भारतीय प्राचीन शास्त्रों के अनुसार मानव के चार पुरुषार्थ हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। चारों की प्राप्ति के लिए किए गये प्रयत्न हमें परमात्मा की ओर ले जाते हैं। भगवान कृष्ण ने गीता में ज्ञान को भगवद प्राप्ति का एक मार्ग बताया है। धर्म का पालन करते हुए ही मानव अंततः ज्ञान का अधिकारी बनता है।परमात्मा आनंद स्वरूप है और ज्ञान से बढ़कर आनंद का प्रदाता और कौन हो सकता है। ज्ञान चाहे जगत के रहस्यों का हो या मन की गहराई में छिपे अपने स्वरूप का हो, दोनों ही मन को प्रेम और शांति से भर देते हैं। दूसरा पुरुषार्थ है अर्थ, जिसकी प्राप्ति श्रम पूर्वक कर्म करने से होती है। यह कर्मयोग का मार्ग बन सकता है। यदि मानव धर्म पूर्वक अर्थ का उपार्जन करे तो समाज-संसार में अन्यों के लिए व अपने लिए भी वह आनंद प्राप्ति का कारण बन सकता है। बड़े-बड़े धनपति हों या कोई भी व्यक्ति जो अपने भीतर जिस विशालता का अनुभव करते हैं, और अपने धन का उपयोग समाज की भलाई के लिए करते हैं, वह उन्हें परम की निकटता अनुभव कराता है। उन्हें लगता है सारा संसार ही उनका अपना हो गया है। तीसरे पुरुषार्थ काम का मार्ग भक्ति का मार्ग है। यहाँ साधक प्रकृति के सृष्टि चक्र में सहायता करने हेतु गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए सात्विक उपायों से धन का उपार्जन करता है।एक ऐसा घर जहां सन्तान वात्सलय, प्रेम, स्नेह, आदर सभी का अनुभव करते हुए बड़ी होती है, भक्ति के पथ पर अपने आप ही पहुँच जाती है।अपने व दूसरों के हित के लिए की गई कामनाओं की पूर्ति आनंद प्रदान करती है, और परमात्मा आनंद स्वरूप है। कोई भी व्यक्ति अंतिम साधन मोक्ष तक तभी पहुँचता है जब पहले के तीनों का अनुभव कर चुका हो।जीवन में रहते हुए भी कमलवत् साक्षी भाव में रहना ही जीते जी मोक्ष प्राप्त करना है। यह आनंद की सहज अवस्था है।
Wednesday, August 23, 2023
Wednesday, August 9, 2023
जीवन पग-पग पर सिखलाये
जीवन एक पाठशाला ही तो है, जहां हर कदम पर हमें सीखना होता है। किसी की उम्र चाहे कितनी हो, वह बालक हो या वृद्ध, सीखने की यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। कोई भी यहाँ पूर्ण नहीं है, पूर्णता की ओर बढ़ रहा है। अहंकार का स्वभाव है वह स्वयं को पूर्ण मानता है, अत: व्यक्ति सीखना बंद कर देता है; और अपने को मिथ्या ही पूर्ण मानता है। ऐसे में उसके भीतर एक कटुता, कठोरता तथा दुख का जन्म होता है। सीखते रहने की प्रवृत्ति उसे बालसुलभ कोमलता प्रदान करती है। बच्चे जैसा लचीला स्वभाव हो तभी हम आनंद के राज्य में प्रवेश पा सकते हैं। प्रकृति या अस्तित्त्व हमें ऐसी परिस्थितियों में रखते हैं, जहां अहंकार को चोट पहुँचे। यदि दुख का अनुभव अब भी होता है, शिकायत का भाव बना हुआ है अहंकार का साम्राज्य बना हुआ है। स्वाभिमान जगा नहीं है। स्वाभिमान में व्यक्ति अपने प्रेमस्वरूप होने का अनुभव करता है। वहाँ कोई दूसरा है ही नहीं। कृतज्ञता की भावना से वह भरा रहता है। जो उसे कटु वचन कह रहा है मानो वह उसकी परीक्षा ले रहा है, मानो परमात्मा ने उसे वहाँ रखा हुआ है। जब मन कृतज्ञता से भरा हो तो उसमें कैसी पीड़ा ! हर श्वास जब परमात्मा की कृपा से मिली है तब जिस परिस्थिति में रखा जाये वह किसी बड़ी योजना का भाग है ऐसा मानना होगा। यह सृष्टि किसी विशाल आयोजन की तरह किसी शक्ति द्वारा चलायी जा रही है, यहाँ यदि हम स्वयं को जानकर उसमें परमात्मा के सहायक बनना चाहते हैं तो हमें विनम्र होना सीखना होगा, यह पहली सीढ़ी है।