Monday, March 31, 2014

रस की खान को लें पहचान

नवम्बर २००५ 
भगवद प्राप्ति की प्यास जब जिधर भी जगी, वहीं से माया का लोप होने लगता है. यह प्यास भीतर से आती है, बुद्धि की पहुंच आत्मा तक नहीं है. आत्मा शाश्वत सुख का स्रोत है. जैसे शक्कर को मिठास खोजनी नहीं पडती वैसे ही आत्मारामी को सुख की खोज नहीं करनी है. जब ऐसी मंगलमय घड़ी साधक के जीवन में आती है, वहाँ कोई द्वैत नहीं रहता, कोई भेदभाव नहीं बचता. सब शुभ होता है. यह जगत निर्दोष दिखाई देने लगता है. किन्तु यह प्यास भीतर जगे इसके लिए पुरुषार्थ हमें ही करना है. इसे भाग्य के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता. एक बार साधक के भीतर की सुप्त शक्ति जाग्रत हो जाये तो उसकी दिशा स्वयंमेव बदल जाती है. संसार की सत्यता स्पष्ट हो जाती है और दिव्यता की मांग भीतर से उठने लगती है.  

आपे आप सुरंजन सोई

नवम्बर २००५ 
नानक के अनुसार, “कीता न होई थापया न जाई, आपे आप सुरंजन सोई” ! ईश्वर तो सदा ही है, उसे बस अनुभव करना है. कहीं से लाना नहीं है वह, कुछ करने से नहीं, कुछ भी न करने से वह प्रकट होता है, ध्यान साधना से जब पल भर के लिए मन खाली हो जाता है तो एक अनोखी पुलक से भर जाता है. जैसे न जाने कौन सी निधि इसे मिल गयी हो. हमारे भीतर कितने खजाने भरे पड़े हैं, हम चाहें तो तत्क्ष्ण उन्हें पा सकते हैं. हमारे मन व्यर्थ की कल्पनाओं में खोये रहते हैं और जो निधियां हम सहज ही पा सकते हैं, जन्म भर उनसे वंचित ही रह जाते हैं. परम के प्रति मन में श्रद्धा का भरना ऐसी घटना है जो जीवन को बदल कर रख देती है. हम सुख स्वरूप परमात्मा को कुछ-कुछ पहचानने लगते हैं.     

Friday, March 28, 2014

भेद-अभेद का खेल अनूठा

नवम्बर २००५ 
स्वरूप में अभेद है पर संबंध में भेद होगा ही. भक्ति में भेद का अर्थ है मर्यादा, भक्त और भगवान के मध्य भी द्वैत का अर्थ एक मर्यादा है, एक सुव्यवस्था है. जब हम पूजा करते हैं तो भी एक दूरी रहती है. जब हम प्रभु के साथ कोई संबंध बनाते हैं तो भी एक भेद रह जाता है. वह हमारी माँ, पिता, सखा, गुरू कुछ भी हो सकता है, एक भेद तब भी रहता है. गुरु शिष्य के बीच में भी एक भेद रहता है, तभी भक्ति रहती है. जिसकी भक्ति करें वहाँ विश्वास है और भक्त में श्रद्धा है. जिस श्रेष्ठ का हम वरण करें तो उसमें विश्वास हो तथा हममें श्रद्धा हो, यह भी भेद है. वह अंशी है तथा हम अंश हैं, वह गगन सदृश है हम जड़ पृथ्वी हैं. यह जगत ब्रह्म है हम सेवक हैं, यह भेद है. पर जो इस भेद का राज जानता है वह अभेद को पार करके ही आता है.

