Thursday, August 29, 2013

हद, बेहद दोनों टपे

जनवरी २००५ 
हद टपे सो औलिया, बेहद टपे सो पीर
हद, बेहद दोनों टपे, ताको कहे फकीर

जैसे सोना आग में जाकर तपता है तो उसकी चमक बढ़ जाती है वैसे ही मन को जब साधना में तपाते हैं तो हम उस मूल तक पहुंच जाते हैं जिसे वेदों में गाया गया है. जिसे नेति-नेति कहकर अवर्णनीय कहा गया है. जो इस जगत का आधार है, इसे बनाता है, पालता है और नष्ट करता है. जो सत्य है, शिव है, सुंदर है. जो नित्य है, प्रेम है, आनन्द है. जो जानने योग्य है , पाने योग्य है. हमारे मन का भी वही मूल है. विचारों और भावों के रूप में मन की कई शाखायें हैं, उन पर कामनाओं के फल लगे हैं, हम ज्यादातर इन फलों में ही उलझे रहते हैं, कभी–कभी तने तक पहुंच जाते हैं, पर मूल तक पहुंचने के लिए हमें मनके पार जाना होगा. ध्यान तथा समाधि में हमें उस मूल की झलक मिलती है. और जिसने एक बार शांति रूपी गंगा जल पा लिए वह नाले के पानी का क्या करेगा, हीरा पाकर कोई कांच का टुकड़ा क्यों लेगा ? वह तो औरों को भी आनन्द रूपी हीरे को पाने के लिए प्रेरित करेगा.

3 comments:

  1. बहुत ही बढिया ...

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  2. सदा जी व देवेन्द्र जी, स्वागत व आभार !

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