Sunday, November 25, 2012

तमाम दुनिया है खेल उसका


वह एक ही है जो सृष्टि के कण-कण में समाया है, तमाम दुनिया है खेल उसका, वह खेल सबको खिला रहा है. जो ऐसा जानता है वह सभी जगह उसी का दर्शन करता है. वह स्वयं जिस तरह स्वप्न में सृष्टि रचता है, उसी तरह इस जगत को स्वप्नवत ही जानता है, तभी वह उसमें फंसता नहीं है, अलिप्त रहता है. सम्पूर्ण सृष्टि रसमय है, पंचभूत भी रसमय हैं तो हम मानव ही क्यों रसविहीन जीवन व्यतीत करें, जबकि हम उन्हीं का अंश हैं. कृष्ण ने हमें वचन दिया है कि वह हमारे कुशल-क्षेम की रक्षा करेंगे. जो उसके निकट आता है वह उसे शक्ति से पूरित करता है. वह जीवनदाता है और जीवन को चलाने वाला भी है. वह हमारे पल-पल की खबर रखता है, वह लीला रचता है एक से अनेक होता है. संतों के रूप में आकर वही मानवों की सुप्त चेतना को जगाता है. वह प्रेम करता है और प्रेम चाहता है. जो आत्मस्थित है वही असली खिलाड़ी है. भक्ति और श्रद्धा के पंख लगाकर हम आत्मा के आकाश में विचरण कर सकते हैं. किनारे पर बैठकर लहरें गिनने की बजाय आत्मा के सागर में गहरे उतरना होगा तभी मोती मिलेंगे. जो किनारे पर रहते हैं उन्हें बार-बार आना पड़ता है, वे किये हुए को पुनः पुन करते हैं सीखे हुए को पुनः सीखते हैं. 



प्रिय मित्रों,  मैं बनारस व बैंगलोर की यात्रा पर जा रही हूँ, अब दिसंबर के तीसरे सप्ताह में मुलाकात होगी. आने वाले वर्ष के लिए तथा क्रिसमस के लिए अग्रिम शुभकामनायें...

Friday, November 23, 2012

भीतर कोई देखे मौन


नवम्बर २००३ 
हम साक्षी मात्र हैं, सुख-दुःख के भोगी नहीं हैं. द्वन्द्वातीत हैं, चिन्मय हैं, अजन्मा, अविनाशी हैं, हम मुक्त हैं. जगत में यह सामर्थ्य नहीं कि हवा के झोंके को बांध सके, चट्टानों को बेधकर आती जलधारा को रोक सके. हम चैतन्य हैं, शाश्वत हैं, मृत्यु हमसे घबराती है, हम कालातीत हैं. काल का हम पर कोई वश नहीं चलता. हमारी शक्ति असीमित है, हम असीम, अनंत गगन के सम व्याप्त हैं. हमसे ही यह संसार है, यह हमारा खेल स्थल है, नाट्यशाला है. प्रकृति के गुण अपना-अपना कार्य कर रहे हैं. गुणों के बद्ध होकर जीव कभी सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक भाव में रहते हैं जो जिस भाव में स्वयं है वह जगत को उसी भाव देखता है. हम तीनों गुणों से परे हैं. यह दृष्टि सद्गुरु से प्राप्त होती है और स्वयं ईश्वर इसे दृढ़ता प्रदान करता है. वह हमारे अंतर में रहकर सारे रहस्यों को स्वयं ही खोलता है. सब कुछ कितना स्पष्ट है. हम कहाँ से आये हैं, क्यों आए हैं, कहाँ जाना है, क्यों जाना है, हम कौन हैं, किसके हैं, इन सारे प्रश्नों के उत्तर हमारे भीतर मिलते हैं. सद्गुरु हमें ध्यान सिखाते हैं और अपनी कृपा दृष्टि बरसाते हैं, उस कृपा में जाने कैसा जादू है कि हमारा भीतर-बाहर एक हो जाता है. हम रस से भर जाते हैं. आनंद की एक बाढ़ हमारे भीतर प्रवाहित होती है जो सारे भूत को बहा ले जाती है, हम नवीन हो जाते हैं. सारी दुश्चिंताएँ, सारी कल्पनाएँ जो बद्ध मन के कारण उत्पन्न हुई थीं, नष्ट हो जाती हैं. हम साधना के पथ पर चलने के अधिकारी बन जाते हैं. ईश्वर हमारा हाथ थाम कर स्वयं इस पथ पर ले जाता है.

