प्रेम प्रदर्शन की वस्तु नहीं, यह तो दिल में सम्भाल कर रखने जैसा क़ीमती रत्न है। प्रेम पूँजी है। प्रेम एक बीज की तरह है जिसे कोमल भावनाओं से सिंचित मन की भूमि चाहिए, जिसमें क्रोध, ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा या स्वार्थ के खर-पतवार न उगे हों। जहाँ भक्ति की शीतल पवन बहती हो और ज्ञान का सूरज भी अपनी किरणें बिखेरता हो। ऐसे मन में ही प्रेम का वृक्ष पनपता है जो स्वयं को और अपने इर्द गिर्द अन्यों को भी छाया देता है। हम प्रेम को पाकर इतराते हैं और उसे ही अभिमान में बदल देते हैं तो वह बीज सूखने लगता है। प्रेम ऐसा कोमल है जो भाषा की रुक्षता भी सह नहीं पाता, जो ओस की बूँद की तरह नाज़ुक है जो द्वेष की हल्की सी रेखा से भी मलिन हो जाता है। इस अनमोल वरदान को जो हमें जन्म से ही मिलता है, जगत की आपाधापी में गँवा न दें। मिथ्या कठोरता का आवरण ओढ़कर हम उसे बचाए रख सकते हैं, ऐसा हम सोचते हैं पर वह किसी के काम नहीं आएगा। पहले पश्चाताप के आंसुओं में उस आवरण को गलाना होगा,पत्थर जैसे हो गए हृदय को पिघलना होगा फिर उसमें अंकुर फूटेगा जो प्रेम की अनेक शाखा प्रशाखाओं को जन्म देगा जो हमें जीवन की धूप से बचाएँगी तथा औरों को भी विश्रांति देंगी।
Monday, June 27, 2022
Wednesday, June 22, 2022
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत
इस जगत में जो कुछ भी त्रुटिपूर्ण होता है वह किसी न किसी चाहत के कारण है। स्वयं को पूर्ण करने की चाहत के कारण ही सभी किसी न किसी कर्म में रत हैं, चाहे उनका परिणाम कितना ही विपरीत क्यों न हो। किंतु जो पूर्ण है और स्वयं को अपूर्ण मान रहा है, वह कितना भी कर ले, पूर्णता का अनुभव तब तक नहीं करेगा जब तक अपनी भूल का अहसास न कर ले; स्वयं को पूर्ण स्वीकार न कर ले, अपने अनुभव के स्तर पर जान ले कि वह पहले से ही पूर्ण है। अभाव का अनुभव ही संसार है, तृप्ति का अनुभव ही सन्यास ! पीड़ा का अनुभव ही विरह है और आनंद का अनुभव ही योग ! परमात्मा पूर्ण था, पूर्ण है और पूर्ण रहेगा। उसमें जीवों के कल्याण के लिए सृष्टि का संकल्प जगा। हम सुबह उठकर यह संकल्प जगाते हैं कि हमें आज क्या पाना है ताकि हम थोड़ा सा और पूर्ण हो सकें पर वास्तव में हमारी हर इच्छा अपूर्णता की पीड़ा से उपजी है। हमें भी संकल्प उठाने आ जाएँ कि सबका कल्याण हो, सब सुखी हों। हमें अपनी पूर्णता का भास हो, हम सत्य का साक्षात्कार करें। ऋषियों की वाणी हमें जगाने के लिए आयी है।उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।जब मन में अपने लिए कोई कामना ना रहे और जगत का हित कैसे हो यह भावना जगे तो परमात्मा भीतर से स्वयं ही पूर्णता का अनुभव कराता है।
Friday, June 17, 2022
निजता का जब फूल खिलेगा
हमें अपनी निजता को खोजना है, यह अहंकार नहीं है, अस्मिता है, अपने भीतर एक केंद्र को खोजना है जो बाहरी किसी भी प्रभाव से अछूता रहता है। यह एक चट्टान की तरह कठोर है। जिस पर धूप, पानी, अग्नि और हवाएं भी अपना प्रभाव नहीं डालतीं और उस फूल की तरह कोमल भी जो अपनी सुगंध और रूप से सभी का मन मोह लेता है. यह अपना होनापन किसी के विरुद्ध नहीं है, यह मानव होने की पहचान है. यह विवेक की उस अग्नि में तपकर मिलती है जो नित्य और अनित्य का भेद करके व्यर्थ को जला देती है और ऐसा कुछ शेष रह जाता है जो कभी जल ही नहीं सकता, यह उस भरोसे से पैदा होता है जिसके सामने सारा ब्रह्मांड भी खड़ा हो जाए तो वह टूटता नहीं। जो श्रद्धा छोटी-छोटी बात पर खंडित होती हो वह निजता तक नहीं ले जा सकती। जब इस जगत में कुछ भी पाया जाने जैसा न लगे और साथ ही हर वस्तु अनमोल भी प्रतीत हो क्योंकि वह उसी एक स्रोत से उपजी है, तब जानना चाहिए कि भीतर निजता का फूल खिला है। अब जगत एक क्रीड़ास्थली बन जाता है जहाँ अन्य लोग मात्र खिलाड़ी हैं और खेल में तो हार-जीत होती ही रहती है।सुख की चाह तब बाँधती नहीं क्योंकि सुख हमारा स्वभाव है यह ज्ञान हो जाता है।
Sunday, June 5, 2022
पर्यावरण दिवस पर शुभकामनाएँ
आज पर्यावरण दिवस है, हवा दूषित है, कहीं बारिश होती है तो होती ही चली जाती है, कहीं मानसून झलक दिखा कर चला जाता है। कहीं बाढ़ से लोग परेशान हैं तो कहीं सूखे से। वैज्ञानिक कहते हैं, ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है, सूरज की हानिकारक किरणें भी धरती पर आ रही हैं। धरती का हाल तो और भी दयनीय है, गंदगी, रासायनिक खाद, कीटनाशकों ने भूमि की गुणवत्ता समाप्त कर दी है। सब्ज़ियों में स्वाद नहीं आता, आए भी तो कैसे, इंजेक्शन लगाकर सब्ज़ियों का आकार बड़ा किया जाता है। दवाइयाँ डालकर फल उगाए जाते हैं। चाय जो लोग बड़े भरोसे से सुबह-शाम पीते रहते हैं, उसके बाग़ानों में सबसे ज़्यादा विषैले कीटनाशकों का छिड़काव होता है। नदी किनारे उगने वाले शाक भी सुरक्षित नहीं, नदियाँ अब बहुत मैल धो चुकीं, अब उनकी क्षमता से बाहर हो गया है। इतना सब होने के बाद भी प्रकृति ने अपना रूप-सौंदर्य खोया नहीं है, क्योंकि उसके पास स्वीकार भाव है, वह मानवों से अपने प्रति हो रहे दुर्व्यवहार के प्रति शिकायत नहीं करती। अब मानव को चाहिए कि यदि उसे भी सहज शांत रहना सीखना है तो प्रकृति के निकट जाना होगा, विकास के नाम पर, अधिक से अधिक धन कमाने की लालसा में उसका अति दोहन नहीं करना होगा; तभी दोनों के मध्य संतुलन सधेगा और हर ऋतु अपने समय पर आएगी। फलों की मिठास लौट आएगी और हवा की सुगंध भी। पर्यावरण दिवस पर हमें प्रकृति के साथ अपने रिश्ते को और सुदृढ़ बनाना होगा।