Saturday, August 31, 2013

सहज घटे सो ही सच्चा

फरवरी २००५ 
यदि अध्यात्म का समग्र रूप हमें देखना हो तो उसमें नैतिकता, ध्यान, जीवन जीने की कला सभी कुछ आ जाते हैं. हम आध्यात्मिक हैं या नहीं इसका पता हमारे आचरण से लगता है, सच्चाई, ईमानदारी, सादा जीवन और ईश्वर पर अखंड विश्वास ये सभी हों तो हम ध्यान में प्रवेश पाते हैं. ध्यान मन के पूर्व संस्कारों को मिटाता है. जो विचार पहले कष्ट देते थे अब उनका असर नहीं होता, जो वस्तुएं पहले आकर्षक लगती थीं अब उनका कोई महत्व नहीं रह जाता, मन खाली हो जाता है तो उसमें प्रेम और शांति के फूल लगते हैं, सहज प्रसन्नता जीवन का अंग बन जाती है. मन की ख़ुशी किसी बाहरी वस्तु पर आधारित न होकर अपने ही कारण से होती है. तब यह किया, यह करना है जैसे विचार भी नहीं सताते, जो भी करना हो वह  अपने आप सहज भाव से होता है. बिना किसी प्रयास के किया गया कार्य भार नहीं होता. तब शास्त्रों के वचन सत्य घटित होते लगते हैं. परमात्मा के साथ एक्य का अनुभव होने लगता है. उन क्षणों में ही हम पूर्ण अध्यात्मिक होते हैं.

Thursday, August 29, 2013

हद, बेहद दोनों टपे

जनवरी २००५ 
हद टपे सो औलिया, बेहद टपे सो पीर
हद, बेहद दोनों टपे, ताको कहे फकीर

जैसे सोना आग में जाकर तपता है तो उसकी चमक बढ़ जाती है वैसे ही मन को जब साधना में तपाते हैं तो हम उस मूल तक पहुंच जाते हैं जिसे वेदों में गाया गया है. जिसे नेति-नेति कहकर अवर्णनीय कहा गया है. जो इस जगत का आधार है, इसे बनाता है, पालता है और नष्ट करता है. जो सत्य है, शिव है, सुंदर है. जो नित्य है, प्रेम है, आनन्द है. जो जानने योग्य है , पाने योग्य है. हमारे मन का भी वही मूल है. विचारों और भावों के रूप में मन की कई शाखायें हैं, उन पर कामनाओं के फल लगे हैं, हम ज्यादातर इन फलों में ही उलझे रहते हैं, कभी–कभी तने तक पहुंच जाते हैं, पर मूल तक पहुंचने के लिए हमें मनके पार जाना होगा. ध्यान तथा समाधि में हमें उस मूल की झलक मिलती है. और जिसने एक बार शांति रूपी गंगा जल पा लिए वह नाले के पानी का क्या करेगा, हीरा पाकर कोई कांच का टुकड़ा क्यों लेगा ? वह तो औरों को भी आनन्द रूपी हीरे को पाने के लिए प्रेरित करेगा.

Tuesday, August 27, 2013

ज्ञान वही जो आये अनुभव में

जनवरी २००५ 
देह में प्रतिक्षण संवेदनाएं हो रही हैं, जैसे अहंकार जगते ही मन स्थिर नहीं रहता, अहंकार को चोट लगने पर तो और भी अस्थिर हो जाता है, तो देह में भी इसका भास होता है. मन में कोई भी उत्तेजना जगे तो तन संवेदनाएं जगाने लगता है. मन सुखद संवेदनाओं को तो चाहता है, जो आकर कुछ देर बाद अपने आप चली जाती हैं, पर दुखद को नहीं, उनका विरोध करता है, विरोध करते ही और दुखद संवेदनाएं आ जाती हैं. एक श्रंखला ही बनने लगती है, यदि हम इन्हें सजग होकर देखें तो धीरे-धीरे खत्म होने लगती हैं. वास्तव में प्रतिक्रिया जगाने वला मन ही सुख-दुख का भागी होता है. यदि भीतर केवल साक्षी रहे तो बड़ी से बड़ी बात भी कोई दुःख नहीं दे सकती. यह अनुभव की बात है. धीरे धीरे हमें इसे अनुभव में उतारना होगा और फिर यह स्वभाव का अंग बन जायेगा. 