Thursday, November 22, 2012

अर्थ वही जीवन को देता


अक्टूबर २००३ 
ज्ञान हमें मुक्त करने के लिए है न कि बांधने के लिए, कहीं यह हमारे अहंकार को बढ़ाने का साधन न बन जाये. इसके लिए हमें सतत् सजग रहना होगा. निरंतर आत्मा का विकास करते जाने के लिए आवश्यक है कि हम स्वाध्याय कभी न छोड़ें. अभी पथ पर चलना शुरू ही किया है, फिसलने का भी डर तो बना ही है. संत कहते हैं कि हम अपने दुखों से भी आसक्ति कर लेते हैं, पुराने किसी दुःख को हम बार-बार याद करते हैं और उसके संस्कार को दृढ करते जाते हैं. सुखों को हम अन्यों से छिपाते हैं कि हमारा सुख घट न जाये, हम कितने कृपण हैं. सहन शक्ति भी कम है, हमें कितने छोटे-छोटे सुख-दुख हिला जाते हैं, हमारी नसें तन जाती हैं, जैसे ही कोई अप्रिय घटना घटे या हमारे मन के विपरीत कुछ हो तो हमारी वाणी में रुक्षता छलक ही जाती है. हम जो ईश्वर के भक्त होने का दम भरते हैं, उसके बनाये जगत से ही प्रेम नहीं कर पाते. इसके कण-कण में भी तो उसकी ही चेतना है. वह परब्रह्म ही सबमें समाया है, वह हमारा जितना है उतना ही सभी का है, वह अनंत है उसका प्रेम सभी के लिए अनंत है. जो कोई भी उसे प्रेम से पुकारता है, वह उसकी सुनता है, वह सर्व मंगलकारी है. वह हमारे जीवन को एक अर्थ देता है, वह हमें एक लक्ष्य प्रदान करता है, स्वयं तक पहुंचने का लक्ष्य.



Wednesday, November 21, 2012

ज्योति जल रही उसकी भीतर


अक्टूबर २००३ 
परमात्मा सद्गुरु के रूप में बार-बार धरा पर अवतरित होते हैं. कृपा की फुहार बरसाते हैं. कुम्भ के रूप में हम जिस ब्रह्माण्डीय शक्ति की उपासना करते हैं वह उसी का रूप है. यदि हम उसे अपने जीवन रूपी रथ को हांकने के लिए कहें तो वह तत्क्षण तैयार हो जाते हैं. वह हमारी चेतना की मूर्छा को दूर करते हैं. जीवात्मा रूपी अर्जुन जब परमात्मा रूपी कृष्ण को अपना गुरु बनाता है तो वह उसे प्रेरित करते हैं, ज्ञान प्रदान करते हैं, ध्यान की विधि बताते हैं. अनेकों उपायों से वह अर्जुन की सुप्त चेतना को जागृत करते हैं. अहंकार का आवरण दूर करते हैं. जीवन अमूल्य है, उसी का उपहार है, वही इसका आधार है, हमें उसे ही जानना है जो इस देह और मन के भीतर ज्योति जलाकर बैठा है. जगत तो एक साधन है शरीर को चलाने के लिए, ज्ञान पाने के लिए. कृपा होते ही यह जीवन एक उत्सव बन जाता है. गूंगे की मिठाई की तरह जो भीतर को रस से भर देता है. तब भीतर उजाला ही उजाला भर जाता है, जिसमें सभी कुछ स्पष्ट है, कहीं कोई संशय नहीं रहता.

