हम शुद्धात्मा हैं, मन
पराधीन है, उस पर हमारा नियन्त्रण नहीं है, मन में न जाने कितने जन्मों के संस्कार
छिपे हैं, कितने विचार उसमें उठते हैं, संकल्प-विकल्प की लहरें व बुदबुदे सभी उठते
हैं पर वे सब सतह पर हैं, आत्मा सागर है, उसका स्वभाव है स्थिरता. सागर द्रष्टा
है. ध्यान में हम सतही मन से नीचे गहरे सागर के साथ एक हो जाते हैं, तब मन को उसी
तरह देखते हैं जैसी किसी और को देख रहे हों. धीरे-धीरे विचार भी खो जाते हैं और
दृष्टा अपने आप में रह जाता है, अखंड मौन का अनुभव जब साधक को पहली बार होता है तो
लगता है जैसे कोई निधि मिल गयी हो. ध्यान पूर्ण जागृति का नाम है, मन सापेक्ष सत्य
है, आत्मा निरपेक्ष सत्य है. वहाँ से लौटकर हमें निरंतर यह अनुभूति रहती है कि जो
कुछ जगत में है एक मात्र वही सत्य नहीं है, बहुत कुछ है जो दिखाई नहीं पड़ता वह भी
है. तब हम जगत में उलझते नहीं, मोह के शिकार नहीं होते. ऐसे आनन्द की अनुभति करते
हैं जो बाहरी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति पर आधारित नहीं है.
आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आप का वहाँ हार्दिक स्वागत है ।
ReplyDeleteराजेश जी, बहुत बहुत आभार !
Deleteबहुत कुछ है जो दिखाई नहीं पड़ता वह भी है. तब हम जगत में उलझते नहीं, मोह के शिकार नहीं होते. ऐसे आनन्द की अनुभति करते हैं जो बाहरी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति पर आधारित नहीं है.
ReplyDeleteवह आनंद बाहर का नहीं है भीतर का है संसार का नहीं है भगावन का है।
बिलकुल सही कहा है आपने...
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