Thursday, March 27, 2014

कर्म का विज्ञान सिखाता

अक्तूबर २००५ 
हम जो भी स्थूल कर्म करते हैं, वास्तव में वे सभी पूर्व कर्मों के परिणाम हैं, हम उनके कर्ता नहीं हैं. जो सूक्ष्म कर्म हैं, दिखाई नहीं देते, वही बंधन का कारण होते हैं, अतः उन्हें रोकना ही कर्म त्याग है, इस बात का ज्ञान ही समस्त दुखों से एक साथ छुटकारा पाने का उपाय है. कर्ता होकर जब तक हम इस जगत में रहते हैं तब तक हम भोक्ता भी बने रहेंगे. तब हम जगत में रहकर जो भी कर्म करते हैं वह अभिनय मात्र है, उस कर्म का फल वहीं का वहीं समाप्त हो जाता है.  

Wednesday, March 26, 2014

प्रज्ञा का इक दीप जला हो

अक्तूबर २००५ 
भारत की संस्कृति अद्भुत है, यह कहती है जब हम अपने स्वभाव में नहीं होते तब खंड-खंड होते हैं और जब कोई वस्तु या घटना हमें अपने स्वभाव में लौटा लती है तो वह हमें प्रिय हो जाती है. शास्त्र हमें वह कुंजी देते हैं जिनसे हम अपने आप में लौटते हैं. जब हम विकार ग्रस्त होते हैं तो स्वयं से दूर हो जाते हैं. कामनाओं की पूर्ति के अभाव में हम क्रोध का शिकार होते हैं, जब तक प्रज्ञा के द्वारा हमारा समाधान नहीं होता तब तक क्रोध नहीं जाता. जब तक अपेक्षाएं हैं तब तक हम क्रोध से मुक्त नहीं हो सकते, जब हम तृप्त हो जाते हैं तब इस जगत में पूर्ण शांति के साथ रह सकते हैं. तप, जप, स्मरण, वन्दन, अर्चन सारी साधनाओं का एक ही हेतु है कि अंत करण शुद्ध हो, पवित्र हो ताकि स्वभाव में टिकना सहज हो जाये.

Tuesday, March 25, 2014

सागर में उठती लहरें जब

अक्तूबर २००५ 
हम इस जगत में सुख-दुःख के झूले में झूलने नहीं आये हैं बल्कि अखंड आनंद से मिलने वाली शांति प्राप्त करने आए हैं, ऐसी शांति जो जगत की हलचल से समाप्त होने वाली नहीं होती है. यह शांति उस ज्ञान से प्राप्त होती है जो हमें भक्ति करने के लिए प्रेरित करता है, ज्ञान का अंत भक्ति में ही है. भक्ति का अर्थ है अपने आप में रहना, कोई कामना नहीं, कोई उद्वेग नहीं, कोई विक्षेप नहीं, मन की वह अवस्था ही ईश्वर की निकटता की अवस्था है. वह निर्लेप, निसंग अवस्था ही अखंड शांति की अवस्था है, यही हमारी सच्ची अवस्था है, वही हमारा स्वरूप है. उसी में स्थित होकर भक्त कवियों ने ईश्वर की आराधना की है. मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तो आत्मा रूपी सागर में उठने वाली लहरे हैं, जब यह लहरें न रहें तो शांत सागर अपने स्वरूप में स्थित रहता है. एक बार उस अवस्था का अनुभव हो जाने के बाद यदि लहरें उठती-गिरती रहें तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, फर्क तभी पड़ता है जब हम उनके साथ संबंध बना लेते हैं. जब तक हमारा संबंध दृश्य के साथ नहीं है, हम द्रष्टा भी नहीं हैं, साक्षी भाव में आ जाते हैं. आत्मा में स्थित हुआ जीव सुख-दुःख का भागी नहीं होता, वह तो सम अवस्था में ही रहता है. 