Tuesday, November 20, 2012

प्यास जगे जब उसकी भीतर


अक्टूबर २००३ 
दुखों से घबराना कैसा, वे तो नमक की तरह हैं, नमक के बिना जैसे भोजन नहीं रुचता वैसे ही जीवन में चुनौतियाँ न हों तो सुख का आनंद नहीं लिया जा सकता. लेकिन इंसान तब तक तो घबराता ही रहेगा जब तक उसे अपने भीतर सुख नहीं मिलता. जब तक वह यह नहीं जानता कि अखंड लौ की भांति ज्ञान की शिखा उसके भीतर निरंतर जलती रहती है. यह स्थिति किसी को तभी प्राप्त होती है जब सत्य को जानने की उसके भीतर ललक हो, तीव्र आकन्ठा हो, प्यास हो, जीवन के रहस्यों पर से पर्दा उठाने की इच्छा हो. तब आत्मा का सूर्य भीतर चमकता है, और तब सुख-दुःख खेल लगते हैं. ज्ञान हमारे हृदय को निर्भीक बनाता है. हमारा जीवन स्वयं द्वारा रचित है, जो कुछ हमने आजतक किया है उसी का परिणाम है आज का पल, जो हम आज करेंगे वही भविष्य बनाएगा. ज्ञानी ऐसा कुछ नहीं करता जो उसे पछताने के लिए विवश करे. वह सहज ही मुक्त रहता है क्योंकि वह अपने भीतर के आनंद से तृप्त रहता है.

Monday, November 19, 2012

सजग रहे जो दुःख से छूटे


अक्टूबर २००३ 
हर तरह की वेदना से मुक्ति के उपाय की खोज, बोधि तथा समाधि की प्राप्ति साधक का लक्ष्य है. उपाय की खोज ही बोधि है. चित्त की निर्मलता ही समाधि है. अपनी भूलों पर वेदना होती है तो हमारी सजगता बढ़ती है. दुःख हमें सिखाता है, क्रोध, मोह, प्रमाद, आलस्य हमारे ताप को बढ़ाते हैं. सजगता ही जिसकी एकमात्र औषधि  है. थोड़ी सी भी असावधानी हमें वेदना देती है वही वेदना फिर सजग करती है. वाणी का संयम नहीं सधता तो मुख से कठोर शब्द निकल जाते हैं. जिह्वा का संयम नहीं सधता तो हम अखाद्य भी खा लेते हैं. मन का संयम नहीं रहा तो व्यर्थ का चिंतन चलता रहता है. मन जब खाली हो तो सुमिरन स्वतः होता है जबकि चिंतन बलपूर्वक करना होता है. हमारा हृदय इतना शुद्ध हो कि वहाँ नित्य सुमिरन चलता रहे, यही समाधि है.

Sunday, November 18, 2012

एक पुकार सदा आती है


अक्तूबर २००३ 
हमारे तन का पोर-पोर, मन का हर अणु परमात्मा के नाम से इस तरह ओत-प्रोत हो जाये कि जैसे पात्र पूरा भर जाने पर जल छलकने लगता है वैसे ही उसके नाम का अमृत हमारे अधरों व नेत्रों से स्वतः ही झलकने लगे. हमारा चित्त जब पूर्णतया तृप्त होगा उसके नाम से भरा होगा तो भीतर के पाप-ताप, अशुभ वासनाएं धुल जाएँगी. उसके नाम में अनंत शक्ति है, वह ऐसा जहाज है जो हजारों को पार लगाता है. हमारे भीतर-बाहर उसकी ही सत्ता है. वह हजारों हाथों से हमें सम्भाले है, हमारी बुद्धि को वही तीक्ष्णता देता है, हमारे प्राणों का वही आधार है. वह ईश्वर अनिर्वचनीय है, वह जब हमारे साथ है तो हमें किसी बात का भय नहीं, कोई आशा नहीं, कोई चाह नहीं. वह मौन में भी बोलता है. हमारे भीतर उसी का मौन छाया है जो तृप्ति प्रदान करता है. हम आत्मा के द्वारा ही उसका अनुभव कर सकते हैं, इसके लिए न तो बल चाहिए न ही बुद्धि, हम जिस कार्य को बिना शरीर, मन, बुद्धि आदि की सहायता के कर सकते हैं वह है ध्यान. वही हमें प्रभु से मिलाता है. कार्य करते हुए यदि कर्तापन नहीं रहे तो भी हम शरीर, मन, बुद्धि से परे ही हुए. ऐसा कार्य भी ध्यान बन जाता है. हमारा जीवन सहज भी है और दुष्कर भी, ईश्वर भी ऐसा ही ही है अति निकट भी अति दूर भी. इन द्वंद्वों से भी मुक्त होना है, तब एक सहज शांति का अनुभव होता है, पर हम ही उसे गंवा देते हैं पर कृष्ण हमारा मित्र हमें बार-बार अपनी ओर ले जाने की चेष्टा करता है.

