नित्य सुख, नित्य ज्ञान, नित्य आनंद मानव की मूलभूत आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति सत्संग से होती है. जीवन की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति की भांति सत्संग की ओर भी वही परमात्मा ही ले जाता है, वह उन्हें उनसे ज्यादा जानता है. उनकी उन्नति की उसे उनसे अधिक परवाह है. कुछ ऐसा मानते हैं, वह जिससे प्रसन्न होता है उसे सांसारिक आकर्षणों से वियुक्त करता है और जिससे रुष्ट होता है उनके तमोगुण व रजोगुण की वृद्धि देता है. किंतु सत्य यह है कि जो उसके प्रति कृतज्ञ है, आभारी है, वह सत्व गुणों को धारण करने लगता है। सात्विक भावों का आदर करने की क्षमता उसे ही मिलती है जिसे सहज ही सत्य और अहिंसा प्रिय है. जगत का अनुभव है कि मृत्यु के क्षण में इस दुनिया में हर कोई पूर्णत: अकेला है, उस समय सिवाय परमात्मा के वह किसी पर भी निर्भर नहीं हो सकता. हरेक की अपनी दुनिया होती है जो उसने स्वयं ही बनाई है पर जब उस दुनिया में परमात्मा अपना अधिकार कर लेते हैं तो वह अकेलापन एकांत में बदल जाता है।
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