Friday, September 27, 2013

उद्यम ही भैरव है

मार्च २००५ 
‘उद्यमः भैरवः’  पुरुषार्थ के लिए हमें जो प्रयत्न करना है, वही भैरव है. वही शिव है. शुभ कार्यों के लिए किया गया साधन परमात्मा का ही रूप है. हम साधन तो करते हैं पर असाधन  से नहीं बचते. २३ घंटे ५९ मिनट तथा ५९ सेकेण्ड यदि हम साधन करें और एक सेकंड भी असाधन में लग गये तो सारा साधन व्यर्थ हो जाता है. और यदि एक सेकंड ही साधन किया पर शेष समय असाधन न किया तो वह साधन हमारे लिए हितकारी होगा. जप-पूजा करने के बाद भी यदि भीतर शांति का अनुभव नहीं होता तो कमी साधन में नहीं बल्कि कारण हमारा असाधन है. संतजन कहते हैं, यह सम्पूर्ण संसार एक ही सत्ता से बना है. वही ज्ञानी है, वही अज्ञानी है. वही कर्ता है, वही भोक्ता है. हम साक्षी मात्र हैं. जाने-अनजाने सभी उसी ओर जा रहे हैं. वही हमारा मार्ग दर्शक है वही हमारा ध्येय है. यह सारा संसार उसी की लीला के लिए रचा गया है. 

Thursday, September 26, 2013

सुख-दुःख स्वयं जगाता है मन

मार्च २००५ 
ज्यादातर समय हमारा मन अतीत व भविष्य की उधेड़बुन में लगा रहता है, संतजन कहते हैं जो मन को साक्षी भाव से देख सकता है, उसके मन में स्थिरता आती है. शरीर की संवेदनाओं के प्रति सजग होते होते साधक को पता चलता है की स्थूलपना खत्म होता जा रहा है, तरंगे बनती हैं फिर खत्म होती हैं. क्रोध, लोभ आदि विकार भी स्थायी नहीं हैं, शरीर, मन, बुद्धि सभी बदल रहे हैं. कान में ध्वनि तरंग पड़ते ही भीतर भी एक तरंग उठती है. आंख में जब देखते हैं तो भीतर एक तरंग उठती है. यदि दृश्य सुखद हुआ तो मन उसे पसंद करने की तरंग जगाता  है, यदि दुखद हुआ तो दुखद संवेदनाएं जगाता है. ऊपर से लगता है हम दुखद या सुखद घटना के प्रति प्रतिक्रिया जगाते हैं पर वास्तव में संवेदनाओं के प्रति ही प्रतिक्रिया करते हैं. गहराई में जाकर हम देखते हैं कि दुःख या सुख हम अपनी प्रतिक्रियाओं के कारण ही अनुभव करते हैं, जब हम यह देखते हैं की ये संवेदनाएं क्षणभंगुर हैं तो हम राग-द्वेष से मुक्त होने लगते हैं. हम जानने लगते हैं कि विकार जगते ही मन की शांति भंग होती है, तब हम विकार से मुक्त होने लगते हैं. 

