Friday, December 31, 2021

नए वर्ष पर हार्दिक शुभकामनाएँ

अनंत काल से यह सृष्टि चल रही है, लाखों मानव आये और चले गये, कितने नक्षत्र बने और टूटे. कितनी विचार धाराएँ पनपी और बिखर गयीं. कितने देश बने और लुप्त हो गये. इतिहास की नजर जहाँ तक जाती है सृष्टि उससे भी पुरानी है, फिर एक मानव का सत्तर-अस्सी वर्ष का छोटा सा जीवन क्या एक बूंद जैसा नहीं लगता इस महासागर में, व्यर्थ की चिंताओं में फंसकर वह इसे बोझिल बना लेता है. हर प्रातः जैसे एक नया जन्म होता है, दिनभर क्रीड़ा करने के बाद जैसे एक बालक निशंक माँ की गोद में सो जाता है, वैसे ही हर जीव प्रकृति की गोद में सुरक्षित है. यदि जीवन में एक सादगी हो, आवश्यकताएं कम हों और हृदय परम के प्रति श्रद्धा से भरा हो तो हर दिन एक उत्सव है और हर रात्रि परम विश्रांति का अवसर !  हर बार नया वर्ष आकर हमें इस सत्य से अवगत कराता है कि जीवन का लक्ष्य भीतर के आनंद को पाना और उसे जगत में लुटाना मात्र है। 


Sunday, December 26, 2021

सहनशील चेतना हो जिसकी

जीवन क्या है ? क्या निरंतर कुछ न कुछ अनुभव करते रहने की ललक का ही दूसरा नाम जीवन नहीं है। शिशु के जन्म लेते ही यह प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। जब तक देहाध्यास  नहीं छूटता, इंद्रियों से अनुभव लेने की कामना का नाश नहीं होता। हर नए प्रातः में हमारा पदार्पण यदि सजगता पूर्ण हो तो इन अनुभवों को ग्रहण करते हुए भी जीवन के मूल्यों को हम किसी भी क्षण विस्मृत नहीं करेंगे। हमारा अंतर स्वप्नशील हो जिसमें एक शिव संकल्प जलता रहे जो सदा प्रेरित करे। राह में यदि कांटे हों, अनदेखा करके कोई खुद को बचा कर निकल जाता है, पर संवेदनशील कांटे बीनता है और राह को अन्यों के लिए कंटक विहीन बना देता है ! जो सहनशील होगा वही अपनी चेतना को विकसित कर सकता है, नित नया सृजन करता है. जैसे प्रकृति नित नई है, यदि मन हर दिन कोई नया विचार, कोई नया गीत रचे। यह अनादि सत्य है कि सनातन मूल्यों को पकड़ कर ही नया सृजन होता है, वैसे ही जैसे मूल को पकड़ कर ही नया फूल खिलता है.


Wednesday, December 15, 2021

तमसो मा ज्योतिर्गमय

तमसो मा ज्योतिर्गमय नामक वैदिक मंत्र में अंधकार से प्रकाश की ओर  ले जाने की प्रार्थना की गयी है। अंधकार में टकराने का भय है, सर्प आदि जंतुओं का डर भी है। अपने वास्तविक स्वरूप का अज्ञान ही अंधकार है, जिसके कारण जगत में  सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान-अपमान से टकराना पड़ता है। क्रोध, लोभ, मोह आदि के सर्प, बिच्छू आदि के काटने का डर बना रहता है। जैसे ही स्वयं का बोध होता है, अर्थात् ज्ञान का दीपक जलता है, तो ये सभी स्पष्ट दिखाई पड़ने लगते हैं। इनसे बचकर रहा जा सकता है, क्योंकि स्वयं के भीतर समता का वह स्थान प्राप्त हो जाता है जहाँ से आनंद, शांति और प्रेम की अबाध धारा निरंतर बहती रहती है। अज्ञान काल में ही राग-द्वेष सताते हैं, क्रोध आदि शत्रु जलाते हैं, जब आत्मबोध होता है तब इनकी सत्ता उसी तरह विलीन हो जाती है जैसे दिया जलते ही अंधकार दूर हो जाता है। जैसे स्वप्न में होने वाली हानि को हम हानि नहीं मानते वैसे ही ज्ञान होने पर जगत में होने वाले सुख-दुःख,लाभ-हानि आदि स्वप्नवत ही प्रतीत होते हैं। 


Saturday, December 11, 2021

ज्ञान वही जो समता लाये

 जीवन हमारे सम्मुख नित नई चुनौतियाँ लाता है, मन की समता बनाये रखते हुए हमें उनका सामना करना है. ज्ञान के छोटे-छोटे सूत्रों को किसी भी चुनौती के आने पर उपयोग में लाते ही वह अपना हो जाता है और मन की समता बनी रहती है. जीवन को यदि हम एक विशाल दृष्टिकोण से देखते हैं तो सत्य के निकट होते हैं. यह सृष्टि अनंत काल से चली आ रही है, हमारा जीवन काल उसकी तुलना में नगण्य है, यह स्मरण रखें तो अहंकार को बचने के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता. एक ही ऊर्जा से यह सारा जगत बना है यह स्मरण हमें सबके साथ जोड़ देता है. हमारा मन परमात्मा के विशाल मन का ही एक भाग है यह स्मरण रखें तो हम भय से मुक्त हो जाते हैं. सुख-दुःख उसी तरह आते और जाते हैं जैसे मौसम बदलते हैं, इसलिए न तो सुख मिलने पर हमें अति प्रसन्न होना है और न ही दुःख आने पर व्यथित होना है. स्वयं का ज्ञान ही समय पर हमारी रक्षा करता है, इसलिए शास्त्रों का अध्ययन और गुरू से आत्मज्ञान का श्रवण आवश्यक है. जिस ज्ञान को हमने अपना नहीं बनाया वह मस्तिष्क पर बोझ ही है. 

Monday, December 6, 2021

दिव्य प्रेम के रूप अनेक

नारद भक्ति सूत्र के आधार पर प्रेम की व्याख्या करते हुए गुरूजी कहते हैं, प्रेम का वर्णन नहीं किया जा सकता, वह भाव से भी परे है। भावुकता प्रेम नहीं है, भीतर की दृढ़ता ही प्रेम है, सत्यप्रियता ही प्रेम है और असीम शांति भी प्रेम का ही रूप है. भीतर ही भीतर जो मीठे झरने सा रिसता रहता है वह भी तो प्रेम है. प्रभु हर पल प्रेम लुटा रहे हैं. तारों का प्रकाश, चाँद, सूर्य की प्रभा, पवन का डोलना तथा फूलों की सुगंध सभी तो प्रेम का प्रदर्शन है. प्रकृति प्रेम करती है, घास का कोमल स्पर्श और वर्षा की बूंदों की छुअन सब कुछ तो प्रेम ही है. वृद्ध की आँखों में प्रेम ही झलकता है शिशु की मुस्कान में भी प्रेम ही बसता है. प्रेम हर प्राणी का स्वभाव है और प्रेम से ही वे बने हैं. प्रेम ही ईश्वर है ! 

Sunday, December 5, 2021

तोरा मन दर्पण कहलाये

हमारा तन स्वस्थ रहे ताकि हम साधना कर सकें, साधना करें ताकि मन स्वस्थ रहे, मन स्वस्थ रहे ताकि अंतर साधना हो सके, अंतर साधना हो ताकि मन निर्मल हो, मन निर्मल हो ताकि उसमें परम सत्य का प्रकाश हो, परम सत्य को पायें क्यों कि सत्य ही शिव और सुंदर है, शिव को पायें ताकि हम सभी के लिए सुखद हो जाएँ, हमारे होने से जड़-चेतन किसी को कोई उद्वेग न हो, न ही हमें किसी से कोई उद्वेग हो. सौन्दर्य को पाकर हम चारों ओर सुन्दरता बिखेरें. कुछ भी ऐसा न कहें, सोचें, न करें जो इस जगत को क्षण भर के लिए भी असुन्दर बना दे. ईश्वर की इस सुंदर सृष्टि को देख-देख हम चकित होते हैं, विभोर होते हैं, भीतर प्रेम का अनुभव करते हैं तो और भी चकित होते हैं, कैसे अद्भुत भाव भीतर जगते हैं, यह क्या है? कौन है? किसे अनुभव होता है? कौन अनुभव कराता है? कौन प्रेम देता है? कौन प्रेम लेता है ? ये सारे भाव शब्दों की पकड़ में नहीं आते. संतों की आँखों से ये पल-पल झरते हैं.

Friday, December 3, 2021

तीन के जो भी पार हुआ है

जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों जिस पृष्ठभूमि पर घटते हैं वह एक रस अवस्था है.  बचपन, युवावस्था और वृद्धावस्था तीनों को जो कोई एक अनुभव करता है वह इन तीनों से परे है. भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक इन तीनों प्रकार के दुखों का जो साक्षी है वह इनसे परे है. मन, बुद्धि और संस्कार इन तीनों के भी परे है, सत्व, रज और तम इन तीन गुणों से भी वह अतीत है. यह सब हम शास्त्रों में पढ़ते हैं किन्तु इस पर कभी चिंतन नहीं करते. जागते हुए जो संसार हम देखते हैं वह स्वप्न और नींद में विलीन हो जाता है, स्वप्न में जो दुनिया दिखाई देती है वह आँख खुलते ही गायब हो जाती है, और गहरी नींद में तो व्यक्ति को यह भी ज्ञान नहीं रहता कि वह कौन है ? लेकिन हमारे भीतर कोई एक है जो पीछे रहकर सब देखता रहता है. जो कुछ हम जाग कर करते हैं, या स्वप्न में या नींद गहरी थी या हल्की, वह सब जानता है. बचपन से लेकर वर्तमान की स्मृतियों को जो अनुभव कर रहा है वह मन तो रोज बदल जाता है पर कोई इसके पीछे है जो कभी नहीं बदलता. आज तक न जाने कितने सुख दुःख के पल जीवन में आये, जो इनसे प्रभावित नहीं हुआ वह चैतन्य ही गुणातीत है. ध्यान में जब मन व बुद्धि शांत हो जाते हैं, तब जो केवल अपने होने मात्र का अनुभव होता है, वह उसी के कारण होता है. वह अनुभव शांति और आनंद से मन को भर देता है. इसीलिए हर धर्म में ध्यान को इतनी महत्ता दी गयी है. 