Friday, November 16, 2012

उत्सव कुछ तो कहना चाहे


दीवाली के दीपक अमावस की रात को पूर्णिमा में बदल देते हैं. हमारे भीतर भी अभी अमावस है, और दीपक जलाने हैं, मन की गहराई में प्रकाश ही प्रकाश है वहीं से इन दीपों के लिए ज्योति मिलेगी पर श्रद्धा का तेल पहले विश्वास के दीपक में हमें ही भरना होगा, तब आत्मा की ज्योति उन्हें सहज ही प्रज्ज्वलित कर देगी. फिर तो प्रकाश का महासागर ही नजर आता है. हमारे भीतर भी पूजा घट रही है, नगाड़े बज रहे हैं, मन मंदिर के द्वार अभी बंद हैं, लेकिन रह रह कर दूर से कोई कृष्ण अपनी बांसुरी की धुन सुनाये ही जाता है, भीतर रस का घट है, अमृत कुम्भ! जो विष के डर से कभी निकाला ही नहीं जाता, उत्सव याद दिलाते हैं कि मिष्ठान का जो रस बाहर से लेकर तृप्ति का अनुभव हम करते हैं वह रस भीतर भी मिल सकता है.  

Thursday, November 15, 2012

जीवन पल पल बढ़ता जाये..


हम विचार से घबराते हैं, ऐसे विचारों से जो हमें हमारे भीतर की कमियों को उजागर करते हैं. हम उस दर्पण में देखना नहीं चाहते जो हमें कुरूप दिखलाये तभी कठिन विषयों से भी हम घबराते हैं, जो हम जानते हैं वह सरल है पर उसी को पढ़ते-गुनते रहना ही तो हमें आगे बढने से रोकता है. जब कोई हमें अपमानित करता है तब वह हमारा निकष होता है, प्रभु से प्रार्थना है कि वह उसे हमारे निकट रखे ताकि हम वही न रहते रहें जो हैं बल्कि बेहतर बनें. स्वयं की प्रगति ही जगत की प्रगति का आधार है, हम भी तो इस जगत का ही भाग हैं. हम यानि, देह, मन, बुद्धि, आत्मा तो पूर्ण है उसी को लक्ष्य करके आगे बढ़ना है.  उसी की ओर चलना है चलने की शक्ति भी उसी से लेनी है. आत्मा हमारी निकटतम है हमारी बुद्धि यदि उसका आश्रय ले तो वह उसे सक्षम बनाती है अन्यथा उद्दंड हो जाती है. आत्मा का आश्रित होने से मन भी फलता फूलता है, प्रफ्फुलित मन जब जगत के साथ व्यवहार करता है तो कृपणता नहीं दिखाता समृद्धि फैलाता है. जीवन तब एक शांत जलधारा की तरह आगे बढ़ता जाता है. तटों को हर-भरा करता हुआ, प्यासों की प्यास बुझाता हुआ, शीतलता प्रदान करता हुआ, जीवन स्वयं में एक बेशकीमती उपहार है, उपहार को सहेजना भी तो है.   