Wednesday, September 25, 2013

तप कर कुंदन होवे स्वर्ण

मार्च २००५ 
तितिक्षा के बिना प्राप्त किया हुआ ज्ञान सफल नहीं होता, सुविधापूर्ण जीवन जीने की इच्छा हमें तप करने से रोकती है, कष्ट से घबराना सिखाती है, लेकिन इससे हमारे भीतर की शक्तियाँ बाहर नहीं आ पातीं. हमारे शरीर में शक्ति केंद्र हैं, जिनमें अनंत शक्ति है. मूलाधार केंद्र में जड़ता तथा चैतन्य दोनों हैं. जड़ता का अनुभव हर कोई करता है पर चेतना का कोई तप करने वाला ही. स्वाधिष्ठान केंद्र में काम तथा सृजन करने की क्षमता है. मणिपुर में लोभ, इर्ष्या, संतोष तथा उदारता हैं. हृदय में प्रेम, द्वेष तथा भय हैं. विशुद्धि चक्र में कृतज्ञता तथा दुःख की भावना शक्ति है. आज्ञा चक्र में ज्ञान तथा क्रोध व सहस्रहार में आनन्द ही आनन्द है. हम प्रतिपल सजग रहें तो नकारात्मक वृत्तियों के शिकार नहीं होंगे, तब सकारात्मक को पनपने का अवसर मिलेगा ही. सजगता भी तप है और विनम्रता भी तप है. देह को सदा सुख-सुविधाओं में रखकर हम अपने भीतर रहने वाले चैतन्य देव को जागृत होने का अवसर नहीं देते, वह हमारे माध्यम से प्रकट होना चाहता है, अपना अनंत प्रेम हमें देना चाहता है. हम उसकी आवाज को अनसुना कर देते हैं. हम पत्थरों को थामते हैं, हीरों को त्याग देते हैं. निद्रा के तामसी सुख के पीछे ध्यान का सात्विक सुख त्याग देते हैं. स्वार्थी होकर सेवा के महान व्रत से दूर रहते हैं. देह बुद्धि से ऊपर उठते ही हमारा जीवन खिलने लगता है. इसके लिए तप तो करना ही होगा.

खाली हुआ जो वही भरा

मार्च २००५ 
निर्मलता शांति को प्रकट करती है. आकाश यदि घनमालाओं से आवृत हो तो इतना विशाल प्रतीत नहीं होता, शुभ्र गगन अनंत शांति को प्रकट करता है. उसी तरह चिदाकाश भी जब वृत्तियों से रहित होता है तो निर्मलता को प्रकट करता है. सहज प्रेम भी उसी से फूटता है. भक्त फूल की तरह, नदी व सूर्य की तरह देना चाहता है, वह अपना आप खाली कर देना चाहता है, क्योंकि वह उसमें अनंत को भरना चाहता है, एक तरफ वह खाली होता जाता है और दूसरी तरफ भरता जाता है. पूर्ण मदा पूर्ण मिदं, पूर्णात पूर्ण मुदच्यत...अपने जीवन में जीता है. सत्य को अपने जीवन में घटते देखता है. शास्त्रों में जो लिखा है, वह अनुभूत सत्य है, जब भक्त के जीवन में वह घटित होता है तो शास्त्र के प्रति उसका प्रेम और बढ़ जाता है. ईश्वर की यह सृष्टि कितनी अद्भुत है.

Tuesday, September 24, 2013

एक संपदा सबके भीतर

मार्च २००५ 
भ्रान्ति और सत्य का पता तब तक नहीं चलता  जब तक हम चेतना के प्रति सचेत नहीं होते. धर्म का आदि बिंदु अतीन्द्रिय चेतना है, जब तक पदार्थ से परे आत्मा की चेतना का ज्ञान नहीं होगा तब तक हम द्वंद्व के शिकार होते रहेंगे. हम छिलकों से ही संतुष्ट न हो जाएँ, मूल को भी पायें, तब जो परिवर्तन हमारे भीतर होगा वह अतुलनीय होगा. मुक्ति का आरम्भ यहीं से होता है. हम यदि सुख के लिए पदार्थ को ही साधन बनाते हैं तो दुखी होने के लिए तैयार रहना होगा. यदि अक्षय सुख का स्रोत जो हमारे भीतर है, उसका अनुभव करते हैं तो जीवन में परम भक्ति का आगमन होता है. परमात्मा की शक्ति व प्रेम का अनुभव हर क्षण हमें होने लगता है. 

