Monday, August 5, 2013

तृष्णा मिटे से कृष्णा मिले रे

दिसम्बर २००४ 
संयम और त्याग साधना के आवश्यक अंग हैं. संयम का मुल्यांकन हमें सारे दुखों से मुक्त करता है, इच्छाशक्ति अपरिमेय है, एक को पूरा करें तो दूसरी तैयार मिलती है. इनकी पूर्ति में ही समय, धन, परिश्रम चला जाता है. वह आनन्द जो हमें इच्छा पूर्ति से मिलता है क्षणिक होता है, जबकि हम आनन्द के आगार हैं. आनन्द की प्राप्ति के लिए हम संसार सजाते हैं पर अधूरे रह जाते हैं, हर इच्छा पूर्ण होने के बाद हमें और अतृप्त कर जाती है, क्यों कि उसका संस्कार बन जाता है जो बार-बार उस अनुभव की ओर खींचता है, हम दासता का जीवन जीते हैं. जब तक खुद को नहीं जाना तभी तक यह तलाश है, स्वयं के भीतर शांति का अनुभव होते ही सारी दौड़ समाप्त हो जाती है, फिर जो सहज रूप से प्राप्त हुआ अथवा नैसर्गिक इच्छाएं ही रह जाती हैं, और उनकी पूर्ति अपने आप ही होने लगती है. जब हम स्वयं इच्छाओं को उठाते नहीं और उठ जाएँ तो उन्हें समर्पित करते जाते हैं, तो जो जरूरी है उसकी व्यवस्था प्रकृति अपने आप कर देती है. हम कितने ही धनी हों पर भीतर की तृप्ति का अहसास जब तक नहीं होता तब तक कृपण ही कहलायेंगे. पूर्ण मुक्ति का अनुभव तभी होगा जब मन में किसी तरह का आग्रह न रहे, यह अवस्था सत्संग व साधना से ही आ सकती है.

   

5 comments:

  1. आपकी यह रचना कल बुधवार (07
    -08-2013) को ब्लॉग प्रसारण : 78 पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
    सादर
    सरिता भाटिया

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  2. सत्संग का मतलब ही है सत -संग। सत अर्थात सत्य अर्थात ईश्वर। बेहद का सुख मिएगा फिर संसार में रहने पर अभी तो हम संसार को ही अपने अन्दर ले लेते हैं।

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    1. आपने सही कहा है, वीरू भाई

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  3. पूर्ण मुक्ति का अनुभव तभी होगा जब मन में किसी तरह का आग्रह न रहे, यह अवस्था सत्संग व साधना से ही आ सकती है.
    AAPAKE POST AATMA KO PARAM AANAND SE BHAR DETA HAI

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