नवम्बर २००५
भगवद
प्राप्ति की प्यास जब जिधर भी जगी, वहीं से माया का लोप होने लगता है. यह प्यास
भीतर से आती है, बुद्धि की पहुंच आत्मा तक नहीं है. आत्मा शाश्वत सुख का स्रोत है.
जैसे शक्कर को मिठास खोजनी नहीं पडती वैसे ही आत्मारामी को सुख की खोज नहीं करनी
है. जब ऐसी मंगलमय घड़ी साधक के जीवन में आती है, वहाँ कोई द्वैत नहीं रहता, कोई
भेदभाव नहीं बचता. सब शुभ होता है. यह जगत निर्दोष दिखाई देने लगता है. किन्तु यह
प्यास भीतर जगे इसके लिए पुरुषार्थ हमें ही करना है. इसे भाग्य के सहारे नहीं छोड़ा
जा सकता. एक बार साधक के भीतर की सुप्त शक्ति जाग्रत हो जाये तो उसकी दिशा
स्वयंमेव बदल जाती है. संसार की सत्यता स्पष्ट हो जाती है और दिव्यता की मांग भीतर
से उठने लगती है.