Monday, August 26, 2013

चलें मूल की ओर

जनवरी २००५ 
हमें चिंता से चिन्तन की ओर जाना है, चिंता नश्वर की होती है, चिन्तन शाश्वत का होता है. अपने भीतर छिपे उस तत्व को प्रकट करना है. देह जड़ है, मन, बुद्धि भी जड़ है जड़ का चिन्तन हमें जड़ बना देता है, संवेदनशीलता खो जाती है, बुराई के प्रति हम आँख मूंद लेते हैं. चेतन का चिन्तन सदा प्रकाश से भर देता है, आगे बढ़ने की एक ललक, एक प्यास, एक तड़प, एक अग्नि भीतर जलती रहती है. उसी के प्रकाश से फिर जड़ भी दिव्यता को प्राप्त हो जाता है. मन भावों को जन्म देता है, भीतर एक गीलापन उगता है, जो हमें अपने मूल स्वभाव की ओर ले जाता है. 

Thursday, August 22, 2013

स्वयं को खो क्या जग का पाना

जनवरी २००५ 
हम भगवान को तो मानते हैं पर भगवान ‘की’ नहीं मानते, यदि हम key को भी अपना लें तो जीवन की कई गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं. हम जितना-जितना बाहर सुख खोजते हैं, उतना उतना सत्य से दूर होते जाते हैं. तब मानव अपने स्वार्थ के लिए वस्तुओं को ही नहीं व्रतों, नियमों यहाँ तक की नीतियों में भी परिवर्तन कर लेते हैं. क्षणिक सुख के पीछे लालायित होकर अपने को नीचे गिराने में भी आज कोई शर्म की बात नहीं समझता. लोग रिश्वत लेने को तो फिर भी बुरा मानते हैं पर रिश्वत देने को नहीं. आज भ्रष्ट आचरण को सामान्य जीवन का अंग मान लिया गया है, क्योंकि समाज के उच्च कहे जाने लोग ही इसे अपनाते हैं. अपनी इच्छा को ही सर्वोपरि  मानने वाला समाज नीति, कानून तथा धर्म की परवाह करना ही छोड़ देता है.




Wednesday, August 21, 2013

अभय हुये जो बनें अहिंसक

जनवरी २०१३ 
भय और हिंसा समानार्थी शब्द हैं, अभय और अहिंसा का एक ही अर्थ है. यदि हमें रोग, बुढ़ापे तथा मृत्यु का भय है तो हम हिंसक हैं, किसी भी प्रकार का तनाव हिंसा ही है, यदि हम मन को समत्व भाव स्थित नहीं रख पाते, अनुकूल परिस्थिति में प्रसन्न तथा प्रतिकूल परिस्थिति में दुखी हो जाते हैं तो भी हम हिंसा में विश्वास रखते हैं. अहिंसा का पालन करने वाला कभी भयभीत नहीं होता. पूर्णता में जीना और पूर्णता में मरना उसके लिए सहज होता है.

Monday, August 19, 2013

घट घट में है राम

जनवरी २००५ 
कोऽहम् ? कुतोऽह्म् ? किम् इदम् च विश्वम् ? ऐसे प्रश्नों के उत्तर जानने हों तो हमें गुरु, शास्त्र या परमात्मा की शरण में जाना होगा..तभी ज्ञान होता है अपने सही स्वरूप का, अपने सहज मुक्त स्वभाव से हमारा परिचय होता है, अपने मूल को हम जानते हैं. पता चलता है, हम कहीं से आये नहीं है, नित्य हैं, जगत ही हममें आता जाता है. यह जगत त्रिगुणात्मक है, जिस तरह सूर्य का प्रतिबिम्ब जल से भरे घट में दिखाई देता है, वैसे ही देह रूपी घट में मन, बुद्धि रूपी जल में उस चैतन्य का प्रतिबिम्ब दिखायी देता है, जैसे सूर्य, घट, जल या प्रतिबिम्ब से पृथक है वैसे ही चैतन्य, देह, मन, बुद्धि  से भिन्न है. हम वही चैतन्य हैं, न जाने कितने जन्मों  में कितने देह रूपी घट हमने धारण किये हैं, और कितना मन रूपी जल उसमें भरा है, कितनी बार घट फूटा, पर सूर्य का प्रतिबिम्ब कभी नहीं बदला. यह ज्ञान होते ही हम अभय को प्राप्त होते हैं क्योंकि मृत्यु का भय चला जाता है.  



