Tuesday, August 6, 2013

कोरा कागज रहे यह मन

दिसम्बर २००४ 
 एक अनोखी दुनिया हमारे भीतर छुपी है, आत्म भाव में जीने का संकल्प ही हमें एक अनोखी शांति से भर जाता है. कोई यदि प्रतिकूल बात कहता है तो झट याद आता है, ओह, यह तो अहंकार को चुभी है, हमें तो नहीं और मन एक कोरी स्लेट सा रह जाता है. यदि कोई यह अनुभव कर ले कि वह शुद्ध बोध मात्र है तो जगत उसे छू भी नहीं सकता, जैसे पड़ोसी के घर में कुछ हुआ हो. बुद्धि आत्मा की पड़ोसिन ही तो है उससे ज्यादा कुछ नहीं. संसार में ज्ञान की अनेकों शाखाएँ हैं पर हर कोई उनका ज्ञान नहीं पा सकता और वे सभी अपूर्ण हैं, आत्मज्ञान  हर कोई पा सकता है, यह पूर्ण है फिर भी यह बढ़ता ही रहता है. यह हमें तृप्त करता है.
  


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