Wednesday, November 14, 2012

आखिर कहाँ हमें जाना है


अक्टूबर २००३ 
जिस क्षण कोई अपने सामने पहली दफा खड़ा हो जाता है, आमने-सामने..उसी क्षण वह सत्य को जान जाता है. उस क्षण उसके भीतर संसार से उठने, जगने और कामनाओं से मुक्त होने की क्षमता पूर्ण विकसित हो चुकी होती है. संतों की वाणी सुनकर हमारे भीतर अपनी वास्तविक स्थिति का बोध जगता है. धर्म के मूल में तीन बाते हैं, हम कहाँ से आये हैं, हम कहाँ हैं और कहाँ जाने वाले हैं? इनकी खोज ही हमें धर्म की ओर ले जाती है. हम उसी एक तत्व से आये हैं, उसी में हैं और उसी में लौट जाने वाले हैं. लेकिन लौटने से पूर्व हमें देखना है कि भीतर सुई की नोक के बराबर भी अहम् न बचे, उसका मार्ग बहुत संकरा है, अहम् मिटते ही सारा अस्तित्व हमारी सहायता को आ जाता है, आया ही हुआ है. भीतर से प्रेरणा मिलने लगती है और हम उसकी ओर बढते चले जाते हैं..जहां वह है वहाँ सभी ऐश्वर्य हैं, जगत कृपण है ईश्वर दाता है, वह जानता है हमारे लिए क्या उचित है और क्या नहीं, वह हितैषी है, अकारण दयालु है, वह ही तो है जिसने यह खेल रचा है.

Sunday, November 11, 2012

नई राह पर नया उजाला


हमें अपने भीतर नया दृष्टिकोण जगाना होगा, अभी मात्र आधा किलोमीटर ही चले हैं, अभी बहुत चलना है, अभी तो प्रारम्भ ही हुआ है, कदम अभी तो चलना ही शुरू कर रहे हैं, गति पकड़ना तो अभी शेष है. मन को उस स्तर तक ले जाना होगा कि ऐसा लगे कोई छलांग लगी है. कितनी ही बार हम ऐसा चिंतन करके जीवन को दिशा प्रदान करना चाहते हैं, पर बार-बार ऐसा क्यों लगता है कि हम कहीं पहुंच नहीं पा रहे हैं, या तो हमारी दिशा भटक गयी है या हमारी गति शिथिल हो गयी है. तब हम यह भूल जाते हैं कि भक्ति, ज्ञान या कर्म स्वयं में फलस्वरूप हैं, वे साधन भी हैं और साध्य भी. वे हमें अपने भीतर उजाले का दर्शन कराते हैं. पूर्ण समपर्ण ही भक्ति है, स्वयं को मात्र देह न मानकर चिन्मय तत्व जानना ही ज्ञान है और सहज प्राप्त कार्य को करना ही कर्म है. फिर जाना कहाँ और पाना क्या ? जब कोई अपेक्षा नहीं तो दुःख-सुख का भी प्रश्न नहीं है. हम तब संसार में रहते हुए भी कमल की नाईं संसार से परे रह सकते हैं. सदा सर्वदा अपने सत्य स्वरूप में स्थित. 

Friday, November 9, 2012

उत्तिष्ठतः जाग्रतः प्राप्त वरान्निबोधताः


अक्तूबर २००३ 
कोलकाता स्थित दक्षिणेश्वर में काली मंदिर में काली की भव्य मूर्ति है. मंदिर का प्रांगण भी विशाल है, सामने ही नदी भी है. परमहंस रामकृष्ण इसी मंदिर में माँ काली से वार्तालाप करते थे. बेलूर मठ में उनकी मूर्ति ऐसी जीवंत है, लगता है वह वही हैं, श्रद्दालुओंको आज भी उनकी उपस्थिति का अहसास होता है. स्वामी विवेकानंद की समाधि भी अनुपम है, उनके कमरे को फूलों से सजाया गया है. पूरे आश्रम में एक अनोखी शांति फैली हुई है. माँ शारदा के कई सुंदर चित्र वहाँ हैं. जीता-जागता ईश्वर इस आश्रम में निवास करता था, उसकी उपस्थिति न जाने कितने सौ वर्षों तक हमें प्रेरित करती रहेंगे. ईश्वर इस सृष्टि के कण-कण में है, वही जीवन है, वही मृत्यु भी है. वही द्वंद्वों को बनाता है पर स्वयं उससे पर है, हमने वह अपनी ओर बुलाता है, वह जैसे कोई खेल खेल रहा है. यह जगत जैसे काली माँ की क्रीड़ास्थली है, हम यदि इस खेल को जीतना चाहते हैं तो उसके पास लौटना होगा, और उसका रास्ता सांप-सीढ़ी के खेल की तरह कई उतार-चढ़ाव से भरा है, जब हमें प्रतीत होता है कि मंजिल सामने है तो कोई सांप हमें डस लेता है और हम नीचे उतार दिए जाते हैं, पर भीतर से कोई कहता है उठो, जागो और मुझे प्राप्त करो.

