जनवरी २००६
अब न सम्भले तो रोना
पड़ेगा...नर्क में गर्क होना पड़ेगा. जन्म हीरा गंवाने के काबिल नहीं है, साँस का
अनमोल मोती लुटाने के काबिल नहीं है...न जाने कितनी बार ये वचन हम सुनते, पढ़ते हैं,
पर इनका वास्तविक अर्थ तभी समझ में आता है जब पहली बार गुरू कृपा से भीतर उस
परमात्मा की झलक मिलती है, और तब साधक की यात्रा आरम्भ होती है. उस झलक को पुनः
पाने के लिए वह अपने भीतर जाता है, साधना करता है. उसे सदा यह लगता है जो प्रेम उसे
अपने भीतर अनुभव हो रहा है, वह वास्तविक तो है. क्या विकार नष्ट हो रहे हैं,
अहंकार घट रहा है, क्रोध, लोभ, मोह मान से ऊपर उठ रहा है या नहीं, वाणी का अपराध
तो नहीं होता, प्रेम का पौधा जो अपने अंतर में पनप रहा है उस पर कांटे तो नहीं हैं,
अभिमान के कांटे. पल-पल भीतर की खबर रखता हुआ वह फंक-फूंक कर कदम रखता है, अभी
परमात्मा को जन्मने में समय है, समय नाजुक है, उसे उस माँ की तरह सजग होना है जो गर्भ
में पल रहे अपने शिशु की रक्षा करती है.