Monday, November 29, 2021

संशयात्मा विनश्यति

संशय आत्मा के पतन का सबसे बड़ा कारण है। स्वयं पर संशय हमें हमारी पूर्ण क्षमता से परिचित ही नहीं होने देता। हरेक के भीतर परमात्मा समान रूप से विराजमान है, अब यह उस पर निर्भर करता है कि वह अपने मन को एक चम्मच जितना बनाए या एक विशाल सागर जितना। हम अपनी सजगता और विश्वास के द्वारा ही मन की अज्ञात शक्तियों का पता पा सकते हैं जो भीतर हैं। अपने आस-पास के व्यक्तियों पर संशय और भी हानिकारक है, यह मन पर एक ऐसा आवरण डाल देता है कि हमें उनकी सच्ची और अच्छी बातें भी नज़र नहीं आतीं। हम वास्तव में उन व्यक्तियों से परिचित ही नहीं हो पाते, बल्कि अपने चारों ओर बने एक दायरे में ही क़ैद रह जाते हैं और जीवन प्रतिपल बीतता जाता है। गूरू और शास्त्र पर संशय न केवल हमें जीवन के वास्तविक स्वरूप से वंचित करता है बल्कि उस आनंद से भी जिस पर हर आत्मा का जन्मसिद्ध अधिकार है। 


Sunday, November 28, 2021

माटी में मिल जाए माटी

जैसे गागर माटी की बनी है, टूट जाए तो माटी का कुछ नहीं बिगड़ता, वैसे ही मन आत्मज्योति से उपजा है; मन उदास हो, चिंतित हो तो ज्योति का कुछ नहीं घटता। आत्मा का न कोई आकार है न ही उसमें कभी कोई विकार होता है। मन को सुख और पूर्ण विश्राम पाना हो तो कुछ देर के लिए सब कुछ भुलाकर स्वयं से मिलना सीखना होगा। मन का काम है सोचना, वह कभी एक जगह टिककर रहना नहीं जानता, इसी कारण अपनी ऊर्जा को व्यर्थ ही खर्च करता है, आत्मा ऊर्जा का स्रोत है, उससे जुड़कर वह सहज ही अपनी शक्ति को कई गुणा बढ़ा  सकता है। मन जब यह जान लेता है तो अपने मूल से जुड़ जाता है, गहरी नींद में व ध्यान में मन वहीं पहुँच जाता है। आत्मा के साथ एक होकर वह उसी तरह अमरता का अनुभव करता है जैसे घड़ा मिट्टी में मिलकर उससे एक हो जाता है, जिसका कभी नाश नहीं होता। 


Thursday, November 25, 2021

स्वयं में जो भी टिकना जाने

जैसे जब जरूरत पड़ती है, हम तन का उपयोग करते हैं और जब जरूरत नहीं होती तब शांत होकर बैठ जाते हैं वैसे ही विचार करने की जरूरत हो तभी मन का उपयोग करें तो मनसा कर्म नहीं होंगे. जब तक हम द्रष्टा में सहज रूप से नहीं रहते, तब तक मन की ग्रन्थि बनी रहती है और व्यर्थ ही मन विचार करता है. आत्मा में रहना ही सुख से रहना है, निर्भय और निर्वैर रहना है, निर्विकल्प होकर रहना है ! पर आत्मा में रहना पल भर को ही होता है, जाने कहाँ से मन हावी हो जाता है, मन में जैसे कोई गहरा कुआँ हो जिसमें से विचार निकलते ही आते हैं, कभी इधर के कभी उधर के, कभी काम के कभी व्यर्थ के विचार, जो कभी तन को भी पीड़ित करते हैं मन को भी। आखिर मन चाहता क्या है ?  वह स्वयं को आहत कर कैसे सुखी हो सकता है. वह स्वयं ही नकारात्मक भाव जगाता है फिर बिंधता है, उसे क्यों नहीं समझ में आता ? पर वह तो जड़ है, आत्मा ही चेतन है, यदि आत्मा असजग रहे तो मन इसी तरह करता रहेगा. सजग हमें स्वयं को होना है, हम जो मन से परे हैं. हम नादान बच्चे को घातक हथियार हाथ में लिए देखें तो क्या उसे रोकते नहीं, हम क्यों सो जाते हैं जब मन मनमानी करता है. हमें अपने आप पर भरोसा नहीं, तभी तो ईश्वर को पुकारते हैं. ईश्वर हँसते होंगे, उन्होंने तो हमें निज स्वरूप में ही रचा है. वह कहते होंगे पुकारने से पहले एक नजर खुद पर भी डाल ली होती !


Wednesday, November 24, 2021

वर्तमान में ठहरे मन जब

यदि आत्मा को हम सूर्य समान कहते हैं तो मन की उपमा चंद्रमा से दी जाती है। सूर्य निज प्रकाश से स्वयं को प्रकाशित करता है पर चाँद सूर्य के प्रकाश को ही परावर्तित करता है। आत्मा चैतन्य है, पर मन परावर्तित चेतना से प्रकाशित होता है।यदि मन पर विचारों के घने बादल छाए हों तो चेतना घट जाएगी, मन अति चंचल हो तो चेतना बिखर जाएगी। जब हम नींद में होते हैं तब चेतन मन सो जाता है, हमें अपना भान ही नहीं रहता, नींद में राजा और रंक एक समान हो जाते हैं। जागते हुए भी हम कितनी बार दिवास्वप्न में खो जाते हैं, विचार हमें कहीं से कहीं ले जाते हैं, तब हम स्वयं को भूल ही जाते हैं। जब कोई समान रखकर बाद में याद न आए तो समझना  होगा कि उसे रखते समय मन कहीं घूमने गया था। इसीलिए ध्यान का इतना महत्व है, ध्यान में हम सीखते हैं कि मन को कैसे वर्तमान में रखा जाए, तब आत्मा का पूरा प्रकाश मन से झलकेगा और हम अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित हो पाएँगे। 


Tuesday, November 23, 2021

शुभता का जो वरण करे

सृष्टि परमात्मा के संकल्प से उपजी है। यहाँ जो कुछ भी सुंदर है, कल्याणकारी है, किसी के शुभ विचारों का परिणाम है और जो कुछ भी असुंदर है, विनाशकारी है, वह भी किन्हीं  अशुभ संकल्पों का परिणाम है। जीवन में जो भी घटता है, वह किसी न किसी क्षण में भीतर उठे विचारों से ही प्रकट हुआ है। विचारणा सूक्ष्म कर्म है जो अंतत: स्थूल रूप में प्रकट होता है। इसीलिए कहा गया है कि हम आत्मा में रहकर शुभ संकल्प ही करें, मन की यह आदत है कि वह तात्कालिक सुख की लालसा में अपना भला-बुरा नहीं सोचता, वह प्रेय मार्ग का पथिक है। मन एक पुराने ढर्रे पर ही चलता है, जिसपर चलकर उसने पहले कष्ट भी उठाए हों, तब भी वह उस लीक को चुन लेता है। आत्मा में रहने का अर्थ है सदा वर्तमान में रहना, वह श्रेय पथ पर चलने का मार्ग है, अर्थात् श्रेष्ठ को चुनने का मार्ग, जो स्वयं के साथ साथ जगत के लिए भी शुभता ही लाता है।

Sunday, November 21, 2021

सुख-दुःख के जो पार मिलेगा

जीवन सुख-दुःख का मिश्रण है, पर इसको देखने वाला मन यदि इसके पार जाने की कला सीख ले तो जीवन एक खेल बन जाता है। अनादि काल से न जाने कितने लोग इस भूमि पर जन्मे और चले गए। प्रतिक्षण नए सितारों के जन्म हो रहे हैं और कुछ काल के गाल में समा रहे हैं। थोड़ा सा समय और कुछ ऊर्जा हमें मिली है कि अपने भीतर उस स्रोत को पा लें जो सुख-दुःख के पार है। मन यदि स्वयं में संतुष्ट होना सीख जाए तो खुद के परे जाने की हिम्मत कर सकता है, जो मन अभी तृप्त नहीं हुआ,  वह तो संसार को पाने की उधेड़बुन में ही लगा रहेगा। मन यदि रिक्तता का अनुभव करेगा तो उसे भोजन, धन, वस्तुएँ, यश आदि से भरना चाहेगा, इस भरने में वह कभी सफल नहीं हो सकता क्योंकि ख़ाली होना मन का स्वभाव है। उसे शून्य के अतिरिक्त किसी भी वस्तु से भरा नहीं जा सकता। इच्छाओं की पूर्ति के द्वारा न अतीत में न ही भविष्य में कोई सुख-दुःख के पार जा सकता है। ध्यान-साधना के द्वारा मन के इस स्वभाव को जानना है और अपने भीतर आनंद के स्रोत का अनुभव करना है, जो सुख-दुःख दोनों के पार है। 


Tuesday, November 16, 2021

भीतर जब प्रकटेगी सहजता

बुद्धि रूपी मछली जब आत्मा रूपी सागर को छोडकर मन और इन्द्रियों रूपी संकरी नहरों में आ जाती है तो उसका संबंध सागर से छूट जाता है और वह व्याकुल हो उठती है. जब वह पुनः आत्मा के सागर में पहुँच जाती है तो सुखी हो जाती है.... ईश्वर से हमारा संबंध वैसा ही है जैसा बूंद या लहर का सागर से. प्रियजनों के स्नेह में जो आनंद झलकता है वह हमारी आत्मा का ही प्रकाश है. आत्मा का पूर्ण उद्घाटन ही मानव का साध्य है. राग-द्वेष अर्थात आसक्ति व विरक्ति मन के कार्य हैं, स्वास्थ्य-रोग आदि देह के, जो सुख-दुःख के रूप में हमें मिलते हैं. लेकिन वह हमारा वास्तविक परिचय नहीं है. सहजता के प्राकट्य में आनंद है और उसी में हमारी शक्तियों का पूर्ण विकास सम्भव है. 


Thursday, November 11, 2021

थिरता जब मन में आएगी

अध्यात्म का सबसे बड़ा चमत्कार सबसे बड़ी सिद्धि तो यही है कि हम अपने बिखरे हुए मन को समझ  लें, चित्त को देख लें. मानव होने का यही तो लक्षण है कि साधना के द्वारा मन को इतना केंद्रित कर लें कि मन के परे जो शुद्ध, बुद्ध आत्मा है वह उसमें प्रतिबिम्बित हो उठे. ज्ञान के द्वारा उस आत्मा के बारे में  जानना है, फिर योग और ध्यान के द्वारा उसका अपने भीतर अनुभव करना है तथा भक्ति के द्वारा उसका आनंद सबमें बांटना है. योग अतियों का निवारण है, जो मन व तन को जो प्रसन्न रखता है  तथा भीतर ऐसा प्रेम प्रकटाता है, जिससे जीवन सन्तुलित हो. जब तक अपने लिए कुछ पाने  की वासना बनी है मन स्थिर व ख़ाली नहीं हो सकता, जब सारी इच्छाएं पहले ही पूर्ण हो चुकी हों तो कोई चाहे भी क्या ? व्यवहार जगत में दुनियादारी के लिए लेन-देन चलता रहे पर भीतर हर पल यह जाग्रति रहे कि वे आत्मा हैं, जो अपने आप में पूर्ण है ! ज्ञान के वचनों को समझ लेने मात्र से ही कोई बुद्ध नहीं हो जाता, जब तक स्वयं का अनुभव न हो तब तक उधर का ज्ञान व्यर्थ है. शास्त्र जब कुछ कहते हैं तो वे केवल तथ्य की सूचना भर देते हैं, उनकी उद्घोषणा में कोई भावावेश नहीं है. वे हमें हमारी समझ के अनुसार चलने का आग्रह करते हैं।   


Tuesday, November 9, 2021

जीवन का जो मान करे

जीवन हमें उपहार रूप में मिला है। मन, बुद्धि व संस्कार के रूप में अथवा इच्छा, ज्ञान और कर्म  के रूप में हमारे भीतर अस्तित्त्व ने तीन शक्तियाँ प्रदान की हैं। पंच इंद्रियों के माध्यम से हम इस जगत का एक सीमित रूप ही अनुभव कर पाते हैं, जो स्थूल है, किंतु स्वप्न में हम सूक्ष्म जगत की झलक भी पाते हैं। इन दोनों के पार है कारण जगत जो गहरी नींद में जाने पर आत्मा को अनुभव में आता है किंतु मन या बुद्धि को उसकी कोई खबर नहीं मिलती। आत्मा उसके भी पार है जिसका अनुभव केवल ध्यान में किया जा सकता है। संत और शास्त्र इसलिए ध्यान का इतना महत्व बताते हैं। उस अवस्था में हम मन और बुद्धि को अपने अनुकूल व्यवहार करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं अन्यथा वे राग-द्वेष के चलाए चलते हैं और अक्सर अपनी ही हानि कर बैठते हैं। मन में उठने वाला तनाव, चिंता, उदासी अथवा कोई भी नकारात्मक भाव इसी कारण से होता है, जिसका प्रभाव शरीर पर भी पड़ता है। 


