नवम्बर २००५
परमात्मा
रूपी सागर की लहरें मचल रही हैं, हमें कुछ देने के लिए. वह तो हमें सहज प्राप्य
है, हम यदि उसमें अपना पात्र डालते हैं, वह डालते ही भर जाता है. वह हमसे दूर रह
सकता ही नहीं, हम स्वयं ही उसके व अपने मध्य दूरी कर लेते हैं. कभी अज्ञान वश, कभी
प्रमाद के कारण, अज्ञान में ही अहंकार होता है. हमें विनम्र होकर एक बार उसे
पुकारना ही है, वह उसे अनसुनी नहीं करता, वह तो तैयार है. वह तभी मिलता है जब केवल
उसी के लिए उसे पुकारें, जगत के लिए उसे पुकारना ही अज्ञान है, जगत के लिए जगत की
शरण में ही जाना चाहिए. और परमात्मा के प्रेम, आनन्द, शांति का अनुभव करने के लिए
उसके पास जाना चाहिए. वह हमें भर देता है. फिर जगत की ओर हम याचक की दृष्टि से
नहीं देखते, दाता की दृष्टि से देखते हैं. हम सारे दुखों से मुक्त हो जाते हैं. संसार
तब हमें बांधता नहीं, सहज ही उसके पार हम उतर जाते हैं. संसार को दोष दृष्टि से
नहीं देखते बल्कि ईश्वर की कृति देखते हैं.
और परमात्मा के प्रेम, आनन्द, शांति का अनुभव करने के लिए उसके पास जाना चाहिए. वह हमें भर देता है...............
ReplyDeleteहे गोवन्द राख शरण अब तो जीवन हारे ।
ReplyDeleteभाव-पूर्ण अभिव्यक्ति ।
राहुल जी व शकुंतला जी, स्वागत व आभार !
ReplyDeleteसच है वह हमारे हृदय में विराजमान है हम ओर पीठ किये रहते हैं
ReplyDelete