खाली मन में हुआ उजाला


संत राबिया अँधेरे में खोयी अपनी सूई को बाहर प्रकाश में ढूँढती है, लोग हँसते हैं तो वह कहती है “तुम भी तो अपने मन के अँधेरे में जिस सुख को खो चुके हो वहाँ न खोजकर दुनिया की चकाचौंध में उसे ढूँढते हो. मन के अँधेरे को मिटा कर वहाँ प्रकाश करो और वहीं ढूंढो जिसे बाहर ढूँढ रहे हो. स्वयं प्रकाश नहीं मिलता तो सद्गुरु से मांगो.” सद्गुरु हमें भक्ति प्रदान करते हैं, भक्त के कुशल-क्षेम का भार ईश्वर स्वयं उठाते हैं, जब वह संशयों से घिर जाता है, वह उसे भीतर से प्रेरित करते हैं. शरणागत की रक्षा कृष्ण स्वयं करते हैं. हम जिस तरह स्वप्न में तरह-तरह के रूप बना लेते हैं, पर वह वास्तविकता नहीं है, वैसे ही जो यह पल-पल बीत रहा है एक स्वप्न की भांति ही है. इस सत्य का बोध तब हमें होगा जब हम इस सच्चाई को अनुभव में उतारेंगे, अभी तो हमें मानना है तथा जानने का प्रयास करना है. हम जितना अधिक संवेदनशील होंगें उतना ही अधिक गहन हमारा अनुभव होगा. अनवरत प्रयास के बाद हम तीनों अवस्थाओं(जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) के पार हो ही जाते हैं. यदि हमें अपनी आत्मा को उड़ान देनी है तो उसे ग्रहणशील बनाना होगा, जब हमारे मन का प्याला पूरी तरह खाली होगा तभी हमें कृपा का प्रसाद मिलेगा. खाली होकर ही हम पाते हैं.

Wednesday, November 7, 2012

एक तू जो मिला...सारी दुनिया मिली


अक्तूबर २००३ 
संत कहते हैं कि उन्हें और हमें काम ईश्वर से ही होना चाहिए, जगत यदि रूठता है तो रूठने दें. ईश्वर को भुलाकर जगत को प्रसन्न करने में लगे रहे तो वक्त हाथ से निकलता ही जायेगा, सिर पर न जाने कितने-कितने विचारों, मान्यताओं और आकाँक्षाओं का बोझ हम ढोते आ रहे हैं, एक अथाह सागर है हमारा मन. जिसका मंथन करो तो कितना कुछ ऊपर आता है, अमृत की एक बूंद पाने से पहले व्यर्थ का कचरा ही मिलता है. हमें स्वयं ही पता नहीं चलता कि अगले पल मन में कुछ देखकर या सुनकर क्या आने वाला है, कैसी बेहोशी में हम जीते हैं. वातावरण का भी असर होता है और भोजन का भी. ज्ञान ही हमें इससे मुक्त कर सकता है. मन रूपी अश्व की लगाम पकड़ना ही सत्संग है, यदि हम मन रूपी अश्व की पूंछ पकड़ते हैं तो कष्ट सहने पड़ते हैं, अभी हम अश्व की पूंछ पकड़े हुए हैं, संत लगाम पकड़ते हैं, उनका अनुसरण करें तो यात्रा कितनी सहज हो जाती है.