Sunday, November 7, 2021

शून्य में ही पूर्ण छिपा है

परमात्मा का एक गुण है वह दिखायी नहीं देता; इसलिए ऐसा लगता है वह  है ही नहीं, किंतु वास्तव में  हर कहीं वही है। उसके बिना कुछ भी नहीं उपजता  है, इस सृष्टि में  हर कतरा उसकी शक्ति से भरा हुआ है,  उससे कभी कुछ छिपा नहीं है। हम देखते हैं कि अक्सर हमारा  चाहा हुआ नहीं घटता है, इससे हम अशांत हो जाते हैं। जब हम परमात्मा की सत्ता को स्वीकार कर लेते हैं तब अंतर में शांति बनी रहती है। अनादि काल से यह दुनिया निज राह पर चल रही है, कुछ ही ऐसे होते हैं जो उसे जानने  का दम भरते हैं जो है ही नहीं, पर जो इस जगत का आधार है। एक वैरागी या योगी के पास बाहर कुछ भी न हो  फिर भी उसके मस्तक पर एक कांति दमकती है और उसका आत्मबल नज़र आता है।जगत में रहते हुए भी यदि चीजों, घटनाओं और व्यक्तियों पर अपनी पकड़ हम छोड़ दें, कहीं कोई अपेक्षा न रखें तो मन उस शून्यता को अनुभव कर सकता है जो वास्तव में पूर्ण है। 


Saturday, November 6, 2021

जीवन में जब उतरे ध्यान

 अध्यात्म के बिना रोजमर्रा की उलझनों में खोया हुआ मानव जीवन के एक महान अनुभव से वंचित रह जाता है. नित्य ही हम जगत की अस्थिरता का अनुभव करते हैं, जिसकी शुरुआत हमारे तन से ही होती है. तन कभी स्वस्थ है कभी अस्वस्थ, आज युवा है तो कल वृद्ध होगा. हमारे देखते-देखते ही कोई न कोई परिचित काल के गाल में समा जाता है. मन की अवस्था भी एक सी नहीं रहती, सुबह जो मन उत्साह से भरा था शाम होते-होते शारीरिक अथवा मानसिक थकान से मुरझा जाता है. वक्त पड़ने पर बुद्धि भी साथ नहीं देती, सदा बाद में स्मरण आता है कि इस प्रश्न का उत्तर यह दिया जा सकता था. हर किसी को कभी न कभी पराजय का मुख देखना पड़ता है. जब बाहर कुछ भी हमारे नियंत्रण में प्रतीत न हो रहा हो तब भी हमारे भीतर एक सत्ता ऐसी है जो कभी बदलती ही नहीं, जो ऊर्जा से भरपूर है, उत्साह, शांति और आनंद जहाँ सहज ही निवास करते हैं. ध्यान के द्वारा ही हम उस अवस्था का अनुभव कर सकते हैं. गहरी नींद की अवस्था में अनजाने में हर कोई वहीँ पहुँच जाता है, इसी लिए नींद के बाद हम तरोताजा अनुभव करते हैं. 

Monday, November 1, 2021

जीवन में जब सत्व जगेगा

नित्य सुख, नित्य ज्ञान, नित्य आनंद मानव की मूलभूत आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति सत्संग से होती है. जीवन की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति की भांति सत्संग की ओर भी वही परमात्मा ही ले जाता है, वह उन्हें उनसे ज्यादा जानता है. उनकी उन्नति की उसे उनसे अधिक परवाह है. कुछ ऐसा मानते हैं, वह जिससे प्रसन्न होता है उसे सांसारिक आकर्षणों से वियुक्त करता है और जिससे रुष्ट होता है उनके तमोगुण व रजोगुण की वृद्धि देता है. किंतु सत्य यह है कि जो उसके प्रति कृतज्ञ है, आभारी है, वह सत्व गुणों को धारण करने लगता है।  सात्विक भावों का आदर करने की क्षमता उसे ही मिलती है जिसे सहज ही सत्य और अहिंसा प्रिय है. जगत का अनुभव है कि मृत्यु के क्षण में इस दुनिया में हर कोई पूर्णत: अकेला है, उस समय सिवाय परमात्मा के वह किसी पर भी निर्भर नहीं हो सकता. हरेक की अपनी दुनिया होती है जो उसने स्वयं ही बनाई है पर जब उस दुनिया में परमात्मा अपना अधिकार कर लेते हैं तो वह अकेलापन एकांत में बदल जाता है।

Saturday, October 23, 2021

बहे काव्य की धारा अविरल

काव्य कल्पना की वायवीय उड़ान है तो गद्य वस्तविकता की ठोस भूमि पर चलना। दोनों के क्षण मानव के जीवन में आते रहते हैं। किसी अनोखे आनंद को पाकर, कुछ ऐसा जानकर जो पहले कभी  जाना नहीं गया था अथवा कुछ ऐसा जानकर जो इस जगत का भी जान नहीं पड़ता, मन उस अलौकिक लोक में विचरण करता है। उस रस को व्यक्त करना गद्य में सम्भव ही नहीं है। वह इतना सूक्ष्म है कि शब्दों में भी नहीं समाता, तब कुछ परिचित शब्दों में उसे बहाया जाता है जैसे भूमि पर कोई लकीर खींच दे और बहता हुआ जल उधर की तरफ़ बह जाए। कवि केवल उस अनाम अनुभव को एक रास्ता देता है और वह जो उसके मन को घेरे हुए था, वह ऊर्जा शब्दों के रूप में बह जाती है। शब्द ऊर्जा ही तो हैं, जिनमें भावों का परिवर्तन होता है,  फिर वे स्थित हो जाते हैं। गतिमय ऊर्जा स्थाई हो जाती है। दूसरी ओर जब भीतर का अनुभव स्थायी हो गया हो तो मन में वेग नहीं उठता और अब स्थायी ऊर्जा को गतिमान बनाना है तो गद्य का जन्म होता है। भीतर एक स्थिरता है, शांति है और भाव भी शांत हो गये हैं। कौतूहल अब पहले की तरह ज़मीन से उखाड़ नहीं देता आकाश में उड़ने के लिए, इसलिए शब्द थम- थम कर आते हैं। 


Wednesday, October 20, 2021

जीवन में जब लय जगेगी

जीवन की सम्भावनाएँ अनंत हैं। हमारे अनंत जन्म हो चुके हैं फिर भी हम बार-बार इस जगत में लौटते हैं क्योंकि जीने के सही तरीक़े हमने सीखे नहीं हैं। यदि जीवन स्वकेंद्रित होगा तो अन्यों के साथ अन्याय होने की सम्भावना बनी ही रहेगी। यह मानव देह हमें उपहार में मिली है, श्वासें अनमोल हैं। हमारे भीतर अनछुई शक्ति के भंडार हैं जिन्हें माँगने पर ही दिया जाएगा। कुछ ही पल ऐसे होते हैं जब हम पूर्ण होश में होते हैं, ऐसा होश जो हमें हमारी स्मृति दिला देता है, देह से परे देखने की क्षमता देता है।यदि जीवन में एक लय हो, आगे बढ़ने की ललक हो तो हर पल कुछ न कुछ सीखने को मिलता है।


Wednesday, October 13, 2021

जीवन ही जब बने साधना

साधना के द्वारा जब जीवन से जड़ता और प्रमाद चले जाते हैं, तभी किसी न किसी नवीन  सृजन का कार्य आरम्भ होता है। मन से परिग्रह का उन्माद भी खो जाता है और सहज संतोष अनुभव होता है। भय तभी होता है जब कुछ बचाए रखने की कामना रहे, इसलिए अपरिग्रह सधते ही अभय का जन्म साधक के जीवन में होता है। ऐसा व्यक्ति ही निस्वार्थ  प्रेम दे सकता है। उसके मन में कृतज्ञता की भावना पनपती है और हर उपलब्धि को वह ईश्वर का अनुग्रह मानकर स्वीकार करता है।अब  राग-द्वेष की आँच नहीं जलाती अपितु निरंतर एक सजगता बनी रहती है। उसके कर्म अब बंधन का कारण नहीं बनते बल्कि  मन को शुद्ध करने के हेतु बनते हैं। चित्तशुद्धि होते-होते  साधक एक न एक दिन समाधि के परम आनंद  को प्राप्त होता है। 


Sunday, October 10, 2021

उसको अपना माना जिसने


संत कहते हैं, जिसे अपने पता नहीं है उसे ही अभिमान, ममता, लोभ सताते हैं. मन का यह नाटक तब तक चलता रहता है जब तक हम अपने शुद्ध स्वरूप को नहीं जानते. खुद को जानना ही जीवन जीने की कला है. हम  स्वयं के कण-कण से परिचित हों, मन और तन में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों के प्रति सजग रहें. कब कौन सा विकार मन में उठ रहा है इसके प्रति तो विशेष सजग रहें. आधि, व्याधि और उपाधि के रोग से हम सभी ग्रसित हैं, जो क्रमशः मन, तन और धन के रोग हैं, इनका इलाज समाधि है. समाधि में मन यदि समाहित रहे तो कोई दुःख नहीं बचता. क्रोधित होते हुए भी भीतर कुछ ऐसा बचा रहता है, जिसे क्रोध छू भी नहीं पाता, भीतर एक ठोस आधार मिल जाता है, चट्टान की तरह दृढ़. तब कोई भयभीत नहीं कर सकता न किसी को हमसे भयभीत होने की आवश्यकता रहती है. वास्तविक जीवन तभी शुरू होता है. अपने भीतर उस परमात्मा की उपस्थिति को महसूस करते ही सारे अज्ञान और अविद्या से पर्दा हट जाता है. तब देह की उपयोगिता इस आत्मा को धारण करने हेतु ही नजर आती है, सुख पाने हेतु नहीं ! मन सात्विक भावों को प्रश्रय देने का स्थल बन जाता है,  विकारों की आश्रय स्थली नहीं. तन के रोग हों या मन की पीड़ा सभी का अंत उसका आश्रय लेने पर हो जाता है. सद्गुरु के बिना यह ज्ञान नहीं मिलता, वे उनके सच्चे स्वरूप के दर्शन कराते हैं, उसके बाद तो वह सांवला सलोना स्वयं ही आकर हाथ थाम लेता है, उसको एक बार अपने मान लें तो फिर वह स्वयं से अलग होने नहीं देता !