Friday, August 16, 2013

इक राह मिले तुझ तक

जनवरी २००५ 
सुखमयी स्थिति हो और हम स्वयं को उसमें न फंसायें, दुखमयी स्थिति हो और हम उसमें  स्वयं को न उलझाएँ, यही साधना है. दोनों ही स्थितियों में हम साक्षी भाव में रहें तो मन की समता बनी रहेगी अन्यथा मन की उर्जा व्यर्थ ही नष्ट होगी क्योकि न सुख टिकने वाला है न दुःख ही. प्रतिक्षण इस संसार में हजारों जन्म लेते है औए हजारों मरते हैं, कीट-पतंगों से लेकर मानव तक में चैतन्य है, मानव इस बात को जान सकता है और सदा के लिए सुख-दुःख के पार हो सकता है. परमात्मा का यह खेल रचा हुआ है जो ज्ञान के साथ इसे खेलते हैं वे मुक्त कहलाते हैं अन्यथा बंधन में पड़ा मनुष्य अपने को दुखी बनाता है. भीतर के आनन्द के स्रोत से वह वंचित ही रह जाता है. मन की धारा जब भीतर की ओर बहती है तब वह  राह मिलती है जो उस तक ले जाती है.


Thursday, August 15, 2013

कर्त्तव्य निभाना है

जनवरी २००५ 
कर्म हमें बंधन में डालते हैं, पर कर्म हम करते ही क्यों हैं ? साधक तो इस बात के लिए सजग रहता है कि उसके नये कर्म न बनें, वह तो ध्यान के द्वारा पुराने कर्मों को काट रहा है. मोह, स्वार्थ, स्वभाव तथा कर्त्तव्य चार कारणों से हम कर्म करते हैं. प्रथम तीन हमें बांधते हैं, पर चौथा सहज भाव से किया गया कर्म हमें बांधता नहीं, मोह अथवा स्वार्थ में पड़कर हम अकर्म कर डालते हैं. स्वभाव वश कर्म करने से हानिकारक कर्म भी हो जाते हैं. कर्त्तव्य कर्म करने नहीं होते सहज ही होते हैं, उनका होना ही उनकी शक्ति है, जब हमें कर्त्तव्य कर्मों का ज्ञान होगा तब सप्रयत्न कुछ नहीं करना होगा, हमारा होना ही पर्याप्त होगा जैसे इस दुनिया के सभी कार्य सहज रूप से अपने आप ही हो रहे हैं.


Tuesday, August 13, 2013

जागे जागे रहना है

दिसम्बर २०१३ 
हम रात्रि को ही स्वप्न नहीं देखते, दिन में भी एक विचार धारा जो भीतर निरंतर चलती रहती है, हमारी स्वप्नावस्था का ही एक रूप है, हमारे अनजाने में ही जो विचार विचरण करते है वही तो रात्रि में दृश्यों के रूप में दिखने लगते हैं. यदि हमें अपने भीतर स्थित पवित्र चैतन्य का बोध सदा बना रहे तो हम भीतर अखंड मौन का अनुभव कर सकते हैं. हम उससे बचे तभी तक रह सकते हैं जब तक सोये हैं. हमारे भीतर जो चेतना है, वह सहज है, वह है ही, उसे होना ही है, न उससे कुछ बढ़कर है न उससे कुछ कम है, सारे भेद ऊपरी हैं, भीतर एक ही तत्व है, वही परम सत्य है.


