दिसम्बर २००४
हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है, स्वयं को दुःख से मुक्त
रखना. मन में क्रोध, अशांति, तनाव, द्वंद्व, उद्ग्व्निता तथा चिंता यदि न रहे तब
जो शेष बचेगा वह परमात्मा है. हम अभी तक उससे अछूते बचे हैं, तो इसका एकमात्र कारण
है हमारे मन की हिंसात्मक प्रवृत्ति. हम स्वीकारना नहीं चाहते, शरण में नहीं जाते
तभी विरोध का भाव पनपता है. पूर्वाग्रह से ग्रस्त हमारा मन बहुत शीघ्र दुःख का
भागी बन जाता है. भय भी तभी होता है, जब तक भय मन में रहेगा, हम प्रेम का अनुभव
कैसे कर सकते हैं. ईश्वर प्रेम है, उसकी उपस्थिति तो हर क्षण है एक पर्दा हमें
उससे दूर किये है और वह पर्दा है नकारात्मक सोच से उत्पन्न अहंकार. जो वास्तव में
है नहीं पर व्यर्थ कल्पनाओं से इसे ठोस रूप हमने ही दिया है. मन में ही इसका नाश
करने की योग्यता है. फिर भी यदि प्रारब्ध वश कोई दुःख हमारे जीवन में हो तो वह
जाने के लिए ही आया है, ऐसा जानकर उसे साक्षी भाव से देखना होगा. हम दुःख में
सीखते हैं और सुख में उस सीखे हुए के अनुसार जीते हैं, पर हमारा लक्ष्य तो इन
दोनों के परे आत्मभाव में स्थित होकर आनन्द को प्राप्त होना है.
गहन एवं सार्थक आलेख ...
ReplyDeleteआभार अनीता जी ॰
अपने सुख दुख के स्वामी तुम्हीं हो सखे , हम ही अपने सुख और दुख के कर्ता हैं कोई हमें न सुख दे सकता न दुख । हमारे कर्म ही हमारे सुख दुख को निर्धारित करते हैं । अनिता जी ! आपको कब से खोज रही थी, आज आपको पाकर बहुत खुशी हो रही है ।
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