Friday, October 8, 2021

समरसता जब सध जाएगी

 जीवन में सामंजस्यऔर समरसता की साधना करने के लिए शरीर का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है. शरीर का यदि पूरा ज्ञान हो और शरीर के अंगों पर ध्यान किया जाये तो अपने आप ही सामंजस्य की भावना भीतर आने लगती है. शरीर के विभिन्न अंग मिलजुल कर मस्तिष्क की सहायता से काम करते हैं, उसी प्रकार हम समाज में तथा परिवार में रहकर सामंजस्य बना सकते हैं, सबसे जरूरी है हमारा अपने साथ सम्बन्ध अर्थात हमारे मन, बुद्धि  का आत्मा के साथ सम्बन्ध, फिर हमारा अपने निकटवर्ती जनों के साथ सम्बन्ध. जब हमारे शरीर की शक्ति का बोध हो जाता है तो प्रमाद, जड़ता तथा आलस्य नहीं रहता, भीतर एक स्फूर्ति का उदय होता है, वह स्फूर्ति हमारे सम्बन्धों में झलक उठती है, तब मन हर क्षण नया-नया सा रहता है, सम्बन्धों में बासीपन नहीं आता, कोई दुराग्रह नहीं रहता, मन तब एक अनोखी स्वतन्त्रता का अनुभव करता है, मन की ऐसी स्थिति कितनी अद्भुत है, कहीं कोई उहापोह नहीं, विरोध नहीं, कोई अपेक्षा नहीं, बिना किसी प्रतिकार व अपेक्षा के द्रष्टा भाव में जीना आ जाता है.

Sunday, October 3, 2021

मन असीम की शरण में जाए

हम जगत के लिए कैसे उपयोगी बनें यदि मन इसका चिंतन करे तो उसके सारे भय, आशंकाएँ और द्वंद्व खो जाएँगे। अहंकार केवल स्वयं के बारे में सोचता है और जैसे ही मन का विस्तार होता है, अहंकार के लिए कोई जगह नहीं बचती। इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है सीमित में दुःख है, असीम में विश्राम है। अनंत ही हमारे मन को समाधान दे सकता है। स्वयं को जगत से पृथक मानना व जगत को स्वयं का विरोधी मानना ही तनाव का कारण है। तनाव से ही तन व मन के कई रोग होते हैं। जब हम सारे अस्तित्त्व को अपना ही विस्तार देखते हैं तो मन खो जाता है। देह पंच तत्त्वों के स्थूल भाग से बना है और मन उन्हीं के सूक्ष्म भाग से। इस प्रकार देह सृष्टि का ही एक छोटा अंश है और मन इस विशाल मन का। चेतना भी विश्व चेतना का ही भाग है। यहाँ हर वस्तु दूसरे से संयुक्त है। यह पूरा ब्रह्मांड एक ही जीवित इकाई है। यदि हम स्वयं को इसका एक अंश मानते हैं तो कोई विरोध या प्रतिद्वंदिता नहीं रह जाती। मन से सारा विषाद खो जाता है और एक अपूर्व शांति का अनुभव होता है। 


Thursday, September 30, 2021

निज स्वभाव में टिक जाए जो

ईश्वर से यदि हमें प्रेम है तो यह सबसे सहज कार्य है, यह तो होना ही है, इसमें प्रयास करना पड़े तो हम असहज हो जाते हैं. ईश्वर है और हम हैं, और हममें प्रेम ही प्रेम है. जैसे सूरज है, दिन है, प्रकाश है. हमारा होना उतना ही सहज हो जाये जैसे साँस का आना-जाना तो हमें कोई अभाव नहीं रहता निज स्वभाव में रहते हैं, और प्रेम करना उसी तरह हमारा स्वभाव है जैसे कोयल का गाना और फूलों का खुशबू फैलाना. हमारे भीतर से दिव्य संगीत का फूटना भी उतना ही स्वाभाविक है और बंद आँखों को प्रकाश का दर्शन होना भी. स्वभाव में टिकते ही कुछ करना नहीं होता सब कुछ होने लगता है. कर्ता भाव नहीं रहता तो थकान का नाम भी नहीं रहता. अहंकार ही हमें विषाद ग्रस्त करता है, थकाता है दूसरों से पृथक करता है. अहंकार शून्य होते ही हम निर्भार हो जाते हैं फूल की तरह, हवा की तरह, आकाश की तरह. तब कोई प्रतिवाद नहीं, प्रतिरोध नहीं, आक्षेप नहीं, हम तब हम प्रकृति से अभिन्न हो जाते हैं.

असलियत को जो पहचाने


मन परमेश्वर की स्मृति में सहज रूप से लगा रहे, उसे लगाना न पड़े तो ही जानना चाहिए कि अंतर में प्रेम का अंकुर फूटा है. चारों ओर उसी परमात्मा का वैभव तो बिखरा है, उसी की सृष्टि का उपयोग हम करते हैं पर उसे भुला बैठते हैं. जबकि वह हर क्षण साथ है, दूर नहीं है. बस एक पर्दा है जो हमें उससे अलग किये हुए है. वह हर क्षण श्रद्धा का केंद्र बन सकता है, हर श्वास उसकी कृपा है. मन यदि हर क्षण उसी को अर्पित रहे तो इसमें कोई विक्षोभ आ भी कैसे सकता है. संसार की बातें उत्पन्न करने वाला भी वही है. यही आराधना ही राधा है, जिसके माध्यम से कृष्ण को पाया जा सकता है. वह आत्मा रूप में सबके भीतर है, जिसके प्रसाद के बिना मन आधार हीन होता है। बाहर का सुख टिकता नहीं, यह अनुभव बताता है. उस एक से प्रीति हो जाने पर परम सुख और सुविधा मिलती है वह कभी छूटती नहीं, अपने उच्च तत्व का साक्षात्कार करना यदि आ जाये तो देह के अस्वस्थ या मन के दुखी होने पर स्वयं को अस्वस्थ या दुखी मानना छूट जायेगा. जैसी दृष्टि होगी यह जगत वैसा ही दिखेगा. अँधेरी रात में एक ठूँठ को एक व्यक्ति चोर समझता है, दूसरा साधू और तीसरा रौशनी करके उसकी असलियत पहचानता है. हमें भी इस जगत की वास्तविकता को पहचानना है. न इससे आकर्षित होना है न ही द्वेष करना है. तभी हम मुक्त हैं.


Tuesday, September 21, 2021

तीन गुणों का जो साक्षी

इच्छा शक्ति, क्रिया शक्ति और ज्ञान शक्ति के रूप में  काली, लक्ष्मी और सरस्वती हमारे भीतर विद्यमान हैं। ये तीनों ही तमोगुण, रजो गुण तथा सतो गुण का भी प्रतीक हैं। तीनों गुणों के ऊपर एक ही ब्रह्म तत्व है। अलग-अलग नाम-रूप में वही एक तत्त्व समाया है। तीनों गुणों से पार जा कर ही मानव अपने सहज धर्म या स्वभाव का अनुभव करता है। सहज धर्म में स्थित रहना मानव को इन शक्तियों के शुद्ध रूप से जोड़कर रखता है। सहज धर्म से विचलन ही अहंकार है। आत्मा जब तीनों गुणों की साक्षी हो जाती है तो ब्रह्म तत्त्व में स्थित हो जाती है। उसे जानना ही आत्मसाक्षात्कार है। 



Saturday, September 18, 2021

ध्यान साधना होगा मन को

 ध्यान जब सधने लगता है तो कई अद्भुत अनुभव साधक को होते हैं. यह ज्ञात होता है कि हमारे भीतर कितनी सुंदरता छिपी है, जहाँ ईश्वर का वास है वहाँ सौंदर्य  बिखरा ही होगा. ईश्वर प्राप्ति की आकांक्षा को इन अनुभवों से बल मिलता है. शरीर की अवस्था चाहे कैसी भी हो, सत्संग, स्वाध्याय व साधना को कभी त्यागना नहीं है. बाहरी परिस्थितियां कैसी भी हों, अपने भीतर की यात्रा पर जाने से वे हमें रोकें नहीं. अनंत धैर्य के साथ धीरे-धीरे इस मार्ग पर बढ़ना होता है और हृदय में यह दृढ़ विश्वास लिये भी कि इसी जन्म में मंजिल मिलेगी. मन से ईश्वर का स्मरण कभी जाये नहीं तो मानना होगा कि उसने पूरी तरह इस पर अधिकार कर लिया है. सँग दोष  से बचना होगा और कमलवत् रहने की कला सीखनी होगी. वाणी का संयम व अन्तर्मुख होना भी आवश्यक है. संत कहते हैं, मधुमय, रसमय और आनन्दमय उस ईश्वर को पाना कितना सरल है. चित्त के विक्षेप से ही वह दूर लगता है लेकिन यह विक्षेप तो भ्रम है, टिकेगा नहीं. जबकि परमशक्ति  शाश्वत है, अटल है, आधार है सबका. वह कहीं जाती नहीं. केवल चित्त की लहरों को शांत कर उसका दर्पण स्वच्छ करना है. जो

Wednesday, September 8, 2021

मन जब खाली हो जायेगा

अनात्म का चिंतन न करना ही आत्मा में स्थित रहना है। जो संसार पल भर के लिए भी स्थिर नहीं रहता, उसको कितना भी संभाला जाए वह छूट ही जाएगा, पर जो इसे देख रहा है वह मन मृत्यु के बाद भी साथ जाएगा। मन में यदि कोई अभाव है तो उसे पूर्ण करने के लिए वह संसार का आश्रय लेता है. थोड़ी देर के लिए लगता है मन भर गया पर फिर रिक्त हो जाता है. जैसे भोजन के कुछ घण्टों बाद पुनः भूख सताती है. मन को यदि यह ज्ञात हो जाये कि उसका स्वभाव ही खाली रहना है तो वह उसे स्वीकार लेगा और उस अभाव की गहराई में जाकर पूर्णता का अनुभव करेगा. जब मन को भरने की हर चाह गिर जाती है तब भी कुछ  बचता है, वही आत्मा है. वह एक उपस्थिति मात्र है शांत और आनंद से भरी उपस्थिति. साधक जब संसार का चिंतन छोड़कर कुछ पलों के लिए चुपचाप बैठ जाता है, तो वह खालीपन दिव्यता से भरने लगता है. 


 

Wednesday, September 1, 2021

मुक्ति का जो मार्ग चुनेगा

जब मन सीमित होता है  तब असीम को जान नहीं पाता। उधेड़बुन में लगा रहता है तो विश्राम नहीं पाता । जब कुछ न कुछ चाहता है तब उतना ही पाता है। जिस क्षण भी हर चाह  खो जाती है,  अस्तित्त्व बरस जाता है। ध्यान का अर्थ है हर चाह, हर क्रिया, हर पहचान  खो जाए, वही रहे  जो सदा से है और सदा रहेगा। वहीं से प्रेम और शांति का दरिया बहेगा । उन पलों में कोई बोझ नहीं उठाना होगा, किसी को कुछ करके नहीं दिखाना होगा। ऊर्जा निर्बाध तन में बहेगी, प्रकृति  जिसका उपयोग सहज ही करेगी। कृत्य होंगे पर कर्ता नहीं होगा। ध्यान मुक्ति का मार्ग दिखाता है और  स्वयं से मिलाता है। 


Monday, August 30, 2021

जीवन में जब ध्यान घटेगा

घनीभूत चेतना हमारी सम्भावना है. हमारे चारों ओर जो प्रकाश बिखरा है, यदि उसे केंद्रित किया जाये तो अग्नि पैदा हो जाती है. चेतना का सागर हमारे चारों ओर लहर रहा है. ध्यान के अभ्यास के द्वारा उसे घनीभूत कर दें तो भीतर नए जगत का निर्माण हो जाता है. चैतन्य की अनुभूति ऐसे ही क्षणों में होती है, वह आनंद घन है, रसपूर्ण है, प्रतिपल नूतन है. वह सहज और सरल है. उसी से जीवन का प्राकट्य हुआ है.