Monday, August 12, 2013

सुख सपना दुःख बुलबुला

दिसम्बर २००४ 
हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है, स्वयं को दुःख से मुक्त रखना. मन में क्रोध, अशांति, तनाव, द्वंद्व, उद्ग्व्निता तथा चिंता यदि न रहे तब जो शेष बचेगा वह परमात्मा है. हम अभी तक उससे अछूते बचे हैं, तो इसका एकमात्र कारण है हमारे मन की हिंसात्मक प्रवृत्ति. हम स्वीकारना नहीं चाहते, शरण में नहीं जाते तभी विरोध का भाव पनपता है. पूर्वाग्रह से ग्रस्त हमारा मन बहुत शीघ्र दुःख का भागी बन जाता है. भय भी तभी होता है, जब तक भय मन में रहेगा, हम प्रेम का अनुभव कैसे कर सकते हैं. ईश्वर प्रेम है, उसकी उपस्थिति तो हर क्षण है एक पर्दा हमें उससे दूर किये है और वह पर्दा है नकारात्मक सोच से उत्पन्न अहंकार. जो वास्तव में है नहीं पर व्यर्थ कल्पनाओं से इसे ठोस रूप हमने ही दिया है. मन में ही इसका नाश करने की योग्यता है. फिर भी यदि प्रारब्ध वश कोई दुःख हमारे जीवन में हो तो वह जाने के लिए ही आया है, ऐसा जानकर उसे साक्षी भाव से देखना होगा. हम दुःख में सीखते हैं और सुख में उस सीखे हुए के अनुसार जीते हैं, पर हमारा लक्ष्य तो इन दोनों के परे आत्मभाव में स्थित होकर आनन्द को प्राप्त होना है.


व्यर्थ न जाये इक पल भी

दिसम्बर २००४ 
मस्त रहेंगे यदि स्वस्थ रहेंगे, स्वस्थ रहेंगे यदि चुस्त रहेंगे, चुस्त रहेंगे यदि व्यस्त रहेंगे....तो सर्वप्रथम हमें व्यस्त रहना है, जो भी कार्य हमें मिला है उसे पूरा मन लगाकर करना ही व्यस्तता है. एक क्षण भी यदि हम खाली न बैठें तो रोग हमारे पास फटक भी नहीं सकता. लेकिन वह व्यस्तता आनंदपूर्ण होनी चाहिए. यदि कार्य हम विवशता वश करते हैं तो वह रोग को बुलाना ही है. मन यदि आनन्द से पूर्ण है तो सारे काम सहज ही होते हैं. करुणा, मुदिता, उपेक्षा और मैत्री ये चारों यदि मन में हैं तो आनन्द कहीं जा ही नहीं सकता. वैसे भी वह कहीं जाता नहीं है बस किसी न किसी विकार से ढक जाता है.


Saturday, August 10, 2013

एक पुकार जगे जब भीतर

दिसम्बर २००४ 
हमारा जीवन ऊपर से चाहे जितना छोटा अथवा सामान्य दिखाई देता हो वह भीतर से है अत्यंत विशाल, अनंत और असाधारण. वह उस परम शक्ति का ही विस्तार है और इसके भीतर अनंत सम्भावनाएं छिपी हैं. प्रकृति के सारे रहस्य हमारे ही मन में छिपे हैं, जब हम अन्तर्मुखी होते हैं तो एक विशाल दुनिया का दरवाजा खुल जाता है. वह दुनिया जो बाहर की दुनिया से अलग है पर उसके विरोध में नहीं. भीतर जो सच है वह किसी का विरोधी हो ही नहीं सकता वह परम प्रेम से उपजा है, वह शांति की सन्तान है और शांति का ही जनक है. वह सत्य हमें मुक्त करता है. शुभ-अशुभ सारे संस्कारों से परे ले जाता है. वह बाहरी जीवन को भी एक दिशा प्रदान करता है, वह सत्य रसपूर्ण है, आनन्द की वर्षा करता है. सृजन के क्षणों को जन्म देता है, वह तृप्ति भी प्रदान करता है और प्यास भी बनाये रखता है. वह विरह की पीड़ा भी है और मिलन का उल्लास भी, वह जीवन को अर्थ प्रदान करता है. जब हम सत्य के निकट होते है, होते जाते हैं, अथवा होना चाहते हैं तो सत्य भी हमारे निकट आना चाहता है, वह स्वयं को उसी अनुपात में प्रकट कर देता है जिस अनुपात में हमारी चाहना होती है. जब हम असत्य के पुजारी बने रहते हैं तो हमारी पुकार अनसुनी भी हो सकती है, पर सत्य के पुजारी की निःशब्द पुकार भी व्यर्थ नहीं जाती, हम चाहे मौन रहें अथवा मुखर होकर पुकारें, सत्य तक हमारी आवाज तत्क्षण  पहुंचती है और हम उतना ही उसकी निकटता का अनुभव करते हैं.