Monday, March 24, 2014

कृपा बरसती हर पल उसकी


जब हमारे जीवन में कोई ऐसा दुःख आता है जिसका प्रतिकार हमारे हाथ में नहीं होता, हम असहाय हो जाते हैं तो एक तरह से वह ईश्वर का वरदान ही होता है. हम निरहंकारी होकर उसके सम्मुख आत्मसमपर्ण कर देते हैं. उसकी ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी मानते हैं, हम ईश्वर के प्रति धनभागी होते हैं, कृतज्ञ होते हैं कि उसके निकट आने का कैसा सुअवसर उसने दिया. सुखों में खोकर तो हम उसे भुला ही देते हैं और समर्थता हममें अहंकार को भर देती है. हमें अपने स्वस्थ, सबल होने का जब अहंकार हो जाता है जब रोगी व्यक्ति हमारी सहानुभूति का पात्र नहीं हो पाते तो ईश्वर हमें भी उनके समकक्ष लाकर बिठा देते हैं ताकि हम अहंकार वश अपना ही नुकसान न करें. यदि हमारा लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति है तो इस मार्ग में आने वाली सारी रुकावटों को दूर करने का काम प्रभु स्वयं करते हैं. वह सर्व समर्थ हैं, उनसे हमारा अटूट संबंध है. हम मानव होने के नाते उनकी सन्तान हैं, उनका अंश हैं, उन्हीं की तरह आनन्द स्वरूप हैं. यदि हम स्वयं को देह ही मानते रहे तो दुखी रहेंगे, मन या बुद्धि मानते रहें तो भी हमारे दुखों का अंत नहीं. जैसे ही हम स्वयं को आत्मा मानते हैं, हमारे सारे दुखों का अंत हो जाता है. यह देह तथा मन अस्थायी हैं, पल-पल बदल रहे हैं, न जाने कितनी बार हमने देह छोड़कर नई देह धारण की है. एक दिन इस देह को भी छोड़ना है, उसकी तैयारी अभी से हमें करनी है.


Friday, March 21, 2014

भीतर कोई राग छिपा है

अक्तूबर २००५ 
यदि हम सहज रहना चाहते हैं तो हमें वस्तुओं को वैसे ही देखना सीखना होगा, जैसी वे हैं. हम अपनी धारणाओं को उन पर आरोपित कर देते हैं और व्यर्थ ही भ्रमित होते रहते हैं. आत्मा अविनाशी है सदा है पर हम ने उसे मृत्यु के साथ जोड़ दिया है शरीर किसी भी क्षण जा सकता है पर हम ऐसे जिए चले जाते हैं जैसे सदियों तक जीना है. आत्मा की कीमत पर हम देह को सजाते हैं पर बिन प्रकाश के दीपक जैसा सूना होता है आत्मा जगे बिना हम भी खाली ही रह जाते हैं. सद्गुरु के बताये मार्ग से जब शरणागति हमारा स्वभाव बन जाती है तब जीवन में एक स्थिरता आती है, निश्चिंतता आती है, सहजता आती है, समता आती है और तब भीतर संगीत भर जाता है. जगत की असत्यता का अनुभव होने लगता है और परमात्मा कण-कण में प्रकट होने लगता है.


भाव जगत में जो विचरेगा

अक्तूबर २००५ 
जैसे अंगों का प्रत्यारोपण होता है वैसे ही आदतों का प्रत्यारोपण हमें करना है. भगवद् गीता में कहा गया है, भावना के बिना शांति नहीं और शांति हीन को सुख नहीं. हमें सामंजस्य, क्षमा, समता की भावना करनी है, जिससे सम्बन्ध सुमधुर हों. यह भावना से ही सम्भव है, भावना जितनी दृढ होगी, बात उतनी गहरी भीतर तक जाएगी. हमें ऊपर-ऊपर का बदलाव नहीं चाहिए. प्रेम भी स्थायी हो, आनन्द भी स्थायी हो, इसके लिए आवश्यक है संस्कार ही बदल दें. नियमित अभ्यास तथा भाव शुद्धि की इसमें अतीव आवश्यकता है.