Thursday, August 26, 2021

निज संस्कृति का सम्मान करे जो

भारतीय संस्कृति अनूठी है, यहाँ जीवन को उसकी समग्रता में  सम्मानित करने का भाव है. जीवन के आरम्भ होने से पूर्व ही उसे संस्कार के द्वारा परिष्कृत करने की व्यवस्था है. यदि सही अर्थ के साथ वेद मन्त्रों का पाठ तथा अध्ययन किया जाये तो जीवन को दिशा देने वाले सूत्र उनमें छिपे हैं. हमारी प्रार्थनाएं विश्व कल्याण की कामना लिए हुए हैं. सर्वे भवन्तु सुखिनः.. यदि हम नित्य प्रति अर्थ की प्रतीति करते हुए गाते हैं तो संसार के समस्त जीवों की शुभ भावना से भर जाते हैं. असतो मा सद गमय.. आदि तीन प्रार्थनाएं जीवन को उसके अंतिम लक्ष्य मोक्ष की तरफ ले जाने वाली हैं और त्वमेव माता च पिता त्वमेव.. परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना का भीतर सहज ही संचार करती है, जिससे भीतर अभय का जन्म होता है. या देवी सर्वभूतानां... में देवी को विद्या, निद्रा, क्षुधा, शक्ति आदि जीवन के हर रंग के रूप में देखा गया है. हमारी पाचन अग्नि के रूप में स्वयं कृष्ण भोजन को पचाते हैं तथा वाणी के रूप में वाग देवी कंठ में निवास करती हैं. हमारे मूलाधार में गणेश का वास है. यहां शरीर को देवालय कहा गया है. जिसके नौ द्वार बाहर की ओर खुलते हैं तथा दसवां द्वार भीतर की ओर. जीवन का इतना सम्मान जहाँ हो वहाँ प्रेम, करुणा और उदारता के उदहारण हजारों के रूप में मिलते हैं इसमें आश्चर्य कैसा ? 


Monday, August 23, 2021

जो जैसा मन जाने न वैसा

 

हम जो हैं जैसे हैं, उसे पूर्ण रूप से स्वीकार करना होगा, क्योंकि चुनाव करने वाला मन या बुद्धि अभी स्वयं ही बंटे हुए हैं, उनके द्वारा लिया गया निर्णय अनिर्णीत ही रह जायेगा. जब मन पूर्ण विश्रांति में होगा, भीतर शुद्ध चेतना का आविर्भाव होगा.  जहाँ कोई दूसरा नहीं होता ऐसी स्थिति में स्वयं को स्वयं की अनुभूति होती है. वहाँ कोई अस्वीकार नहीं है, सब कुछ एक से ही प्रकट हुआ है, ऐसी स्पष्ट प्रतीति है. ऐक्य की उस अवस्था में स्वयं को तथा जगत को वे जैसे हैं वैसे ही स्वीकारने की क्षमता प्रकट होती है. 


Thursday, August 19, 2021

ध्यान फलित हो जब जीवन में

जब मन सीमित होता है  तब असीम को जान नहीं पाता। उधेड़बुन में लगा रहता है तो विश्राम नहीं पाता । जब कुछ न कुछ चाहता है तब उतना ही पाता है। जिस क्षण भी हर चाह  खो जाती है,  अस्तित्त्व बरस जाता है। ध्यान का अर्थ है हर चाह, हर क्रिया, हर पहचान  खो जाए, वही रहे  जो सदा से है और सदा रहेगा। वहीं से प्रेम और शांति का दरिया बहेगा । उन पलों में कोई बोझ नहीं उठाना होगा, किसी को कुछ करके नहीं दिखाना होगा। ऊर्जा निर्बाध तन में बहेगी, प्रकृति  जिसका उपयोग सहज ही करेगी। कृत्य होंगे पर कर्ता नहीं होगा। ध्यान मुक्ति का मार्ग दिखाता है और  स्वयं से मिलाता है। 


Sunday, August 1, 2021

शिव-शक्ति से भरा जगत यह


शिव और शक्ति जगत के माता-पिता हैं, शिव अर्थात शुद्ध चैतन्य और शक्ति,  उसमें निहित अनंत शक्तियाँ। सृष्टि में जो भिन्न-भिन्न प्रकार के पदार्थ हमें दिखाई पड़ते हैं, वे शिव की संकल्प शक्ति से ही जन्मे हैं। हमारे भीतर भी शिव तत्व है जिसका अनुभव ध्यान में किया जा सकता है, क्रिया शक्ति, ज्ञान शक्ति और इच्छा शक्ति जिसमें निहित हैं। जब ये तीनों शक्तियाँ एक होकर शांत हो जाती हैं तब केवल चैतन्य ही शेष रहता है। श्वास का लेना यदि शक्ति का कार्य है तो श्वास छोड़ने के बाद की विश्रांति शिव का अनुभव है। दिन में हम कार्य करते हैं जिसमें हर तरह की शक्ति की आवश्यकता होती है, पर रात्रि में विश्राम के लिए सब कुछ छोड़ देना होता है, इसलिए रात्रि को शिव रात्रि कहा जाता है। ध्यान में भी कुछ करना नहीं है केवल विश्राम करना होता  है, तभी शुद्ध चेतना का अनुभव किया जा सकता है। इसी तरह कर्ता भाव से मुक्त होकर ही हम स्वयं में विश्राम पा सकते हैं।

Tuesday, July 13, 2021

मुक्त हुआ जो प्रेम करे वही

 प्रेम वहां नहीं होता जहाँ कोई उसका प्रतिदान चाहता है, वहाँ तो व्यापार होता है और जब किसी का मन अपनी ख़ुशी के लिए किसी अन्य पर निर्भर करता है तो वह आजाद नहीं है, वह प्रेम नहीं कर सकता. यह खुबसूरत दुनिया और इसमें बसने वाली हर शै से हमें प्यार तो करना है पर उन पर निर्भर नहीं होना है. आत्मनिर्भरता ही निडरता को जन्म देती है, जब हम किसी पर निर्भर नहीं रहेंगे तो भयभीत होने की भी जरूरत नहीं, एक नाजुक, बेसहारा, कमजोर और आश्रित होकर जीने से कहीं बेहतर है मजबूत आत्मशक्ति के साथ जीना, क्योंकि वह शक्ति कहीं बाहर से मिलने वाली नहीं है, हमारे अंदर ही मौजूद है. जगत में सच का सामना करते हुए निर्भयता पूर्वक अपनी बात कह देने का आत्मविश्वास लिए जीना ही सही मायनों में आजाद होकर जीना कहा जायेगा.

Sunday, July 11, 2021

जैसे कर्म करेगा मानव

प्रारब्ध ने हमें जो भी दिया है उसे सहर्ष स्वीकार करके हम जीवन को जीते हैं तो कई मुश्किलों से सहज ही बचे रहते  हैं। जो भी बीज हमने अतीत में बोए हैं उनकी फसल हमें ही काटनी होगी। जिस मन में राग जगाया था, उसी में द्वेष की दीवार भी अपने आप खड़ी हो जाती है, जिसे हमें ही पाटना होगा। कोई भी कर्म देर-सवेर अपना फल दिए बिना नहीं मिटता है। जो भी हमें मिला है यदि उसे सबके साथ साझा करने की मंशा के साथ जीवन को जिएँ तो यह स्वतः ही सुंदर बन जाता है। एक परम शक्ति जो परम ज्ञानमयी भी है सदा ही इस सृष्टि का लालन-पालन कर रही है, उसका हाथ सदा ही हमारे सिर पर है, वह हमसे दूर नहीं है, इतना भरोसा मन में रखकर यदि हम जीवन के पथ पर कदम रखते हैं तो हर बाधा अपने आप ही मिट जाती है। अपने अंतर की गहराई में जाकर ही सच्चे जीवन से परिचय होता है और तब यह ज्ञान होता कि दुःख के बीज बोना या सुख के बीज बोना हमारे अपने हाथ में है। सजग होकर जीने की कला जिसने सीख ली है वही योग को प्राप्त हो सकता है।   

Thursday, July 8, 2021

करत करत अभ्यास ते

 हम प्रतिदिन अपने घर और आसपास की सफ़ाई करते हैं, वस्त्रों को स्वच्छ करते हैं किंतु गंदगी अपने आप ही आ जाती है। इसी तरह देह को स्वस्थ रखने और मन को प्रसन्न रखने का हमें अभ्यास करना होता है, मन में दुःख या चिंता अपने आप ही जाती है। यदि हमने साधना के द्वारा सुखी या संतुष्ट होने का अभ्यास नहीं किया तो मन स्वतः नकार की ओर जाता है। यदि मन में कामना है तो दुःख आने ही वाला है, यदि स्वयं में सुख लेने की कला सीख ली है तो कामनाएँ अपने आप ही सूखे पुष्पों की तरह झर जाती हैं। ज्ञान में स्थिर होने का अर्थ ही यही है कि हर परिस्थिति में मन की समता बनाए रखें। सुख में सुखी और दुःख में दुखी तो सभी होते हैं लेकिन जिसने अभ्यास किया है वही विचलित नहीं होता। 


Saturday, July 3, 2021

कर्म यदि निष्काम हो सकें

 जब हम अपने भीतर शक्ति के स्रोत से जुड़ जाते हैं तब हमसे सहज ही ऐसे कर्म होते हैं जिनमें कर्ता भाव नहीं होता. निष्काम कर्म अथवा सेवा कर्म ऐसे ही कर्मों को कहते हैं. जगत को सुंदर बनाने के लिए अथवा किसी की सहायता के लिए किये गए ऐसे कर्मों से कोई कर्म बन्धन नहीं होता. आत्मा की शक्ति अनायास ही हमें ऐसे कर्मों को करने के लिए प्रेरित करती है. श्रम की महत्ता को समझकर हम कामगारों व मजदूरों के प्रति सम्मान की भावना भी जगाते हैं. ध्यान के द्वारा स्वयं के वास्तविक स्वरूप का परिचय पाना साधना की पहली सीढ़ी है. इसके बाद जगत कल्याण के लिए उस ऊर्जा का उपयोग अगला पड़ाव है. इससे हम प्रारब्ध से मिलने वाले सुख के प्रभाव से अछूते रह जाते हैं और अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं. सृष्टि के आयोजन में परमात्मा के साथ मिलकर हम भी अपना योगदान दे रहे हैं ऐसी भावना हमें सदा प्रसन्नचित्त रखती है. 


Monday, June 14, 2021

स्वधर्म में जो टिक पाए

 भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से स्वधर्म में स्थित होकर युद्ध करने के लिए कहते हैं. स्वधर्म यानि आत्मा का धर्म, प्रेम और शांति का धर्म ! हृदय में प्रेम रहे और अंतर की गहराई में स्थित शांति का अनुभव होता रहे, उसके बाद ही कोई जीवन के संघर्ष में बिना किसी भय के उतर सकता है. यदि भीतर क्रोध है और मन अशांत है तो जीवन का संघर्ष हम लड़े बिना ही हार सकते हैं. यदि लड़ते भी हैं तो हमारी आधी ऊर्जा अपने आपको संभालने में ही व्यय होती है. हम अपने जीवन में कई धर्म निभाते हैं, एक मानव का धर्म, नागरिक का धर्म, पुत्र या पिता का धर्म, पति या पत्नी, शिष्य या शिक्षक का अथवा अपनी आजीविका कमाते समय अधिकारी या कर्मचारी का धर्म. ये सभी धर्म कभी-कभी एकदूसरे के विरोधी हो सकते हैं. देश सेवा करते हुए कोई अपने परिवार के प्रति उपेक्षा कर सकता है. कोई अपने काम में इतना खो जाता है कि परिवार स्वयं को उपेक्षित महसूस करता है. किन्तु यदि कोई आत्मा के धर्म में स्थित रहकर इन्हें निभाये तो सभी धर्म स्वतः ही निभने लगते हैं. जीवन में प्रेम और शांति के फूल खिले हों तो कोई भी कर्म सहज होता है उसके लिए विशेष श्रम नहीं करना पड़ता. इसी कारण श्रीकृष्ण अर्जुन को योगी होने का उपदेश देते हैं. 