Sunday, September 22, 2013

सागर की पुकार सुनें जब

हम शुद्धात्मा हैं, मन पराधीन है, उस पर हमारा नियन्त्रण नहीं है, मन में न जाने कितने जन्मों के संस्कार छिपे हैं, कितने विचार उसमें उठते हैं, संकल्प-विकल्प की लहरें व बुदबुदे सभी उठते हैं पर वे सब सतह पर हैं, आत्मा सागर है, उसका स्वभाव है स्थिरता. सागर द्रष्टा है. ध्यान में हम सतही मन से नीचे गहरे सागर के साथ एक हो जाते हैं, तब मन को उसी तरह देखते हैं जैसी किसी और को देख रहे हों. धीरे-धीरे विचार भी खो जाते हैं और दृष्टा अपने आप में रह जाता है, अखंड मौन का अनुभव जब साधक को पहली बार होता है तो लगता है जैसे कोई निधि मिल गयी हो. ध्यान पूर्ण जागृति का नाम है, मन सापेक्ष सत्य है, आत्मा निरपेक्ष सत्य है. वहाँ से लौटकर हमें निरंतर यह अनुभूति रहती है कि जो कुछ जगत में है एक मात्र वही सत्य नहीं है, बहुत कुछ है जो दिखाई नहीं पड़ता वह भी है. तब हम जगत में उलझते नहीं, मोह के शिकार नहीं होते. ऐसे आनन्द की अनुभति करते हैं जो बाहरी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति पर आधारित नहीं है. 

Saturday, September 21, 2013

मोह मिटाए रहें मगन

मार्च २००५ 
विपशना ध्यान बहुत सरल है. श्वासों को आते-जाते देखना, फिर धीरे-धीरे देह में होने वाले ऊर्जा प्रवाह को देखना. तरंगो को उत्पन्न होते फिर नष्ट होते देखना. कोई विचार उठा नहीं कि  भीतर उसके सापेक्ष कोई संवेदना जगी. कोई दुखद बात सुनी कि भीतर एक विषैला प्रवाह दुःख का दौड़ने लगता है, जैसे ही पता चला वह खबर असत्य थी, परिवर्तन होने लगता है लेकिन उस विष का प्रभाव तो देह को झेलना ही पड़ा. हम यदि मोह छोड़कर जगत में रहें तो दुःख को टिकने की जगह ही न मिले. इन विकारों का जन्म हमारे ही भीतर होता है क्योंकि घटनाएँ तो हर क्षण संसार में हो रही हैं, हमें वही प्रभावित करती हैं जिनसे हम मोह से बंधे हैं.  यदि मन सुख-दुःख के प्रति निरपेक्ष रहे, प्रतिक्रिया न करे तो भीतर ऊर्जा व्यर्थ नहीं होगी. जो क्रोध हमें भीतर जलाता है वही हम बाहर अन्यों पर कर सकते हैं. हमारी चेतना सुप्त ही रहती है जब हम अहंकार वश जीवन में होने वाली घटनाओं का सूत्रधार बनना चाहते हैं. सभी कुछ घटित हो रहा है, हम साक्षी हैं.  

Friday, September 20, 2013

मिला हुआ वह हर पल सबसे

मार्च २००५ 
किस तरह स्वयं को जगत के लिए उपयोगी बना सके, साधक को इसका भी ध्यान रखना चाहिए. एकांत साधना आरम्भ में तो ठीक है, जब नये-नये अनुभव होते हैं तो लगता है, एकमात्र उसे ही ईश्वर की कृपा का प्रसाद मिला है, पर नजरें उठाकर देखें तो पता चलता है, सृष्टि के आदि से अनेकों सन्त-महात्मा साधक हो गये, अभी भी हजारों-लाखों हैं, ईश्वर को पाना ही स्वाभाविक है, क्योकि वह कभी खोया ही नहीं था बल्कि उसे भूल जाना ही असम्भव है. साधना का लक्ष्य है कृपा का अनुभव और जब ऐसा लगने लगे तो स्वयं को लुटा देना चाहिए, जितनी-जितनी सेवा हो सके करनी चाहिए. यह जगत उससे अलग नहीं, जगत की अच्छाई-बुराई सब उसी से है. तीनों गुणों से बंधी प्रकृति के कारण प्राणी अपना-अपना कार्य कर रहे हैं, जो इस बंधन को काट सके वही साधक है. साक्षी भाव से तब वह इस व्यापर को देखता है, उससे लिप्त नहीं होता. 

