरु हमें बार-बार चेताते हैं, हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है, उसे हमें कैसे पाना है. वह इतने सरल शब्दों में अपने अंतर के सम्पूर्ण प्रेम को उड़ेंलते हुए, हमारा हित चाहते हुए कहते हैं कि हमें जीवन को कैसे जीना चाहिए ताकि मन का परिष्कार हो, बुद्धि का विकास हो, आत्मा का प्राकट्य हो. उस परम लक्ष्य की स्तुति हम कैसे करें, उसे कैसे सराहें और सत्य के अधिकारी कैसे बनें. यह सभी वह हमें पुनः पुनः समझाते हैं. उनके भीतर ज्ञान का एक असीम खजाना है, हम यदि उसका एकांश भी अपना लें तो जीवन पथ पर शीघ्र आगे बढ़ सकते हैं. सर्वव्यापी परमेश्वर में सभी को और सब में उसे देखना है. वही एक है जो अनेक होकर विस्तृत हो गया है. तो सभी समान हुए, कोई छोटा बड़ा नहीं. हमें सभी का सम्मान करना है, वह अखिल ब्रह्मांड स्वामी जैसे सब कुछ करते हुए भी अकर्ता है, हम भी साक्षी भाव से मन व इन्द्रियों को अपने अपने गुणों में वर्तते हुए देखें, उनमें लिप्त न हों. व्यर्थ के कामों से बचे, व्यर्थ के प्रलाप से बचें औए व्यर्थ के चिंतन से भी बचें. जिससे हमारी ऊर्जा ध्यान तथा स्वयं को जानने में लग सके. अपने भीतर उतरने के लिये बहुत ऊर्जा की आवश्यकता है. यदि हम स्वयं को इच्छाओं के जाल से मुक्त कर लें तो वह हमारा सुह्रद हमारी जरूरतों को जैसे अब तक पूरा करता आया है भविष्य में भी करेगा. 

Saturday, April 7, 2012

निर्बल के बल राम


जनवरी २००३ 
हमारे भीतर आत्मा का सूरज चमक ही रहा है, उसका प्रकाश बाहर आये यही साधना है. आत्मनिंदा साधना के लिये ठीक नहीं, आत्म पूजा ही हमारी रीत होनी चाहिए. अंतर शुद्धि और बाह्य शुद्धि इसके लिये पहला कदम है. संतोष, सरलता तथा प्रेम को धारण करते हुए सदा आनंदित रहना दूसरा.. क्रोध तभी आता है जब हम ज्ञान के बल से विहीन होते हैं, अविद्या और अज्ञान ही हमें जन्मों से दुःख व पीड़ा दे रहे हैं. यदि कभी क्रोध आ जाये तो “निर्बल के बल राम” को याद रखना होगा. पूर्ण समर्पण हो अस्तित्त्व के प्रति अथवा सदगुरु की शरणागति. मन को खाली करना है ताकि वहाँ प्रकाश भर सके. ऐसा प्रकाश जो प्रेम मय है, आनंद मय है शांति मय है...
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