Tuesday, November 6, 2012

वही सम्भाले रहता पल-पल


अक्तूबर २००३ 
हमारे जीवन में जब कोई विपत्ति आती है, उसको सहने की शक्ति केवल भक्ति में ही है. हम अकेले नहीं हैं, अस्तित्व हमारे साथ है, वही हमारे जीवन का रथ हांकता है और हमारा सच्चा सुह्रद है, हितैषी है. विपत्ति हमें हिलाना चाहती है पर कोई हमें सम्भाल लेता है, इसका अनुभव हमें कई बार हुआ है, हर बार उसी ने हमें बचाया है जो हमारी आत्मा है. उसे यदि हम भूल भी जाएँ तो वह हमें अपनी याद दिलाता है, वही विपत्ति से बचाकर पुनः शरण में ले आता है. हर क्षण वह हमारे अपराधों को क्षमा करता है, वह क्षमा करता है क्योंकि वह प्रेम करता है, प्रेम की शक्ति अपार है, वह अपने उदाहरण से हमें भी सिखाता है कि हम भी औरों को क्षमा करें, निर्णय सुनाने का अधिकार हमें नहीं है, यदि ईश्वर हमें निर्णय सुनाने लगे तो हम इस धरा पर रहने के काबिल नहीं हैं, पर वह हमें हजारों बार अवसर देता है धीरे-धीरे जैसे कोई बच्चे को हाथ पकड़ कर चलना सिखाता है वैसे ही वह कान्हा हमें जीना सिखाता है. वह अपने प्रतिनिधि सद्गुरु को हमारे जीवन में भेजता है. उनके सान्निध्य में हम परम के मार्ग पर चलते हैं. वह हमें कितने विभिन्न उपायों से अपने वास्तविक स्वरूप का दर्शन कराते हैं. हमारे मन पर अज्ञान की जो मैल जम गयी है, उसे धोना सिखाते हैं. सच्चे हृदय से जब हम उनकी शरण में जाते हैं तो वह कृपा करके आनंद, शांति, प्रेम तथा ज्ञान का उपहार देते हैं, उनकी कृपा के हम पात्र बनें तो वह लुटाने को तैयार हैं. सद्गुरु का जीवन हमारे सम्मुख ईश्वर का रहस्य खोलकर रख देता है.

Monday, November 5, 2012

एक नाम ही आधारा..


अक्तूबर २००३ 
एक ओंकार सतनाम ! जब चित्त शांत हो उसमें संकल्प-विकल्प की लहरें न उठ रही हों, तब एक-एक मोती को, जो श्वास के मोती हैं, प्रभु के नाम के धागे में पिरोते-पिरोते ध्यान में डूबना है. जाग्रत, सुषुप्ति और स्वप्न हम तीन अवस्थाओं को ही जानते हैं, चौथी का हमें पता नहीं, जो ध्यान में घटती है, और ध्यान तभी घटता है जब मन सुमिरन में डूब जाये. जीवन की घटनाएँ उसे छूकर निकल जाएँ, हिला न सकें. माया के आवरण से ढका जो यह जगत है वह नाम उच्चारण के आगे टिकता नहीं. सहजता, सरलता और संतोष के आधार पर जब जीवन टिका हो तो ज्ञान, प्रेम और शांति की दीवारों को खड़ा किया जा सकता है. नाम के जल से जो भीतरी शुद्धि होती है वह विकारों को टिकने नहीं देती, नाम की आंधी जब भीतर के चिदाकाश में उठती है तो बादल छंट जाते हैं, तब हम जीवन की उस उच्चता को प्राप्त करते हैं जो समता से आती है. कोई भी भौतिक या मानसिक कृपणता तब हमें छू भी नहीं पाती, हम पूर्णकाम हो जाते हैं. सत्य ही नाम का साध्य है और सत्य ही साधन है, हमें पूर्ण सत्यता के साथ ही उसको जपना है. आत्मा का सूरज तब भीतर-बाहर एक सा चमकता है.