Thursday, September 19, 2013

'मैं' से' 'मैं' तक

फरवरी २००५ 
प्रभु ! तू याद आता क्यों नहीं है
इस दिल में समाता क्यों नहीं है

हमारी सोच ‘मैं’ से शुरू होती है और ‘मैं’ पर खत्म भी होगी. हम जो भी कर्म कर रहे होते हैं चाहे वे अपने लिए हों या दूसरों के लिए, ‘मैं’ की धुरी के इर्द-गिर्द ही होते हैं. अस्तित्त्व से जुड़े बिना हमारे कार्यों, वाणी तथा विचारों में गहराई नहीं आती, हम सतही स्तर पर ही जीवन जिए चले जाते हैं, पर जब हम अपने भीतर की सत्यता का अनुभव करते हैं तो हमारा ‘मैं’ जो पहले संकीर्ण था, अब सब कुछ उसमें समा जाता है, जीवन जैसा आता है उसे वैसा स्वीकारने की क्षमता पैदा होती है. हमारे ‘स्व’ का विस्तार होता है, सभी के भीतर उसी एक अस्तित्त्व का दर्शन हमें होता है. 

Wednesday, September 18, 2013

हुकुम रजाई चालिए

फरवरी २००५ 
जब जीवन का लक्ष्य तय हो जाता है तो रास्ता मिलने लगता है, हमारे अंतर की सच्ची पुकार कभी भी अनसुनी नहीं रहती, परम पिता परमात्मा हमारे लिए वह सारे साधन जुटा देता है जो हमारे विकास के लिए आवश्यक हैं. हमारा जीवन प्रकृति के सूक्ष्म नियमों द्वारा संचालित होता है. पूर्व में किये गये कर्मों के अनुसार हमारे भावी कर्म नियत होते हैं, प्रमादवश मानव स्वयं को कर्ता मानता है, लेकिन वास्तव में प्रकृति के गुणों के अनुसार ही उसके कर्म होते हैं. साधक साधना के द्वारा इन गुणों के पार जाना चाहता है. चेतना में जगा हुआ जीव ही सचेत होकर कर्म करता है, जब वह गुणों के पार चला जाता है.

Tuesday, September 17, 2013

गहरे पानी पाए मोती

फरवरी २००५ 
मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि मानो आत्मा रूपी झील पर उठने वाली तरंगे हैं, जो आती हैं और मिट जाती हैं. मन में हर पल नये-नये विचार उठते रहते हैं और साथ ही समाप्त होते रहते हैं. यदि हम किसी विचार को पकड़ कर बैठ जाते हैं तो रुके हुए पानी जैसी काई उस पर जमने लगती है, यदि वह विचार सद् है तो कुछ समय के लिए अन्य अशुभ विचारों को ढक लेता है पर जब तक आत्मा तक हमारी पहुंच नहीं होगी, ऊपर-ऊपर का बदलाव विशेष बदलाव नहीं देता. क्षण-प्रतिक्षण हमारी बुद्धि बदलती रहती है, सुख-सुविधा की ओर खींचती है. प्रेय के मार्ग पर ले जाती है, श्रेय को तजकर हम दुःख ही पाते हैं. आत्मा की झील में उतरे बिना काम नहीं चलेगा. आत्म ज्ञान के बिना हम सुरक्षित नहीं है. 

Saturday, September 14, 2013

मैं से भरा उससे खाली

फरवरी २००५ 
जब तक हम देहात्म बुद्धि से जगत में रहते हैं, मन पर एक बोझ पड़ा ही रहता है, यह बोझ ‘मैं’ का है, ‘मैं’ जो अपने को कल्पनाओं के अनुसार एक पहचान दे देता है. बाहर जो दीखता है वह जगत बंधन का कारण नहीं है, बल्कि हमारी कल्पनाओं द्वारा गढ़ा गया संसार ही बंधन का कारण है. जब मन सारी, उपाधियों, कल्पनाओं, वासनाओं से खाली हो जाता है, तभी देहातीत का अनुभव होता है, तब हम स्वालम्बी हो जाते हैं, अपनी ख़ुशी के लिए संसार के आश्रित नहीं रहते, जगत तो अपनी प्रकृति के अनुसार पल-पल बदल रहा है, पर हम ‘वह’ हैं जो कभी नहीं बदलता.