Monday, June 7, 2021

शुभता का जो वरण करेगा

 आज तक हमने जो भी किया उसका फल तो हमें मिलने ही वाला है, वह हमारा भाग्य बन गया है जो एक न एक दिन सम्मुख आएगा, किन्तु इस क्षण के बाद हम मनसा, वाचा, कर्म जो भी करने वाले हैं, वह अभी हमारे हाथ में है. हम यदि चाहें तो अपने कर्मों के प्रवाह को शुभ की तरफ मोड़ सकते हैं और अपने भाग्य को अपने अनुकूल गढ़ सकते हैं. इसमें सबसे बड़ा सहायक है भीतर का अखण्ड विश्वास और सत्य को जानने का अभिलाषा. परमात्मा परम शुभता का प्रतीक है, वह शांति, आनंद और प्रेम का अनंत सागर है, यदि हम उसका स्मरण मात्र करते हैं तो अंतर को उतनी देर के लिए उसके गुणों से भर लेते हैं. धीरे-धीरे कर्मों को करते समय भी उसका स्मरण बना रह सकता है. मन क्रोध या लोभ का शिकार नहीं होता, ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा, दिखावे की अग्नि में नहीं जलता. सदा स्वयं को औरों से बेहतर बताने की संसारी प्रवृत्ति अपने आप छूटने लगती है. मन सात्विक बल और साहस से भर जाता है और पुराने किसी कर्म का प्रतिकूल फल आने पर भी वह भीतर समता भाव बनाये रखता है. उपासना ऐसा कर्म है जो करते समय व भविष्य में भी सुख से भर देने वाला है. 


Wednesday, June 2, 2021

जाकी रही भावना जैसी

 श्रद्धा की पूर्णता तभी है जब हम स्वयं के प्रति पूर्ण आश्वस्त हो जाएँ, हम अपनी क्षमताओं के प्रति, अपने इरादों के प्रति तिल मात्र भी संदेह नहीं रखें। हमारा मन पूर्ण श्रद्धा से भरा है तो जगत का व्यवहार स्वयं ही बदल जाता है। यह सारा जगत एक ही तत्व  से बना है, यहाँ एक के प्रति किया गया संदेह पूर्ण के प्रति ही सिद्ध होता है। इसका आरम्भ स्वयं से ही होता है। अपने भीतर उस परमात्मा की उपस्थिति को महसूस करते हुए जब हम जीते हैं तो संदेह कैसा ?स्वयं के प्रति किया अविश्वास ही जगत के प्रति हमारे संदेह का कारण है, और वही औरों के द्वारा हमारे प्रति किए गये व्यवहार में प्रतिफलित होता है। दूसरे हमारे साथ जो भी व्यवहार करते हैं, वह हमारे खुद के प्रति व्यवहार को ही दर्शाता है।


Tuesday, May 25, 2021

बुद्धम शरणम गच्छामि

 बुद्ध कहते हैं, जगत परिवर्तनशील है, यहाँ सब कुछ नश्वर है, वस्तुओं के पीछे भागना व्यर्थ है और संबंधों के पीछे भी, भीतर की शांति और आनंद को यदि स्थिर रखना है तो अपने भीतर ही उसका अथाह स्रोत खोजना होगा। शांति और आनंद से मन को भरकर ही करुणा के पुष्प खिलाए जा सकते हैं ! हमारे पास यदि स्वयं ही प्रेम नहीं है तो हम किसी को दे कैसे सकते हैं ! बुद्ध ध्यान पर बहुत जोर देते हैं और शील के पालन पर भी। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अलोभ और अक्रोध पर साथ ही प्रज्ञा पर भी। वे अनुभव करके स्वयं जानने को कहते हैं न कि किसी की बात पर भरोसा करके ! पहले मन को सभी इच्छाओं, कामनाओं, लालसाओं से ऊपर ले जाकर खाली करना होगा। यशेषणा, वित्तेषणा, पुत्रेष्णा और जीवेषणा से ऊपर उठकर भीतर के आनंद को पहले स्वयं अनुभव करना होगा फिर उसे बाहर वितरित करना होगा। वह कहते हैं, जगत में अपार दुख है, दुख का कारण अज्ञान है, अज्ञान को दूर करने का उपाय ध्यान है, ध्यान से ही दुख और शोक के पार जाया जा सकता है। अहंकार को मिटाकर ही कोई इस पथ का यात्री बनता है । धरती, पवन, अनल और जल की तरह धैर्यवान, सहनशील, परोपकारी और पावन बनकर ही बुद्ध ने अपने जीवनकाल में हजारों लोगों के जीवन को सुख की राह पर ला दिया था।


Monday, May 24, 2021

ज्योतिपुंज है कोई भीतर

 शास्त्रों में ईश्वर की तुलना आकाश से, आत्मा की सूर्य से, मन की चंद्रमा से और देह की पृथ्वी से की गई है। जिसमें सब कुछ टिका है, पर जो किसी पर आश्रित नहीं है, जब कुछ भी नहीं था तब भी जो था और कुछ नहीं होगा जो तब भी रहेगा वही आकाश है । जैसे कोई भव्य इमारत यदि खड़ी हो जाए तो आकाश की सत्ता जस की तस रहती है और गिर जाए तो भी कोई परिवर्तन नहीं होता। सूर्य के होने से ही धरती पर जीवन संभव है, इसी प्रकार आत्मा से ही देह में चेतनता है। जैसे चंद्रमा  सूर्य के प्रकाश को ही परावर्तित करता है, मन, आत्मा का ही प्रतिबिंब है। मन बाहरी  परिस्थितियों के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है।  कभी कभी सूर्य के सामने बादल आ जाते हैं और धरती पर अंधकार छा जाता है। अहंकार ही वह बादल है जो देह को आत्मा के प्रकाश से वंचित रखता है। यदि मन सदा समता में रहे तो आत्मजयोति उसमें एक सी प्रकाशित होगी और देह भी उस ज्योति से वंचित नहीं होगी। 


Wednesday, May 19, 2021

एक सनातन वृक्ष है जगत

 भागवत पुराण में यह वर्णन आता है. यह संसार एक सनातन वृक्ष है, इस वृक्ष का आश्रय है एक प्रकृति. इसके दो फल हैं - सुख और दुःख; तीन जड़ें हैं, सत्व, रज और तम. चार रस हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष. इसको जानने के पांच प्रकार हैं-कर्ण, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका. इसके छह स्वभाव हैं - पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना. इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएं - रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र. इसकी आठ शाखाएँ हैं - पंचमहाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार. मुख, दो आँखें आदि नव द्वार इसमें बने हुए खोड़र हैं. प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, देवदत्त, कूर्म, कृकल, नाग और धनजंय - ये दस प्राण ही इसके पत्ते हैं. इस संसार रूपी वृक्ष पर दो पक्षी हैं - जीव और ईश्वर . इस वृक्ष की उत्पत्ति का आधार भी ईश्वर है. यदि जीव अपना ध्यान इस वृक्ष से हटाकर ईश्वर पर लगाए तो सहज ही सुख-दुःख रूपी फलों के आकर्षण से बच सकता है, जिसके बाद ही उसे ईश्वरीय आनंद का अनुभव होता है. 


Monday, May 17, 2021

जब समाज में सत्व बढ़ेगा

 पुराणों में कथा आती है, जब-जब पृथ्वी पर असुरों का भार बढ़ गया तो उनके विनाश के उपाय करने पड़े. असुरों के सींग नहीं होते, वे भी मानव ही होते हैं. उनमें दैवीय अथवा मानवीय गुणों की अपेक्षा आसुरी प्रवृत्तियां अधिक प्रकट होती हैं. सात्विक भावों से भरे मानव देवता होते हैं. सात्विक व राजसिक दोनों गुणों से युक्त मानव तथा राजसिक व तामसिक गुणों से भरे हुए लोग असुर कहलाते हैं. जब जीवन में सत्व की कमी हो जाती है, लोग ईमानदारी को अपवाद तथा बेईमानी को जीवन व व्यापार का सहज अंग मानने लगते हैं, मिलावट, कालाबाजारी बढ़ जाती है. रिश्वत लेकर या देकर काम निकालना बुरा नहीं समझा जाता. जब विद्यालयों में अध्ययन के साथ साथ व्यसनाधीन होने की सुविधा भी मिलती है, तब आसुरी प्रवृत्ति बढ़ने लगने लगती है. अहंकार, धन या बल का प्रदर्शन आसुरी गुण हैं. मानव को सन्मार्ग पर लाने के लिए अस्तित्त्व द्वारा समय-समय पर उपाय किये जाते हैं. सम्भवतः आज हम उसी दौर से गुजर रहे हैं, यदि मानव अब भी नहीं संभला तो भविष्य में और भी कठिन समय से गुजरना पड़ सकता है. 


प्रकृति का भी मूल वही है

जैसा हमारा ज्ञान होता है, वह निर्धारित करता है कि हम क्या हैं ? यह जगत एक परिधि है और आत्मा उसके केंद्र पर है। हमें दोनों जगह रहना होता है। जितना हम केंद्र की तरफ जाते हैं, मन शांत होता है।  विचारों के पार जाकर  ही सत्य की अनुभूति होती है। एक महाज्ञान पूर्ण सत्ता के रहते हुए भी हम अज्ञानी का सा व्यवहार क्यों करते हैं, क्योंकि हमें पूर्ण  स्वतंत्रता है अपने को किधर ले जायें। ‘मैं’  प्रकृति  और चेतन  के सम्मिलित रूप का प्रतीक है। इस सम्मिलित रूप में जितना-जितना चेतनता का ज्ञान बढ़ता जाता है, ‘मैं मुक्ति की तरफ बढ़ता है।  जब ‘मैं’ प्रकृति के साथ जुड़ा होता है तब सुखी-दुखी होता है। प्रकृति ज्ञान देने को तैयार है, बुद्धि प्रकृति है. बुद्धि जब अपने मूल से जुड़ती है, तब हम अपने मूल को पहचानते हैं. स्वयं की पहचान होने पर भीतर की सामर्थ्य का ज्ञान होता है. अज्ञान की स्थिति में  हम स्वयं को असमर्थ समझते हैं। 


Saturday, May 15, 2021

भक्ति करे कोई सूरमा

 जब जीवन में उत्कृष्टता की चाह जगती है, तब भक्ति के प्रति जिज्ञासा मन में जगती है. जिनके जीवन में भक्ति रस प्रकट हुआ है वही भक्ति के बारे में बता सकता है. नारद कहते हैं, भक्ति प्रेम स्वरूपा है, प्रेम के बिना इस जगत में कोई रह नहीं सकता. प्रेम से ही सब कुछ प्रकट होता है पर  प्रेम विकारों के बिना नहीं मिलता. भक्ति वह प्रेम है जो अविकारी है, वह अमृतस्वरूप है. प्रेम का लक्षण है शाश्वतता का अनुभव होना. ईश्वर को प्रेम करना भक्ति का प्रथम लक्षण है, जो दिखता नहीं उस अदृश्य से प्रेम करने पर तृप्ति का अनुभव होता है. जब तक समय की अनुभूति होती है तब तक हम अमरता का अनुभव नहीं करते. ईश्वर के प्रति प्रेम जगते ही भीतर एक शांत, प्रसन्न चेतना जगती है. भक्त के जीवन में द्वेष नहीं रहता, शोक नहीं रहता. ज्ञान मन के विकारों को दूर करता है पर ज्ञान के ऊपर है भक्ति. ज्ञान हमें पूर्णता का अनुभव नहीं कराता. भक्त अपने भीतर एक मस्ती का अनुभव करता है, स्तब्धता का अनुभव करता है. ज्ञान का उदय होता है और क्षय होता है पर भक्ति कभी कम नहीं होती जो नित वृद्धि को प्राप्त होती है.