क्षुद्र हटे समाधि घटे

 दिसम्बर २००४ 
“लोकोआनंदः समाधिसुखं” जगत का सारा सुख समाधि के सुख का ही अंश है, जहाँ कहीं भी हमें सुख मिलता है, वह उसी समाधि के सुख की झलक मात्र है, हमारा मन पल भर को भी जहाँ ठहर जाता है, अनंत का सुख बरसने लगता है, समाधि सुख कहीं बाहर से लाना नहीं है, वह तो भीतर ही है, बस उसे जगने का अवसर देना है. समाधि में बैठा व्यक्ति वातावरण को भी सुख से भर रहा होता है. वह जो स्वयं तृप्त है वही दूसरों की प्यास बुझा सकता है. सद्गुरु की कृपा यदि किसी के जीवन में घटित हो जाये तो एक क्रांति उसके जीवन में होनी निश्चित है. वह तब सीमाओं से परे चले जाता है, वर्तमान को प्राप्त होता है, क्षुद्रता को त्याग देने से अनंत की शक्तियाँ उसकी सहयोगी बन जाती हैं, वह परम में विहार करने लगता है.


Thursday, August 8, 2013

विस्मय से भर जाये मन यह

दिसम्बर २००४ 
विचित्र है यह जगत, अद्भुत है इसका सौन्दर्य, ऊपर नीला विस्तीर्ण गगन, नीचे यह पावन माँ जैसी धरा, उस पर सूर्य रश्मियों से बिखरे हजारों रंग, अनोखी ध्वनियाँ, और इन सबसे बढ़कर साधक के भीतर होने वाली अनुभूतियाँ...जिसकी झलक जिसे मिलती है वह कृतज्ञता से भर जाता है. सारे कर्मों, सारे ज्ञान का जहाँ अंत हो जाता है वहाँ उस प्रेम का उदय होता है, जहाँ उपास्य स्वयं अनंत है, वह जो चराचर में व्याप्त है, उसे भाव से पाया जा सकता है. सारे कर्म जब उसी के लिए होने लगें, हमारा होना ही जब उसके होने का साक्षी बन जाये, जब वही है यह ज्ञान भीतर जागृत हो जाये. जब यह सम्पूर्ण जगत उसकी लीला प्रतीत होने लगे तो ही यह प्रेम भीतर उपजता है. गुरु की शरण में गये बिना यह चमत्कार नहीं घटता, गुरु के पास भी वही हमें भेजता है और उसके पास गुरु. यह उन दोनों के मध्य कैसी प्रीत है यह तो वही जानें, वे दोनों तो एक हो चुके हैं, हमें दो नजर आते हैं. वे दोनों ही हमसे असीम प्रेम करते हैं. उनके प्रेम को महसूस करना जिन्हें आता है, वे तृप्त हो जाते हैं, आनंद में रहते हैं, बाहर कुछ भी हो, अछूते रहते हैं. उन्हें जगत से फिर क्या चाहिए ? जगत उन्हें आश्चर्य चकित तो कर सकता है पर लुभा नहीं सकता. वे विस्मित होते हैं, भ्रमित नहीं. कोई उनके भीतर से पल-पल सचेत करता रहता है. वे जगत के आश्रय बन जाते हैं, उसका आश्रय लेते नहीं !


