हम देखते हैं कि व्यवहार क्षेत्र में पहले मन में विचार या भाव जगता है फिर क्रिया होती है; पर अध्यात्म क्षेत्र में यदि पहले कोई भी पवित्र क्रिया की जाये तो भाव अपने आप पवित्र होने लगते हैं. श्रवण या पठन क्रिया है पर श्रवण के बाद मनन फिर निदिध्यासन होता है. इंद्रदेव हाथ के देवता हैं, सो हमारे कर्म पवित्र हों जो भाव को शुद्ध करें. मुख के देव अग्नि हैं, अतः वाणी भी शुभ हो. मानव तन एक वेदिका के समान है जिसमें प्राण अग्नि बनकर प्रज्ज्वलित हो रहे हैं।प्राणाग्नि बनी रहे इसलिए प्राणों को हम भोजन की आहुति देते हैं. देह रूपी वेदी दर्शनीय रहे, पवित्र रहे इसलिए सात्विक आहार ही लेना उचित है. मन का समता में ठहरना अर्थात अतियों का निवारण ही योग है. ऐसा योग साधने से मन प्रसन्न रहता है और भीतर ऐसा प्रेम प्रकटता है जो शरण में ले जाता है. शरणागति से बढ़कर मुक्ति का कोई दूसरा साधन नहीं है।
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