Wednesday, March 19, 2014

शरणागति कीमिया है इक

अक्तूबर २००५ 
शरण में यदि हम आ जाते हैं तो समय-समय पर हमें भीतर से प्रेरणा मिलती है, उत्साह बढ़ता है तथा हमें प्रतीत होता है कि हम किसी की छत्रछाया में है, हमें इन्द्रियातीत आनन्द का बोध भी होता है. सुख-दुःख में सम रहने की कला भी सीखते हैं. शरणागति विनम्र बनाती है. विनम्रता के बिना हुआ बोध अहंकार को बढ़ाता है. अपने सच्चे कर्त्तव्य का ज्ञान होता है. कई सत्य उद्घाटित होने लगते हैं. सुख-दुःख जो प्रारब्ध वश है वह तो अपने-आप मिलेगा ही. संसार हमें जितना मिलना है वह मिलेगा ही आदि. पर ईश्वर प्राप्ति का संकल्प करते ही हमारे भीतर एक अद्भुत शांति का उदय होता है. धीरे-धीरे यह सम्बन्ध इतना दृढ़ हो जाता है कि उसमें देश, काल का भी कोई भेद नहीं रहता, वह हर काल में, हर स्थान पर साथ-साथ रहता है.


Tuesday, March 18, 2014

भीतर जाकर ही मिलता वह

अक्तूबर २००५ 
जब हम कुछ पल के लिए शांत होते हैं, तो शांति ऊपरी-ऊपरी होती है और जाती है, पर जब हम अन्तर्मुखी होकर गहराई में जाते हैं तो पता चलता है कि वास्तविक शांति किसे कहते हैं. भीतर जाकर जब पता चलता है कि विकार कैसे जन्मते हैं, कैसे बनते हैं और कैसे एकत्र होते हैं. एक बार जब भीतर कोई विकार जगता है तो दुखी होने का कारण पैदा हो ही गया. ऊपर-ऊपर का चित्त परिमित है और उसके नीचे का वृहत्तर चित्त है. जब तक भीतर वाला चित्त नहीं सुधरता तब तक बाहर का चित्त कभी शांत कभी अशांत होता ही रहेगा. हम बार-बार एक ही गलती करते हैं क्यों कि गलती का बीज तो नीचे है, ऊपर से डाली काट देने से क्या होता है, पुनः नई डाली निकल आती है. जब तक हम जड़ को नहीं काटेंगे तब तक गलती करने का स्वभाव बना ही रहेगा. हमें यदि सदा के लिए सुख-शांति का अनुभव करना चाहते हैं तो सदा के लिए विकारों से मुक्त होना पड़ेगा. और इसके लिए भीतर की यात्रा करनी ही होगी.  


एक नूर से सब जग उपज्या

अक्तूबर २००५ 
जीवन में कितनी भी विपरीत परिस्थितियाँ आयें, भक्त एक क्षण भी परमात्मा को नहीं भूलता, भूले भी कैसे ? जो स्वयं याद आता है, तो कौन उसे भुला सकता है ? शास्त्र कहते हैं परमात्मा  एक था, उसने सोचा अनेक हो जाये, वह अपने भीतर के प्रेम को विस्तारित करना चाहता था, आदान-प्रदान करना चाहता था, जैसे सन्त-महात्मा स्वय तो पूर्ण तृप्त होते हैं पर भीतर जो प्रेम का दरिया बह रहा है उसे लुटाना चाहते हैं. हम जो अपने मूल को भुला बैठे हैं, भटक रहे हैं. भक्त ने अपने मूल को पहचान लिया और उससे जुड़ गया, प्रेम का एक अद्भुत आदान-प्रदान उनके मध्य होने लगा.