Monday, May 10, 2021

सहज मिले जो सुख टिकता है

सन्त और शास्त्र बार-बार कहते हैं, जो सुख किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति से हमें प्राप्त होता है, वह सीमित है तथा उसकी कीमत भी हमें चुकानी पड़ती है. हर सुख के पीछे उतनी ही मात्रा का दुःख छिपा है, जो देर-सबेर हमें सहन करना होगा. जो आज मित्र की तरह व्यवहार कर रहा है, वह कब क्रोध से भर जाये, कौन जानता है ? जो वस्तुएं आज हमारे पास हैं, जो व्यापार आज खड़ा किया है, उनके लिए कितना श्रम किया है. जो बगीचा आज बनाया है, उसको बनाते समय कितनी रातों की नींद गंवाई होगी. अब कुछ लोग जो यह बात समझते हैं, वे दुःख को दुःख नहीं मानते, सुख की प्राप्ति का एक साधन मानते हैं और हँसते-हँसते हर दुःख उठा लेते हैं, पर वे ये भूल जाते हैं जिसके लिए इतना श्रम कर रहे हैं वह सुख कितनी देर टिकेगा ? एक कीमती वस्तु या कोई आभूषण पाने के लिए श्रम किया पर जब मिल गया तो कुछ क्षण या कुछ दिन उसकी ख़ुशी मिली फिर तो वह तिजोरी में बन्द पड़ा है. उसकी सुध भी नहीं आती. यह सुख जो शर्तों पर टिका है, वह ऐसा ही होता है. आनंद जो बेशर्त है, वह असीम है. वह हमारा स्वभाव है, जब मन में कोई कामना न हो ऐसे किसी क्षण में वह सहज सुख भीतर ही भीतर रिसता है, पर हम उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देते, हमारा ध्यान तो बाहरी संसार पर ही अटका रहता है. 

 

Sunday, May 9, 2021

अमर आत्मा नश्वर है तन

 अर्जुन जिस विषाद योग में स्थित था आज उसी में हममें से हरेक स्थित है. युद्ध की स्थिति जितनी भयावह हो सकती है, उसी तरह की एक स्थिति, एक अदृश्य विषाणु से युद्ध की स्थिति ही तो आज विश्व के सम्मुख खड़ी है. अर्जुन को अपने गुरु, पितामह, चाचा, मामा, श्वसुर, भाइयों  तथा अन्य संबंधियों की मृत्यु का भय था. वह कहता है जब ये सब ही नहीं रहेंगे तब मैं युद्ध जीतकर भी क्या करूंगा. युद्ध न करने की बात कहकर जब वह धनुष रख देता है तब कृष्ण उसे आत्मा की अमरता का संदेश देते हैं. आत्मज्ञान पाना हो तो जीवन में ऐसा ही तीव्र संवेग चाहिए. जब कोई भी संवेदना चरम पर पहुंच जाती है तब मन ठहर जाता है और ग्रहणशील बनता है. आज हमारा मन ऐसी ही पीड़ा का अनुभव कर रहा है. कितने ही परिचित, अपरिचित जब सदा के लिए मौन हो रहे हैं तब भीतर यह प्रश्न उठता है कि अब क्या होने वाला है. गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ये सब राजा इस जन्म से पहले भी थे, और बाद में भी रहेंगे. जीवन पहले अप्रकट होता है मध्य में प्रकट होता है फिर अप्रकट हो जाता है. ज्ञानी जीवित और मृत दोनों के लिए शोक नहीं करते. युद्ध में जहाँ लाखों लोग अपने प्राण हथेली पर लेकर आये थे, ऐसा उपदेश देकर कृष्ण ने अर्जुन को आत्मा की शाश्वतता का बोध कराया. आज हरेक को उस ज्ञान को याद करना है. मानवता के इतिहास में ऐसी भीषण परिस्थितियां यदा-कदा ही आती हैं जो सामान्य जन को जीवन की सच्चाई से रूबरू कराती हैं. 


Thursday, May 6, 2021

गहराई में जो जा पाए

 आज दुनिया एक महामारी से जूझ रही है, किन्तु क्या यह पहली बार हुआ है, क्या इतिहास में हमें इसकी गवाही नहीं मिलती. कुछ वर्ष पहले भी सार्स, इबोला और भी कितने ही वायरस का मुकाबला मानवता ने किया है. यह सही है कि इस बार का हमला अभूतपूर्व है पर यह बिलकुल ही अचानक नहीं हुआ है. वैज्ञानिक इसकी चेतावनी देते रहे हैं, इस पर शोध कार्य भी दुनिया की कितनी प्रयोगशालाओं में चल रहा था. अब हमें लगता है सब कुछ खत्म हो गया है, किन्तु संत कहते हैं, दुनिया केवल सतह पर ही अपूर्ण दिखाई देती है। पूर्णता छिपी रहती है, अपूर्णता प्रकट होती है। ज्ञानी सतह पर नहीं रहता बल्कि गहराई में खोज करता है। जब हालात कठिन हों और जिनमें परिवर्तन करना हमारे बस में न हो तब परिस्थितियों को बदलने की कोशिश करने के बजाय हमें अपनी धारणाओं को बदलने की जरूरत है। ऐसे समय में आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका यह है कि हम अपना निर्धारित कार्य करते रहें और स्थितियों को उसी तरह स्वीकार करें, जैसी वे हैं. जिस क्षण हम किसी स्थिति को स्वीकार करते हैं, मन शांत हो जाता है और हमें प्रतिक्रिया के बजाय सोचने और कार्य करने के लिए एक स्पष्ट स्थान मिल जाता है। हम अपनी ऊर्जा का सही उपयोग कर सकते हैं. वर्तमान में हम कोरोना के प्रोटोकॉल का अनुसरण करके तथा जीवनशैली में उचित परिवर्तन करके स्वयं को स्वस्थ बनाये रख सकते हैं. 


Wednesday, May 5, 2021

श्वासों को जो साध सकेगा

 आज के वातावरण में जब चारों तरफ भय और आशंका का वातावरण है , मन को शांत रखना अति आवश्यक है. जब हमारा मन शांत और सहज होगा, तो हम अपने व परिवार के लिए सही निर्णय लेने की स्थिति में होंगे।  श्वास  लेने की विधि और ध्यान के अभ्यास ऐसी परिस्थितियों में मन को डूबने से बचाने के लिए अति आवश्यक हैं। ध्यान में हम वर्तमान में रहना सीखते हैं, यह हमें भविष्य की आशंका से मुक्त करता है। यह हमें अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना सिखाता है. मन में स्थिरता के लिए, हमें अपनी जीवनी-शक्ति या जीवन ऊर्जा के मूल सिद्धांतों को जानना चाहिए। यही प्राणायाम का पूरा विज्ञान है। जब हमारे प्राण या जीवनी शक्ति में उतार-चढ़ाव होता रहता है, तो हमारा मन भी भावनाओं के प्रवाह में ऊपर-नीचे होता रहता है। श्वास की लय को समझने से हमें मन में स्थिरता बनाए रखने में भी मदद मिलती है। हमारी श्वास में एक बहुत बड़ा रहस्य छुपा है। मन की हर भावना के अनुरूप  श्वास में एक समान लय होती है, और प्रत्येक लय शरीर के कुछ भागों को शारीरिक रूप से प्रभावित करती है। जब हम आनंदित होते हैं तो हम विस्तार की भावना महसूस करते हैं और दुखी होने पर संकुचन की भावना। जरूरत पड़ने पर हमें दृढ़ता दिखाने में सक्षम होना चाहिए और साथ ही क्षमा करना भी आना चाहिए। यह क्षमता सभी के भीतर मौजूद है, और इन अवस्थाओं में सहज रूप से प्रवेश करने व बाहर आने के लिए आवश्यक कौशल को ध्यान उजागर करता है।ध्यान से हमारे भीतर ब्रह्मांडीय चेतना का उदय होता है । जब हम खुद को जगत के अंश के रूप में देखते हैं, तो जगत और हमारे मध्य प्रेम दृढ़ता से बहता है। यह प्रेम हमें विरोधी ताकतों और हमारे जीवन की परेशानियों को सहन करने की शक्ति प्रदान करता है। क्रोध, चिंता और निराशा क्षणिक व विलीन हो जाने वाली क्षणभंगुर भावनाएँ बन जाती हैं. 


Sunday, May 2, 2021

नाम रूप के बनें साक्षी

 नाम और रूप से यह सारा जगत बना है, आत्मा उनसे परे है. काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद  और मत्सर हमें आत्मपद से नीचे उतार देते हैं, हमारी गरिमा से हमें च्युत कर देते हैं. रूप के प्रति आसक्ति को ही काम कहते है. कामना जगते ही लोभ उत्पन्न होता है, इच्छित वस्तु न मिलने पर या मिलकर टिके न रहने पर क्रोध होता है. क्रोध से अच्छे-बुरे का विवेक जाता रहता है. इस मोह से बुद्धि का विनाश हो जाता है. मन पर मद यानि एक बेहोशी छा जाती है और तब भीतर द्वेष का जन्म होता है और सारा सुख-चैन क्षण भर में हवा हो जाता है. आनंद में बने रहना आत्मा के निकट रहना है और दुःख, चिंता में बने रहना आत्मा से दूर चले जाना है. आँखें, रूप को देखती हैं, दोनों ही प्रकृति के अंग हैं और तीन गुणों से निर्मित हैं. आँखों के पीछे मन देखकर प्रसन्न होता है, आत्मा भी यदि स्वयं को मन या आँखें अर्थात देह मानकर प्रसन्न होने लगे तो वह अपने पद से नीचे आ गया, वह साक्षी मात्र बना रहे, मन व आँखों को प्रसन्न देखकर उसी तरह प्रसन्न हो जैसे दादाजी अपने पुत्र को उसके पुत्र से खेलते हुए देखते हैं. आत्मा तो स्वयं ही आनंद स्वरूप है, उसे जगत से सुख लेने की क्या आवश्यकता है ? वह स्वयं को भूली हुई है इसलिए कामनाओं के वशीभूत होकर सुख-दुःख का अनुभव करती है. यही तो अज्ञान है, जिससे गुरू हमें दूर करना चाहते हैं. गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, भगवद्गीता का यह वाक्य तब समझ में आता है. प्रकृति ही प्रकृति के साथ खेल रही है, पुरुष की उपस्थिति में. उसकी उपस्थिति के बिना कुछ भी सम्भव नहीं, पर वह स्वयं में पूर्ण है यह मानते हुए लीला मात्र समझकर जगत को देखना है.  जैसे रात का स्वप्न टूट जाता है वैसे ही दिन का स्वप्न भी मृत्यु के एक झटके में टूट जाने वाला है.  