Sunday, November 4, 2012

भज गोविन्दम भज गोविन्दम



अक्टूबर २००३ 
आदिगुरु शंकराचार्य कृत ‘विवेक चूड़ामणि’ अद्भुत ग्रन्थ है, अनुपम है, महान है. गुरु और शिष्य के मध्य हुए अद्भुत संवाद के द्वारा वेदांत की शिक्षा प्रदान करने का अनूठा प्रयोग ! षट् सम्पत्ति से युक्त सदाचारी शिष्य ही ब्रह्म ज्ञान पाने का अधिकारी है. जीवन में शम, दम, सदाचार. अहिंसादि गुण हों तभी हम प्रभु का ज्ञान पाने के योग्य हैं. अंतर में भक्ति और श्रद्धा भी अनिवार्य है, पूर्ण शरणागत होकर हम जब ब्रह्म के विषय में जानने का प्रयास करते हैं कि उसका स्वरूप कैसा है, ब्रह्म व आत्मा का क्या सम्बन्ध है, तब सद्गुरु बताते हैं, यह जगत ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, एक ही सत्ता है जो हमें अनेक होकर भासती है. जब ध्यान में हम अपनी आत्मा का साक्षात्कार करेंगे तो यह ज्ञान होगा कि हमारी आत्मा भी निर्लिप्त, चिन्मय और निर्विकार है.  

Friday, November 2, 2012

काली दुर्गे नमो नमः



अक्तूबर २००३ 
माँ काली का रूप भयानक है, उसके पीछे भी एक रहस्य है. यदि उसके प्रति समपर्ण हो तो भय नहीं रहता, क्योंकि एक ही चेतना प्रेम या भय के रूप में प्रकट होती है, जहां प्रेम है वहाँ भय नष्ट हो जाता है. जो काली से प्रेम करेगा वह निर्भय हो ही जायेगा. उसके हाथ में कटा सिर है, अर्थात अहं का नाश करती है. कटे हुए हाथों का अर्थ है कर्मों का कट जाना. काली कृपा का प्रतीक है, वह मौन है, ज्ञान की अनंत शक्ति है, वह शिव के ऊपर स्थित होकर ही शांत होती है. शिव ही शांत मौन चेतना है, उसमें जब ज्ञान शक्ति का उदय होता है तभी वह  मंगलकारिणी होती है. 

Thursday, November 1, 2012

चिन्मय को पहचानें भीतर


अक्टूबर २००३ 
दुःख का कारण है, कारण को दूर किया जा सकता है, श्रवण करके संतों के वचनों का सार तत्व ग्रहण करना है, तभी हमारे जीवन में परिवर्तन होगा. यह तो सभी का अनुभव है कि जीवन में समस्याएँ आती हैं, रोग है, शोक है, पीड़ा है हमारे चारों और अन्याय है, भ्रष्टाचार है, हमारा मन ही जो निकटतम है, एक दिन में न जाने कितनी बार क्षोभ का शिकार होता है, चाहे क्षण भर के लिए ही सही, कभी लोभ का, मोह का शिकार भी होता है. शारीरिक कष्ट हमें सताता है, अनचाहा भी होता है और यह भी सही है कि सुख का अनुभव भी होता है, कभी कभी शांति व आनंद का अनुभव भी होता है पर वह टिकता नहीं. कोई न कोई लहर आकर उसे बहा ले जाती है. संतो का अनुभव हमारा अनुभव नहीं बन पाता. उनके वचनों का हम पूरी तरह पालन नहीं कर पाते, पर ऐसा तभी होता है जब हम अपने सत्यस्वरूप को भुला देते हैं, ज्ञान की उस ऊंचाई से नीचे गिर जाते हैं, समता में स्थित नहीं रह पाते, स्वयं को पल-पल बदलने वाला मृण्मय शरीर मान लेते हैं. हम चिन्मय आत्मा हैं, इस सच्चाई को नकारते ही हम नीचे फिसलने लगते हैं, सुख-दुःख के शिकार भी तभी होते हैं. ज्ञान ही हमें मुक्त करता है, तब जगत के सारे व्यापार पूर्ववत होते हुए भी असर नहीं डालते, क्योंकि वे क्षणिक हैं.