Sunday, March 16, 2014

बुरा जो देखन मैं चला

अक्तूबर २००५ 
भीतर प्रेम भरा हो तो सारा जगत ही प्रेममय लगता है, कितना सच कहते हैं शास्त्र और संतजन, हमारे भीतर ही वह प्रेम का खजाना है, शांति और आनन्द का खजाना है. हमारे हाथ जब उसकी चाबी लग जाती है तो जीवन धन्य हो जाता है. उस चाबी की तलाश में ही कोई लग जाये तो उसका जीवन अर्थवान हो जाता है, हमें संतजन ही बताते हैं कि वह चाबी कहाँ मिलेगी, कैसे मिलेगी ? लेकिन उसे खोजने की इच्छा हमारे भीतर जगे ऐसी परिस्थितियाँ ईश्वर हमारे जीवन में उत्पन्न करते हैं. ईश्वर और संतजनों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए हमें विनम्रता के साथ ज्ञान को धारण करना होगा. अन्यों के दोष देखने लगे तो हमारा अभिमान रूपी दोष ही दिखाई देता है. ईश्वर हमें इन सारे दोषों से बचाना चाहता है इसलिए वह हमें वे दोष दिखाता है न कि स्वयं को विशिष्ट समझने के लिए. प्रभु कितना दयालु है !  

Thursday, March 13, 2014

मधुर अति है सन्त की बानी

अक्तूबर २००५ 
भोजन के समय, भजन के समय, प्रातः काल उठते समय, रात को सोते समय तथा घर से निकलते समय कभी क्रोध नहीं करना चाहिए. आज ये बातें सन्त मुख से सुनीं. सारे भेद भावों से ऊपर उठे हुए सद्गुरु की यही तो निशानी है, उसकी नजर आत्मा पर होती है, वह एक को ही देखता है, भेद-भाव तो हम करते हैं. हमारी दृष्टि भी यदि गुण ग्राहक हो जाये तो एक ही क्षण भी न लगे हमें तरने में. ऊपरी भेद तो मिथ्या हैं, सभी के भीतर एक ही परमात्मा आसीन है, हमें उसी पर दृष्टि रखनी है. अपने भीतर भी उसी शुद्ध चेतना के दर्शन करने हैं.

Wednesday, March 12, 2014

खाली मन में बजती वंशी

इकरारे मोहब्बत रहे वक्त की मौज नहीं
कृष्ण चाहिए मजबूर कृष्ण की फ़ौज नहीं


कृष्ण ही हमारी आत्मा हैं. चीन के दार्शनिक लाओत्से ने धर्म को ताओ कहा है, ताओ का अर्थ है, स्वभाव, यानि आत्मा का धर्म, सहज स्वाभाविक धर्म ! कृष्ण ने गीता में इसी धर्म को अपनाने की बात कही है, हम जो भी सहज रूप से करते हैं, बिना किसी पाखंड के या आडम्बर की वही हमारा धर्म है. उसके लिए हमें किसी क आश्रय नहीं लेना पड़ता, भीतर से ही मार्गदर्शन मिलता है, पर भीतर की उस आवाज को सुनने के लिए मन को खाली करना पड़ता है. खाली हृदय में वह भीतर का कृष्ण अपनी वंशी की धुन भर देता है, अथवा तो गीता का ज्ञान भर देता है. उसके बाद जगत में हमारा रास्ता ऐसे ही होता है जैसे ढलान पर से सहज रूप से किसी वस्तु का फिसलना, कोई आग्रह नहीं तो कोई बाधा भी नहीं, निर्द्वंद्वता मन का स्वरूप हो जाती है.

Tuesday, March 11, 2014

जब भीतर रस धार बहे

सितम्बर २००५ 
हम वास्तव में कौन हैं ? कहाँ से आए हैं ? क्यों आए हैं ? हमें क्या करना है ? इन सारे प्रश्नों के उत्तर यदि किसी को मिल जाएँ तो वह स्वयं के भीतर एक प्रकार के बल का अनुभव करता है. वह बल यूँ तो सदा से ही उसके पास था पर दिशाविहीन होने के कारण व्यर्थ ही व्यय हो रहा था. इन सारे प्रश्नों के उत्तरों की खोज का लक्ष्य भी यदि जीवन में हो तो जीवन सरस बन जाता है. परमात्मा के पास उसी के लिए जाना हो तो भीतर रस का अनुभव किये बिना नहीं जा सकते, हम तो परमात्मा के पास संसार के लिए ही जाते हैं, जब भीतर सूना मरुथल है.