Friday, September 13, 2013

सुख का सागर भीतर बहता


हम सभी के भीतर सद्वासना, असद्वासना तथा मिश्रित वासना है. सद्वासना सभी का कल्याण करती है, असद्वासना सदा दुःख को जन्म देती है, मिश्रित वासना कभी सुख कभी दुःख का कारण होती है. इस संसार में वही स्वस्थ हैं, यानि स्व में स्थित हैं जिन्हें किसी भी प्रकार की वासना नहीं सताती है, जिनके सारे आरम्भ नष्ट हो गये हैं, सहज प्राप्त कर्मों को जो करते हैं, और ऐसे कर्म उन्हें बांधते नहीं हैं. इच्छा न होने से मन में संकल्प-विकल्प भी नहीं उठते, तभी वे आत्मा में स्थित रहते हैं, आत्मा का सदा एक सा सुख भीतर से मिलता रहता है, वह सुख जो सीधे ईश्वर से आता है, उसका कोई और कारण नहीं है, जगत का सुख किसी कारण से ही होगा और जितना सुख होगा उतना ही दुःख भी उसके साथ जुड़ा होगा. आत्मा का सुख शुद्द है, अनंत है, प्रेम से परिपूर्ण है, उसमें जोई छिपाव नहीं है, वह इस जगत के दांवपेंच से परे है, वह  अछूता है, वह सात्विक है. 

Thursday, September 12, 2013

सर्वे भवन्तु सुखिनः

फरवरी २००५ 
साधक का ध्येय होता है मन, वचन, तथा वर्तन से किसी को दुःख न हो, हमारे भीतर जब गहराई आती है तो कोई बात कहीं जाएगी नहीं, अन्यथा हम गोपनीय बातों को भी जगजाहिर कर देते हैं. लोगों का विश्वास तभी तक होता है जब तक उन्हें ज्ञात है कि यहाँ दिल खोल देने से कोई समस्या नहीं है, यहाँ बातों को सहज स्वीकरा जायेगा. हमारे भीतर कई दुर्गुण हैं, और कुछ सद्गुण भी हैं पर यदि एक भी सद्गुण हमारे भीतर है और हम उसे ही पुष्ट करते जाते हैं तो सारे दुर्गुण उसके सामने बौने पड़ जाते हैं. सजगता का सद्गुण यदि हमने अपना लिया तो अनुशासन का पालन सरल हो जाता है. हमें कहाँ जाना है, क्या करना है, क्यों करना है, कैसे करना है, ये सारे सवाल अनुत्तरित नहीं रह जाते. तब जीवन गतिमय हो जाता है, शिथिलता नहीं रहती, समय की कीमत का ज्ञान होता है. परमात्मा की शक्ति सदा मार्ग दिखाती है और प्रेम भी बरसाती है, प्रेम वहीं है, जहाँ सजगता है, सजगता वहीं है जहाँ सरलता है, सरलता वहीं है, जहाँ चित्त की शुद्धि है और चित्त शुद्ध तभी होता है जब भक्ति का उदय होता है, भक्ति तभी टिकती है जब भीतर किसी को दुःख पहुँचाने की सूक्ष्म वासना भी न रहे. 