Wednesday, August 7, 2013

छिपी है भीतर रस की आकर

दिसम्बर २००४ 
कृष्ण ने इस धरा पर जो लीला की थी, वह अपने भीतर के रस को अभिव्यक्त करने के लिए ही तो की थी. हमें भी अपने भीतर के रस को आस-पास बिखराना है, ध्यान से यह सहज ही होता है. हम प्रेम के रस से ही बने हैं, प्रेम में ही हमारा विलय होगा. जो हमारे अपने हैं, हितैषी हैं उन्हें तो हमारा प्रेम मिलता ही है, यह सारा जगत हमारे अंतर की ऊष्मा से वंचित न रहे. हम दाता बनें. जिस परमात्मा ने हमें सिरजा है वह भी हमसे मात्र प्रेम ही चाहता है. संतजन कहते हैं वह हमें निरंतर प्रेम भरी नजर से निहार रहा है, जैसे माँ के लिए उसकी सन्तान हो वैसे ही. हर कोई यहाँ अपनी-अपनी क्षमता से यही तो कर रहा है, कवि, संगीतज्ञ, चित्रकार, मूर्तिकार अपने भीतर के माधुर्य को उंडेलना चाहते हैं, मानो भीतर कोई सोता बह रहा है जो अनंत से जुड़ा है.


Tuesday, August 6, 2013

कोरा कागज रहे यह मन

दिसम्बर २००४ 
 एक अनोखी दुनिया हमारे भीतर छुपी है, आत्म भाव में जीने का संकल्प ही हमें एक अनोखी शांति से भर जाता है. कोई यदि प्रतिकूल बात कहता है तो झट याद आता है, ओह, यह तो अहंकार को चुभी है, हमें तो नहीं और मन एक कोरी स्लेट सा रह जाता है. यदि कोई यह अनुभव कर ले कि वह शुद्ध बोध मात्र है तो जगत उसे छू भी नहीं सकता, जैसे पड़ोसी के घर में कुछ हुआ हो. बुद्धि आत्मा की पड़ोसिन ही तो है उससे ज्यादा कुछ नहीं. संसार में ज्ञान की अनेकों शाखाएँ हैं पर हर कोई उनका ज्ञान नहीं पा सकता और वे सभी अपूर्ण हैं, आत्मज्ञान  हर कोई पा सकता है, यह पूर्ण है फिर भी यह बढ़ता ही रहता है. यह हमें तृप्त करता है.
  


Monday, August 5, 2013

तृष्णा मिटे से कृष्णा मिले रे

दिसम्बर २००४ 
संयम और त्याग साधना के आवश्यक अंग हैं. संयम का मुल्यांकन हमें सारे दुखों से मुक्त करता है, इच्छाशक्ति अपरिमेय है, एक को पूरा करें तो दूसरी तैयार मिलती है. इनकी पूर्ति में ही समय, धन, परिश्रम चला जाता है. वह आनन्द जो हमें इच्छा पूर्ति से मिलता है क्षणिक होता है, जबकि हम आनन्द के आगार हैं. आनन्द की प्राप्ति के लिए हम संसार सजाते हैं पर अधूरे रह जाते हैं, हर इच्छा पूर्ण होने के बाद हमें और अतृप्त कर जाती है, क्यों कि उसका संस्कार बन जाता है जो बार-बार उस अनुभव की ओर खींचता है, हम दासता का जीवन जीते हैं. जब तक खुद को नहीं जाना तभी तक यह तलाश है, स्वयं के भीतर शांति का अनुभव होते ही सारी दौड़ समाप्त हो जाती है, फिर जो सहज रूप से प्राप्त हुआ अथवा नैसर्गिक इच्छाएं ही रह जाती हैं, और उनकी पूर्ति अपने आप ही होने लगती है. जब हम स्वयं इच्छाओं को उठाते नहीं और उठ जाएँ तो उन्हें समर्पित करते जाते हैं, तो जो जरूरी है उसकी व्यवस्था प्रकृति अपने आप कर देती है. हम कितने ही धनी हों पर भीतर की तृप्ति का अहसास जब तक नहीं होता तब तक कृपण ही कहलायेंगे. पूर्ण मुक्ति का अनुभव तभी होगा जब मन में किसी तरह का आग्रह न रहे, यह अवस्था सत्संग व साधना से ही आ सकती है.