रसो वै सः

सितम्बर २००५ 
 आत्मा जो सूक्ष्म तथा तेजस शरीर के साथ अनादि काल से रह रही है, तप रही है. सूक्ष्म विकार और वासनाएं न जाने कितने-कितने जन्मों से उसे जला रही हैं, वह शीतलता चाहती है. शुद्ध रूप में तो वह स्वयं प्रेम स्वरूप है पर अभी उस पर कर्मों के संस्कार चिपके हैं. वह मलिन है, परमात्मा रूपी जल ही उसे तृप्त कर सकता है. यूँ तो परमात्मा तो हर क्षण उसके निकट ही है, उसके हर सुख-दुःख की खबर भी उसे है. वह उसे हर पल निहार रहा है पर आत्मा ही अपने आवरण में ढकी उसे नहीं देख पा रही है. जब ज्ञान मिलता है कर्म संस्कार ढीले पड़ते हैं तो उसे कुछ भास होता है, वह परमात्मा के उन्मुख होना चाहती है पर अहंकार आड़े आ जाता है, कभी बुद्धि भ्रमित करती है. ज्ञान यदि हमें रूखा-सूखा और गर्वीला बना दे तो वह ज्ञान भी व्यर्थ हो जाता है. हमें तो सरस बनना है.  

Monday, March 10, 2014

एक वही तो शेष रहेगा

सितम्बर २००५
सद्गुरु कहते हैं, ईश्वर को मन तथा बुद्धि के द्वारा नहीं पाया जा सकता, उसकी कृपा जिस पर होती है, वह ही उसे जान पाता है. यह कृपा कुछ करके नहीं पायी जा सकती, जो शरण में आता है, पूर्ण समर्पित होता है, कृपा उसी पर बरसती है. शरणागति कोई कृत्य नहीं है यह एक भाव स्थिति है. जब साधक को कुछ और नहीं चाहिए केवल एक ही प्यास है, कुछ होने की चाह, कुछ पाने की चाह, कुछ देने की चाह ही हमें अकृत्रिम बनाती है. सभी तरह की कामनाओं से मुक्त होना ही समर्पण है. हम प्रयत्न द्वारा जो भी पाते हैं वह जगत का है और जब सारे प्रयत्न छूट जाते हैं, हम सहज होकर जीते हैं तो जो बचता है वही परमात्मा है. उसके अलावा जो कुछ भी हमारे पास है, वह छूट जाने वाला है, कुछ समय के लिए, खेलने के लिए मिला है.


Thursday, March 6, 2014

सदा सजग हो करें साधना

सितम्बर २००५ 
भाग्य क्या है ? जो कर्म हम पहले कर चुके हैं उनका फल ही भाग्य के रूप में हमारे सामने आता है. अभी जो कर्म हम कर रहे हैं वही भविष्य में हमारे सामने आएंगे. प्रारब्ध में जो है वह तो हमें स्वीकारना होगा पर हम इस क्षण से सजग हो जाएँ कि नये कर्मों की फसल नहीं बोयेंगे. सर्वप्रथम तो स्वयं को देह मानने की भूल से मुक्त होना है, मन व बुद्धि के द्वार से और भीतर जाना है, स्वयं में स्थित होकर किया गया कर्म हमें बांधता नहीं है. आत्मा की अनुभूति हो जाने के बाद इस जगत से इतना ही प्रयोजन रह जाता है जितना भूख मिटने के बाद भोजन से. तब निज सुख के लिए करने जैसा कोई काम रह ही कहाँ जाता है. तब तो सहज ही कर्त्तव्य पालन होता है तथा देह को टिकाये रखने के लिए आवश्यक कर्म होते हैं. ये दोनों ही बाँधने वाले नहीं हैं. मानव की देह लेकर आना हुआ तो एक उद्देश्य था स्वयं की अनन्तता का अनुभव करना, इस उद्देश्य को पाने का साधन है देह, जगत भी साधन है. इन साधनों का उपयोग करके जिसने अपने आप को जान लिया, अपने शुद्ध, बुद्ध, मुक्त शाश्वत स्वरूप को देखकर जिसे लगा कि यही तो वह है, वही तो यह है...भीतर बाहर एक ही चेतना के दर्शन वह करता है.  


