जनवरी २००५
देह में प्रतिक्षण संवेदनाएं हो रही
हैं, जैसे अहंकार जगते ही मन स्थिर नहीं रहता, अहंकार को चोट लगने पर तो और भी
अस्थिर हो जाता है, तो देह में भी इसका भास होता है. मन में कोई भी उत्तेजना जगे
तो तन संवेदनाएं जगाने लगता है. मन सुखद संवेदनाओं को तो चाहता है, जो आकर कुछ देर
बाद अपने आप चली जाती हैं, पर दुखद को नहीं, उनका विरोध करता है, विरोध करते ही और
दुखद संवेदनाएं आ जाती हैं. एक श्रंखला ही बनने लगती है, यदि हम इन्हें सजग होकर
देखें तो धीरे-धीरे खत्म होने लगती हैं. वास्तव में प्रतिक्रिया जगाने वला मन ही
सुख-दुख का भागी होता है. यदि भीतर केवल साक्षी रहे तो बड़ी से बड़ी बात भी कोई दुःख
नहीं दे सकती. यह अनुभव की बात है. धीरे धीरे हमें इसे अनुभव में उतारना होगा और
फिर यह स्वभाव का अंग बन जायेगा.
bahut sahi kaha
ReplyDeleteबहुत सुन्दर है।
ReplyDeleteसत्य कहा है ... धीरे धीरे प्रयास से ये संभव हो जाता है ...
ReplyDeleteइमरान, वीरू भाई, दर्शन जी, व दिगम्बर जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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