   

Sunday, August 4, 2013

उसी एक का सकल पसारा

दिसम्बर २००४ 
कितना कुछ हर क्षण हमारे आस-पास घटता रहता है, पल-पल कर समय आगे बढ़ता है, दिन बीतते हैं, वर्ष सदियाँ और युग बीतते हैं, हम वहीं के वहीं खड़े हैं, यह सब जो बदल रहा है उसे देखते हैं. हमारा तन बदला, मन बदला, भाव भी बदलते हैं, पर जहाँ कोई परिवर्तन नहीं, जो सदा से एक सा है, वह जो साक्षी है, वह चैतन्य जो हमारे भीतर भी है वही जो कण-कण में समाया है, उसकी उपस्थिति का भान यदि होने लगे तो समाधान मिलने लगता है, हमारा होना ही पर्याप्त होता है, तब न कहीं जाना है न आना है, न खोना है, यह जड़ता नहीं है, सहजता है, सहज होकर सारे कार्य अपने-आप होने लगते हैं, तब कर्तापन का अहंकार शेष नहीं रहता. हम प्रकृति के सहयोगी बन जाते हैं, विरोध में ऊर्जा क्षय है, द्वंद्व है. हमें द्वन्द्वातीत होना है, जहाँ कोई भेद नहीं रहता, संसार और स्वयं में भी कोई भेद नहीं रहता क्योंकि सब एक से ही उत्पन्न हुआ है. अपने ही हाथ से अपना विरोध कैसा ?     

Thursday, August 1, 2013

नजर बदली तो नजारे बदले

दिसम्बर २००४ 
वस्तुओं को देखने का हमारा नजरिया यदि संकुचित होगा तो हमें दोष ही दोष दिखाई देंगे, हमें अपने दृष्टिकोण को व्यापक बनाना होगा, लोगों की मानसिकता को समझना होगा, यदि समाज में विषमता है, भ्रष्टाचार है तो उसके लिए हम भी जिम्मेदार हैं. हमें स्वयं को सुधारने का प्रयत्न करना है. यदि एक अंगुली हम समाज की ओर उठाते हैं तो चार अपनी ओर भी उठती हैं. समाज में रहकर हम उसके गुण-दोषों से बच नहीं सकते साथ ही हमें इस बात का भी निरंतर ध्यान रखना होगा कि सृष्टिकर्ता की नजर से कुछ बचा नहीं है, प्रकृति के कानून से कोई बच नहीं सकता. कुछ वस्तुएं हमें कितनी भी भयावह दिखाई देती हों पर उनकी भी उपयोगिता है, इसका अर्थ यह नहीं कि हम हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाएँ, बल्कि यह कि हम बिना प्रभावित हुए अपनी क्षमता के अनुसार कार्य हाथ में लें. हम यदि अपने इर्द-गिर्द परिवर्तन लाना चाहते हैं तो हमें अपने भीतर परिवर्तन लाना होगा, हम सभी को स्वीकार कर चलें तो मन से विरोध का भाव चला जाता है. ईश्वर की जो अनुभूति हमें अपने भीतर होती है, वह कण-कण में होने लगेगी. हर मन की गहराई में वही परमात्मा है. हमें हर एक के भीतर छिपी उस शक्ति तक पहुंचना है. आत्मा में स्थित रहकर हम जगत को एक खेल की भांति ही देखते हैं, यहाँ सब कुछ प्रतिपल बदल रहा है. यहाँ कुछ लोग जगे हैं, कुछ सोये हैं, कुछ बेहोश हैं. जगे हुए लोगों का साथ हमें भी सजग रखता है. सद्गुरु के अनुसार मन हम नहीं हैं, मन कल्पनाओं का एक समूह है जो हमें भ्रमित करता है, हमारा उद्गम अनंत है और अनंत ही हमारा स्वरूप है. यदि हमारे भीतर कोई वासना शेष न रहे तो हम उस ब्रह्म के निकट आ जाते हैं, वही हमारा लक्ष्य है.