Wednesday, March 5, 2014

सागर ही अपनी मंजिल है

सितम्बर २००५ 
हमारे मन का प्याला ख्वाहिशों से कभी भी लबालब भर नहीं सकता और भरे बिना उसे चैन नहीं मिलता, तो उसे भरने का एकमात्र उपाय है उसे सागर में ले जाकर तोड़ दिया जाये या छोड़ दिया जाये. सागर उसमें तभी समा सकेगा जब वह अपनी सीमाएं नहीं बाँधेगा. अहंकार वश ही हम सीमाएं बांधते हैं, जब अभाव का अनुभव होता रहेगा फिर आनन्द कहाँ से आएगा. सारे अभाव तभी मिटते हैं जब हम स्वयं में स्थित हो जाते हैं. मन का प्याला जब आत्मा के सागर में जाकर टूटता है तो कोई अभाव नहीं रहता. तब कुछ पाने की ख्वाहिश नहीं रहती. भीतर तब प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है, बाहर फिर मन नहीं लगता, बार-बार भीतर ही दौड़ता है. परमात्मा को फिर याद करना नहीं पड़ता वह खुदबखुद याद आता है.



Monday, March 3, 2014

छुपा है योग वियोग में

अगस्त २००५ 
परमात्मा अनादि है, अजन्मा है फिर भी वह जन्म लेता है, हम मानवों को ईश्वर का ज्ञान देने के लिए, जो अपने ही हाथों कभी सुखी कभी दुखी होते रहते हैं और एक दिन यह जगत छोड़कर चले जाते हैं फिर किसी नये रूप में आकर वही कहानी दोहराते हैं. कृष्ण अर्जुन के बहाने हम सभी को अपनी शरण में जाने का उपदेश देते हैं, जहाँ प्रेम है, शांति और आनन्द है, विश्वास है, सत्य है. जहाँ मन समाहित हो जाता है तब तन भी स्वस्थ होगा, हम अधिक कार्य कर सकेंगे, प्रभु के बनाये इस सुंदर संसार में उसके निमित्त बन सकेंगे. यह जीवन एक रहस्य है, हमें उसे जीना है, कृष्ण हमें अपनी ओर खींचते हैं ताकि हम इस खेल में शामिल हों. अपने भीतर ही हमें उसकी झलक मिलती है, ताकि हमें भरोसा हो जाये कि वह हैं. फिर हम उन्हें और शिद्दत से खोजते हैं पर वह छिपे ही रहते हैं. हमारे अश्रु भी उन्हें पिघला नहीं पाते, लेकिन इस विरह की अग्नि में हमारे भीतर का पाप-ताप जल जाता है. मन समता में रहने लगता है, हम उसे न पाकर भी उस से एक पल के लिए भी दूर नहीं होते.