Wednesday, September 11, 2013

प्रेम से प्रकट होए मैं जाना

फरवरी २००५ 
साधक को आत्म-वीक्षण की जरूरत है, आत्म-परीक्षण की नहीं, हमें अपने मन को संशय में नहीं डालना है, जो मन से परे है उसे मन से नहीं जाना जा सकता. जब भीतर मन ध्यानस्थ होने लगता है तो रस प्रकट होता है और तब अहंकार को ठहरने के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता, अहंकार का भोजन दुःख है, प्रेमपूर्ण होने से वह स्वतः ही गिरने लगता है. और जहाँ सुख हो वहीं शांन्ति है, तब सारा जगत अपना ही विस्तार लगता है, रेत के कण से लेकर तारागण तक सभी कुछ. तब उस परमात्मा से मिलने की प्यास जगती है जिसने इतना सारा प्रेम भीतर भर दिया है, तब उससे दूरी सही नहीं जाती.

समता मन में बनी रहे

फरवरी २००५ 
हमारा अंतर्मन अथवा तो अंतःकरण हर क्षण निर्मित होता रहता है, शरीर पर होने वाली सूक्ष्म संवेदनाओं को ग्रहण करता हुआ यह कभी राग जगाता है, तो कभी द्वेष जगाता है. पल-पल हम संस्कार एकत्र करते जाते हैं, कर्मों के बीज बोते जाते हैं. ध्यान में हमारे संस्कार शुद्ध होते हैं कुछ व्यर्थ के संस्कार नष्ट भी होते हैं. पुनः हमें संसार में आना है, नये-नये संस्कार बनेंगे, पर जब हम सजग रहते हैं, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितयों में सम रहते हैं, अंतःकरण का निर्माण हमारे ही हाथों में रहता है. इसी पर हमारा भविष्य टिका है. 

Monday, September 9, 2013

तोरा मन दर्पण कहलाये

फरवरी २००५ 
जगत के साथ जो हमारा व्यवहार है, वह प्रतिबिम्ब है हमारे भीतर के जगत का, लोगों के साथ हमारा सबंध दर्पण के समान है. दूसरों में जो कमियां हमें दिखाई देती है, वास्तव में वे हमारे भीतर होती है, और हम उन्हें निकालना चाहते हैं, पर यदि हम बाहर को ही देखते रहे और यह न देखा कि हमारे व्यवहार का संचालन कौन कर रहा है तो हम स्वयं को नहीं बदल पाएंगे. हमारा आचरण भले ही उसके विपरीत हो पर भीतर का भाव वही रहेगा. ध्यान के समय हम उस गहराई तक पहुंच सकते हैं, और स्वयं को सुझाव देकर परिवर्तन ला सकते हैं. हम अपने पूर्व जीवन को यदि मुडकर देखें तो पाते हैं, मन के अधीन रहकर सदा दुःख ही जाना है, मन की गहराई में समाधान मिलता है, इसी समाधान का अनुभव ही सच्ची आध्यत्मिकता है. प्रभु की शरण में जाकर हम इसे पा सकते हैं.

Thursday, September 5, 2013

कहाँ से उठता है यह "मैं"


देहात्म बुद्धि में यदि हम रहते हैं तो जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, भूख-प्यास को सहना ही पड़ेगा. देह यानि हमारा अन्नमय कोष जो अन्न से बना है, जन्म लेता है व मृत्यु को प्राप्त होता है, नष्ट होकर अन्न ही हो जाता है. प्राणमय कोष वायु पर आधारित है जो भूख-प्यास सहता है, प्राण न रहें तो देह को भूख-प्यास का अनुभव नहीं होगा. मनोमय कोष वृत्तियों को धारण करता है, तथा सुख—दुःख का भागी होता है, वृत्तियाँ ही इसका भोजन हैं. विज्ञानमय कोष हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करता है. उससे भी परे है आनन्दमय कोष, जो इन सभी को अभिव्यक्ति प्रदान करता है. हम कार्य को तो देखते हैं कारण को नहीं खोजते, हमारी ‘मैं’ कारण शरीर से उठती है पर हम स्वयं को देह, मन, बुद्धि ही मानते रहते हैं, क्योंकि वहाँ तक हमारी पहुंच नहीं है. उसके पार गये बिना आत्मा का अनुभव नहीं हो सकता, और आत्मवादी हुए बिना द्वन्द्वों के इस जगत से छूटना कठिन है. जैसे नारियल पक जाये तो अपने आप छिलके से अलग हो जाता है, वैसे ही देह के भीतर रहता हुआ आत्मा जब देह, मन बुद्धि से छूट जाता है, फिर  अपनी ही गरिमा में रहता है.