Monday, April 26, 2021

मिलकर जब सब करें सामना

 कोरोना के खिलाफ जो जंग भारत ने लगभग जीत ही ली थी, सकुचाते हुए जिसकी विजय का जश्न भी मनाया था. उसे फिर हार न जाएं ऐसा डर आज हम सभी के मनों में समाया है। ऐसा लग रहा है जैसे हम सोते ही रहे और दुश्मन घर तक आ गया, और देखते ही देखते हर शहर, हर गली मोहल्ले में छा गया. आज सब ओर भय का वातावरण है लेकिन हमें याद रखना होगा, जो भयभीत है वह मन है। जो  उस भय को देखता है, वह हम हैं। जब हम कहते हैं मुझे भय लग रहा है, हम मन के साथ एकात्म हो जाते हैं. मन माया है. हम माया से बंध जाते हैं. जो जानता है, वह हम हैं जानने में एक दूरी है। इस दूरी का अनुभव करते हुए हम पुन: जीतेंगे इस दुगने विश्वास से लड़ना है. लॉक डाउन का पालन बड़ी सख्ती से करना है जीवनचर्या में प्राणायाम को शामिल कर प्राणों में नैसर्गिक वायु भरनी है. न कि अस्पतालों में आक्सीजन के लिए लंबी कतारें खड़ी करनी हैं.  हम भूल गए कि वायरस अभी जिंदा है, हर मौत जो किसी की कहीं हुई, उसके लिए हर भारतीय शर्मिंदा है। किन्तु हमें इसे अपनी कमजोरी नहीं बनने देना है। हर नागरिक हर नियम का कड़ाई से पालन करे, इस मुश्किल घड़ी में हमें मिलकर सुरक्षित निकलना है। अगली लहर आए उससे पहले ही मुस्तैदी से तैयार रहना है। स्वच्छता का दामन थाम पौष्टिकता का ध्यान रखना है। वैक्सीन लगवा कर प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करना है। सब उपाय करके अब घर-घर से वायरस को विदा करना  है। 



Thursday, April 22, 2021

तन, मन में जब एक्य सधेगा

 देह और मन एक-दूसरे के विरोधी जान पड़ते हैं , देह को विश्राम चाहिए और मन विचारों की रेल चला देता है, नींद गायब हो जाती है.  देह को काम करना है, व्यायाम करना है, मन आलस्य का तीर छोड़ देता है, कल से करेंगे, कहकर टाल जाता है. इसी तरह मन जब विश्राम चाहता है, ध्यान के लिए बैठता है तो देह साथ नहीं देती, यहाँ-वहाँ दर्द होता है और अदृश्य चीटियां काटने लगती हैं. मन जब अध्ययन के लिए बैठना है तो देह थकान का बहाना बनाती है. देह को भूख नहीं है पर स्वादिष्ट भोजन देखकर मन नहीं भरता. मन ऊर्जा है, अग्नि तत्व से बना है. देह में पृथ्वी, जल दोनों तत्व हैं और आग व पानी तो वैसे भी एक-दूसरे के विरोधी हैं. यदि देह व मन में समझौता हो जाये, एकत्व हो जाये, समन्वय हो जाये तो वे अग्नि और जल से मिलकर बनी भाप की तरह कितनी ऊर्जा को जन्म दे सकते हैं. देह भौतिक है, मन आध्यात्मिक, यदि दोनों में सामंजस्य हो जाये तो जीवन में एक नया ही आयाम प्रकट होता है. ऐसा होने पर काम के समय मन, तन को सहयोग देता है, विश्राम के समय देह भी मन को सहयोग देती है. दो होते हुए भी वे दोनों एक की तरह कर्म करते हैं, तब कोई द्वंद्व शेष नहीं रहता. स्वाध्याय तथा प्राणायाम का निरंतर अभ्यास इस लक्ष्य की ओर ले जाने में अति सहायक है.  यही अद्वैत की ओर पहला कदम है. 


Sunday, April 18, 2021

'है' को जो मन स्वीकार करे

 जो ‘है’ उस हम चाहते नहीं. क्योंकि वह है ही, जो ‘नहीं’ है उसे हम चाहते हैं और वह चाह हमें अशुद्ध करती है। कोई भी इच्छा हमें अपने स्वरूप से नीचे लाती है। तो क्या हम इच्छा करना ही छोड़ दें, नहीं, यदि छोड़ना ही है तो देहाभिमान को छोड़ना होगा। हर इच्छा देह से आरंभ होती है। जीव भाव छोड़ना होगा, यश की इच्छा जीव से जुड़ी होती है। अहंकार को छोड़ना होगा, कर्ता भाव अहंकार से जुड़ा है। मोक्ष कुछ करके हासिल नहीं किया जा सकता। यह एक भावदशा का नाम है, ऐसी भाव दशा का, जिसमें मन पूर्णत: रिक्त होता है, भूत या भविष्य का कोई विचार उसे प्रभावित नहीं करता, कोई चाह उसे अशुद्ध नहीं करती। मन जो निपट वर्तमान में है और स्वयं के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहता, वह मुक्त ही है।  


Monday, April 12, 2021

काली दुर्गा नमो नम:

आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक जगत में ये तीन प्रकार के ताप हैं जिनमें मानव जल रहा है। इस जलन से उसके अंतर की सारी सरसता सूख गई है, प्रेम भाव झुलस गया है, आनंद का स्रोत भी शुष्क हो गया है। जो मन शीतल जल की धारा के समान गतिमान हो सकता था वह एक छोटा पोखर बन गया है जिसमें पानी कम और कीचड़ अधिक है। इसी प्रकार बहती हुई एक नदी पहले नाला बनती है फिर एक दिन उसका जल भी सूख जाता है और वहाँ केवल निशान भर रह जाता है।  मन में यदि सरसता हो, उसकी माटी कोमल हो तो उसे मनचाहा आकार दिया जा सकता है। ऐसा लचीला मन किसी भी आघात को सह सकता है, भीतर समा लेता है, पर यदि मिट्टी सूख गई हो, तप गई हो तो जरा से आघात से टूट जाती है। मन की तुलना घट से भी की जाती है, जिसे साधना की शीतल आंच में जितना तपाया जाए वह उसे एक साथ कोमल व मजबूत बनाए रखती है । मन एक साथ सरस भी हो और बलशाली भी। कायर की अहिंसा का क्या महत्व और बलशाली की हिंसा किस काम की। हमें अपने मन को देवी के समान एक साथ दोनों गुणों से भरना है। देवी का गौरी रूप माँ का कोमल रूप है, जिसमें वात्सल्य, प्रेम, करुणा के भाव झलकते हैं पर उसका एक काली रूप भी है, वह निडरता से असुरों का नाश करती है। हमें किसी भी आपदा का मुकाबला करने के लिए एक तरफ समर्पण चाहिए, नियमों का पालन करना है, दूसरी तरफ हृदय की दृढ़ता से उसका मुकाबला भी करना है। नवरात्रि का पर्व यही संदेश लेकर आता है।    

 

Sunday, April 4, 2021

जब आवै संतोष धन

 कर्म ही वह बीज है, जो हम प्रतिपल मन की माटी में बोते हैं, सुख-दूख रूपी फल उसी से उत्पन्न वृक्ष में लगते हैं. मनसा वाचा कर्मणा जो भी हम कर रहे हैं, उनके द्वारा हम हर घड़ी अपने भाग्य का निर्माण कर रहे हैं. कर्म करने की शक्ति हरेक के भीतर निहित है, इसे भूलकर यदि कोई भाग्य के सहारे बैठा रहेगा तो उसे कौन समझा  सकता है. हर व्यक्ति कुछ न कुछ देने की क्षमता रखता है, हरेक के भीतर कोई न कोई योग्यता, विशेषता रहती है, जिसके द्वारा वह समाज का कुछ भला कर सकता है, उसे न देकर यदि हम सदा कुछ न कुछ मांगते ही रहेंगे तो अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं करेंगे और एक दिन उन्हें भूल ही जायेंगे. यदि देने का भाव किसी के भीतर जगे तो अल्पहीनता का भाव अपने आप मिट जाता है. इसके बाद ही मन में सन्तोष का जन्म होता है और तब बिना मांगे ही अस्तित्त्व की कृपा का अनुभव होने लगता है. मन स्वतः ही परम के प्रति झुक जाता है और तब हर कर्म से उसकी ही पूजा होती है, ऐसा अनुभव होता है. मानव को ईश्वर की दया दृष्टि की कामना नहीं करनी है, वह तो सदा ही मिल रही है, बस हमें अपनी दृष्टि में परिवर्तन करना है जो अभी अपने कर्मों से केवल अपने सुख की मांग करती है. 


Friday, April 2, 2021

चिर वसन्त की चाह जिसे है

 साधना में कुछ पाना नहीं है, खोना है. तन, मन दोनों से पसीना बहाकर विषैले तत्वों को बाहर निकालना है. जीवन एक पुष्प की तरह खिले इसके लिए मन की माटी में भक्ति का बीज बोना होगा, श्रद्धा का बीज, आस्था का बीज, जो धीरे-धीरे जड़ें फैलाएगा और स्वार्थ के सारे कूड़े-करकट को खाद बनाकर उसे सुंदर आकार, रंग और गन्ध में बदल देगा. धरती में वह क्षमता है , वैसे ही मन की माटी में भी. हम जो भी सच्चे मन से चाहते हैं वह हमें दिया ही जाता है. यहां कोई पुकार कभी व्यर्थ नहीं जाती. सुख उत्तेजना का नाम है या आसक्ति का, दुःख द्वेष का नाम है अपनी इच्छा पूरी न होने का. आनंद तो एक विशेष मन:स्थिति है जो किसी बाहरी वस्तु, व्यक्ति या घटना पर आधारित नहीं है. वह तो सदा ही एक रस है. साधक को जब अपनी निर्विकार स्थिति का भान होता है, तभी आनंद का अनुभव होता है. हम जो भी देखते हैं वह हमसे बाहर है, यदि हमें स्वयं को देखना हो तो कैसे देखेंगे ? पतंजलि कहते हैं जब देखे हुए और सुने हुए के प्रति आकर्षण न रहे तब चेतना स्वयं में लौट आती है, तब स्वयं के द्वारा ही स्वयं को देखा जाता है. तब साधक के जीवन में चिर बसंत का पदार्पण होता है


Monday, March 29, 2021

सत की नाव खेवटिया सदगुरू

हर वह कर्म जो निज सुख की चाह में किया जाता है, हमें बांधता है. जो स्वार्थ पर आधारित हों वे संबंध हमें दुःख देने के कारण बनते हैं. जब हम अपना सुख भीतर से लेने लगते हैं तब स्वार्थ उसी तरह झर जाता है जैसे पतझड़ में पत्ते, तभी जीवन में सेवा और प्रेम की नयी कोंपलें फूटती हैं. जब संबंधों का आधार प्रेम हो तभी उनकी ख़ुशबू जीवन को महका देती है. रजस हमें अपने ही सुख की चिंता करना सिखाता है, तमस उसके लिए असत्य का सहारा लेने से भी नहीं झिझकता. सत का पदार्पण ही ज्ञान की मशाल लेकर वास्तविकता का परिचय कराता है. जीवन में सत्व की वृद्धि करनी हो तो सत्संग उसकी पहली सीढ़ी है. शास्त्रों का अध्ययन व नियमित साधना उसके सिद्ध  मार्ग हैं. सत्व हमें अपने आप से जोड़े रखता है. यह अनावश्यक कर्मों से हमने बचाता है और कर्म हीनता से भी दूर रखता है. सत ही आत्मबल और मेधा को बढ़ाता है.