Sunday, March 2, 2014

मन निस्पंद हुआ जिस पल

अगस्त २००५ 
जैसे-जैसे हम सरल होते हैं, सहज होते जाते हैं, कोई छल-कपट हमारे भीतर नहीं रहता, कोई चाह हमें पीड़ित नहीं करती. हमारी सारी आवश्यकताएं अपने-आप पूरी होने लगती हैं, हम उस हाकिम के, उस खुदा के, अल्लाहताला के, परवरदिगार के हाथों में कितने सुरक्षित हैं, कोई भय हमें नहीं सताता, वर्तमान में ही रहने की कला हम सीखते जाते हैं, यह जीवन तब फूल से भी हल्का हो जाता है, जैसे हम हवा में तैर रहे हों, कोई भार नहीं, न मन पर न तन पर, तन हल्का हो तो कार्य भी आनन्द का स्रोत हो जाते हैं. तब कुछ करने के बाद सुखी होंगे अथवा कुछ न करके सुखी होंगे, यह भ्रमणा मिट जाती है. हम बिना कुछ किये या करके हर हाल में ही आनन्द की स्थिति का अनुभव कर सकते हैं. ऐसा तभी होता है जब इस सत्य का पता चल जाता है, इस सत्य का कि हमारे मन का सुख-दुःख एक भ्रम ही है जो हम स्वयं ही खड़ा कर  लेते हैं और जगत को जिम्मेदार ठहराते हैं जबकि ऐसा है नहीं, जगत में हमें वही दीखता है जो हमारे मन में होता है. मन यदि शुद्ध स्फटिक के समान हो निर्मल हो तो उसमें सुंदर छवि ही दिखेगी, और वह छवि आत्मा की होगी, आत्मा जो परमात्मा में स्थित है, वही ब्रह्म है, उसके सिवा कुछ है ही नहीं, एक वही चेतना कण-कण में व्याप्त है, जगत तो मन का स्पंदन ही है, जब कोई स्पंदन नहीं तो मात्र उसी की सत्ता रह जाती है.

Saturday, March 1, 2014

मरना जिसने सीख लिया

अगस्त २००५ 
मृत्यु के समय अंतिम क्षण में हमारे मन के जो भाव होते हैं, अगला जन्म उन्हीं के अनुरूप होता है. वास्तव में एक क्षण से अधिक हमारे पास कभी भी नहीं होता, यदि वर्तमान का यह क्षण शांति से भरा है, तो उसका परिणाम अगला क्षण भी वैसा ही नहीं होगा, यदि यह क्षण दुःख से भरा है तो अगला क्षण उसकी छाया ही होगा. हम जिस क्षण अपने मन को ईश्वर से वियुक्त कर लेते हैं, दुःख के भागी होते हैं क्योंकि उस क्षण अहंकार ही होता है, अहंकार का भोजन दुःख है, वह शांति में बचता ही नहीं, अर्थात जब हम शांत होते हैं, ईश्वर से युक्त होते हैं, क्योंकि तब हम होते ही नहीं, वही होता है. मृत्यु के क्षण में जो शांत है वह परम स्वतंत्र है. 

नीलगगन सा मन हो जाये

अगस्त २००५ 
हम जितना-जितना सजग होकर व्यवहार करते हैं, हमारा भीतर खाली होता जाता है क्यों कि तब कोई ऐसी चेष्टा नहीं होती जिसके लिए भीतर दुःख, पछतावा या उद्वेग हो, बल्कि शांत भाव जो हमारी सहज अवस्था है, वही बना रहता है, जैसे आकाश अपने सहज रूप में शुभ्र है, नीला है तो खाली है, खाली मन में ही परमात्मा का निवास होता है, संतों का मन ऐसा ही होता है जहाँ से ईश्वरीय गुणों का प्रसार होता है. हमारे भीतर भी सरलता, सहजता, विश्वास, आस्था, आत्मीयता इन सारे गुणों का खजाना है, जिन्हें बाँटना है, हमें सजगता की मशाल लेकर इन तक पहुंचना है, ताकि वह पर्दा न रहे जो हमारी सहजता और हमारे बीच है, दूर हो सके. हम तभी सच्ची मुक्ति का अनुभव कर सकते हैं, मुक्ति की आकांक्षा करने वाला मन यदि स्वयं ही मुक्ति का विरोधी बना रहे तो यह सम्भव नहीं होगा !