दीवाली के दीपक अमावस की रात को पूर्णिमा में बदल देते हैं. हमारे भीतर भी अभी अमावस
है, और दीपक जलाने हैं, मन की गहराई में प्रकाश ही प्रकाश है वहीं से इन दीपों के
लिए ज्योति मिलेगी पर श्रद्धा का तेल पहले विश्वास के दीपक में हमें ही भरना होगा,
तब आत्मा की ज्योति उन्हें सहज ही प्रज्ज्वलित कर देगी. फिर तो प्रकाश का महासागर
ही नजर आता है. हमारे भीतर भी पूजा घट रही है, नगाड़े बज रहे हैं, मन मंदिर के द्वार
अभी बंद हैं, लेकिन रह रह कर दूर से कोई कृष्ण अपनी बांसुरी की धुन सुनाये ही जाता
है, भीतर रस का घट है, अमृत कुम्भ! जो विष के डर से कभी निकाला ही नहीं जाता, उत्सव
याद दिलाते हैं कि मिष्ठान का जो रस बाहर से लेकर तृप्ति का अनुभव हम करते हैं वह
रस भीतर भी मिल सकता है.
दीवाली के दीपक अमावस की रात को पूर्णिमा में बदल देते हैं.
ReplyDeleteBAHUT HI SUNDAR KATHAN
रमाकांत जी, स्वागत है आपका ..आभार!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर देर से आने की माफ़ी।
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