पंच कोष से न्यारा है वह

फरवरी २००५ 
देह हमारा अन्नमय कोष है, स्थूल है, जिसका अस्तित्त्व है, सत्ता है पर इसमें गति नहीं है. यह जड़ है. फिर आता है प्राणमय कोष, जिसमें सत्ता भी है गति भी है. मनोमय कोष में सत्ता, गति के साथ ज्ञान भी है. विज्ञान मय कोष में व्यक्तित्व भी समा जाता है. पांचवा है आनन्दमय कोष और उसके परे है शुद्ध बोध, जहाँ हमें जाना है. एक-एक करके हमें इन पाँचों आवरणों को भेदना है.  संसार की सत्ता हमारे मनोराज्य के कारण ही है, जिस क्षण जैसा विचार, भाव अथवा शब्द उठता है संसार उस क्षण वैसा ही रूप धारण कर लेता है. मन यदि ठहर जाये तो यह दौड़ थम जाती है. 

Monday, September 2, 2013

स्वयं के पास हुआ सो मुक्त

फरवरी-२००५  
‘उपवास’ का अर्थ है ईश्वर के निकट वास करने का दिन, अपने आप में रहने का दिन, एकत्व को अनुभव करने का दिन, इसको अनुभव के स्तर पर जीने का दिन, जहाँ कोई भेद न हो वहाँ शांति होती है, जहाँ दो हुए वहाँ से दुखों का आरम्भ होता है. शांति से सामर्थ्य का जन्म होता है तब जो कर्म हम करते हैं वे बांधते नहीं. प्रकृति के गुण गुणों में बरत ही रहे हैं, इन्द्रियां अपने सहज स्वाभाविक धर्म के अनुसार कार्य कर रही हैं, हम शुद्ध, बुद्ध निर्मल ऊर्जा के पुंज हैं, यह भाव आज के दिन तो होना चाहिए और यही सत्य है. हम स्वयं ही असत्य के पीछे दौड़ते हैं,, फिर धोखा खाने पर दुखी होने का नाटक करते हैं, इसलिए इस जगत को माया जाल कहा गया है. यहाँ मानव स्वयं ही जाल बनाता है, उसमें फंसता है फिर छूटने का प्रयत्न करते हुए स्वयं को अपनी वीरता पर शाबाशी अथवा तो अपनी निरीहता पर संवेदना देता है. स्वयं पर दया दिखाता है या कठोर होता है, जबकि सारा खेल उसी का रचा हुआ है. इसी खेल को खेलते–खेलते कितनी सदियाँ कितने जन्म गुजर जाते हैं.  

Sunday, September 1, 2013

हर अंतर में वही विराजे

फरवरी २००५ 
जीवन में ज्ञान हो और वह ज्ञान आचरण में भी उतरे तभी शांति का अनुभव हो सकता है ! आनन्द का अनुभव हमें तभी होता है जब भीतर विरोध नहीं रहता. हमारा किसी से विरोध हो अथवा किसी का हमसे विरोध हो, हमारे कारण कोई दुखी हो अथवा हम किसी के कारण दुखी हों, दोनों ही स्थितियों में हम ईश्वर का विरोध करते हैं. हमें जो कुछ भी चाहिए उस परम ने हमारे ही भीतर भर दिया है, हम हृदय का कपाट बंद करके बाहर घूमते रहते हैं. थक-हार कर दुखी होते हैं अपने भीतर बहते हुए शीतल झरने पर नहीं आते, जो प्रेम से, आनन्द से निरंतर बह रहा है. हम उस प्रभु के गीत गाते हैं फिर भी कभी अहंकार, कभी हीनता से ग्रसित हो जाते हैं. जगत के साथ एक्य का अनुभव होने पर दोनों ही विलीन हो जाते हैं.