एक बार एक व्यक्ति किसी संत के पास गया और दुख से मुक्ति का मार्ग पूछा। संत ने कहा, ध्यान, उसने कहा कुछ और कहें, संत ने दो बार और कहा, ध्यान ! ध्यान ! जब हम स्कूल में पढ़ते थे, अध्यापक गण हर घंटे में कहते थे, ध्यान दो, ध्यान से पढ़ो।घर पर माँ बच्चे को कोई समान लाने को कहे तो पहले कहेगी, ध्यान से पकड़ो। सड़क पर यदि कोई ड्राइवर गाड़ी ठीक से न चलाये, तो कहेंगे, उसका ध्यान भटक गया। इसका अर्थ हुआ ध्यान में ही सब प्रश्नों का हल छिपा है।ध्यान हमारी बुद्धि की सजगता की निशानी है। जब बुद्धि सजग हो तो भूल नहीं होती। इसी तरह जब मन ध्यानस्थ होता है तो सहज स्वाभाविक प्रसन्नता तथा उजास चेहरे पर स्वयमेव छाये रहते हैं, उनके लिए प्रयास नहीं करना पड़ता. मन से सभी के लिए सद्-भावनाएँ उपजती हैं. यह दुनिया तब पहेली नहीं लगती न ही कोई भय रहता है. ध्यान से उत्पन्न शांति सामर्थ्य जगाती है और सारे कार्य थोड़े से ही प्रयास से होने लगते हैं. कर्त्तव्य पालन यदि समुचित हो तो अंतर्मन में एक अनिवर्चनीय अनुभूति होती है, ऐसा सुख जो निर्झर की तरह अंतर्मन की धरती से अपने आप फूटता है, सभी कुछ भिगोता जाता है, जीवन एक सहज सी क्रिया बन जाता है कहीं कोई संशय नहीं रह जाता.
Wednesday, March 13, 2024
Friday, March 8, 2024
शुभता को मन करे वरण
संतजन कहते हैं, जो अपने लिये सत्यं, शिवं और सुन्दरं के अलावा कुछ नहीं चाहता, प्रकृति भी उसके लिये अपने नियम बदलने को तैयार हो जाती है. जो अपने ‘स्व’ का विस्तार करता जाता है, जैसे-जैसे अपने निहित स्वार्थ को त्यागता जाता है, वैसे-वैसे उसका सामर्थ्य बढ़ता जाता है. अस्तित्त्व पर निर्भर रहें तो कोई फ़िक्र वैसे भी नहीं रह जाती क्योंकि वह हर क्षण हमारे कुशल-क्षेम का भार वहन करता है. जैसे एक नन्हा बालक अपनी सुरक्षा के लिये माँ पर निर्भर करता है, हमारे सभी कार्य यदि हम उस पर निर्भर रहते हुए करेंगे तो उनके परिणाम से बंधेंगे नहीं. हम जो भी करें उसका हेतु सत्य प्राप्ति हो तो सामान्य कार्य भी भक्ति ही बन जाते हैं. एक मात्र ईश्वर ही हमारे प्रेम का केन्द्र हो, जो कहना है उसे ही कहें. अन्यों से प्रेम हो भी तो उसी के प्रति प्रेम का प्रतिबिम्ब हो. परमात्मा की कृपा जब हम पर बरसती है तो अपने ही अंतर से बयार बहती है. तब अंतर में तितलियाँ उड़ान भरती हैं. अंतर की खुशी बेसाख्ता बाहर छलकती है. ऐसा प्रेम अपनी सुगन्धि अपने आप बिखेरता है. दुनिया का सौंदर्य जब उसके सौंदर्य के आगे फीका पड़ने लगे, उस “सत्यं शिवं सुन्दरं” की आकांक्षा इतनी बलवती हो जाये, उसके स्वागत के लिए तैयारी अच्छी हो तो उसे आना ही पडेगा. अंतर की भूमि इतनी पावन हो कि वह उस पर अपने कदम रखे बिना रह ही न पाए. रामरस के बिना हृदय की तृष्णा नहीं मिटती. परम प्रेम हमारा स्वाभाविक गुण है, उससे च्युत होकर हम संसार में आसक्त होते हैं. कृष्ण का सौंदर्य, शिव की सौम्यता, और राम का रस जिसे मिला हो वही धनवान है. जिस प्रकार धरती में सभी फल, फूल व वनस्पतियों का रस, गंध व रूप छिपा है वैसे ही उस परमात्मा में सभी सदगुण, प्रेम, बल, ओज, आनंद व ज्ञान छिपा है, संसार में जो कुछ भी शुभ है वह उस में है तो यदि हम स्वयं को उससे जोड़ते हैं, प्रेम का संबंध बनाते हैं तो वह हमें इस शुभ से मालामाल कर देता है, दुःख हमसे स्वयं ही दूर भागता है, मन स्थिर होता है. धीरे धीरे हृदय समाधिस्थ होता है. एक बार उसकी ओर यात्रा शुरू कर दी हो तो पीछे लौटना नहीं होता...दिव्य आनंद हमारे साथ होता है और तब यह जीवन एक उत्सव बन जाता है.
Saturday, March 2, 2024
पावन हो हर कर्म हमारा
हम देखते हैं कि व्यवहार क्षेत्र में पहले मन में विचार या भाव जगता है फिर क्रिया होती है; पर अध्यात्म क्षेत्र में यदि पहले कोई भी पवित्र क्रिया की जाये तो भाव अपने आप पवित्र होने लगते हैं. श्रवण या पठन क्रिया है पर श्रवण के बाद मनन फिर निदिध्यासन होता है. इंद्रदेव हाथ के देवता हैं, सो हमारे कर्म पवित्र हों जो भाव को शुद्ध करें. मुख के देव अग्नि हैं, अतः वाणी भी शुभ हो. मानव तन एक वेदिका के समान है जिसमें प्राण अग्नि बनकर प्रज्ज्वलित हो रहे हैं।प्राणाग्नि बनी रहे इसलिए प्राणों को हम भोजन की आहुति देते हैं. देह रूपी वेदी दर्शनीय रहे, पवित्र रहे इसलिए सात्विक आहार ही लेना उचित है. मन का समता में ठहरना अर्थात अतियों का निवारण ही योग है. ऐसा योग साधने से मन प्रसन्न रहता है और भीतर ऐसा प्रेम प्रकटता है जो शरण में ले जाता है. शरणागति से बढ़कर मुक्ति का कोई दूसरा साधन नहीं है।