Sunday, December 29, 2013

कण कण ऊर्जा हो सार्थक

जून २००५ 
इच्छाओं को पूरा करने के प्रयास में हम अपनी सहज आवश्यकता को भी भुला बैठते हैं. इस जगत में अपने चारों ओर लोगों को वस्तुओं का गुलाम बनकर दुखी होते हुए देखते हैं तथा कुछ सजग व्यक्तियों को अकिंचन होकर भी प्रसन्न देखते हैं. वास्तविकता को भूले हुए लोग अपनी आवश्यकता से अधिक सामान इकट्ठा करते रहते हैं, फिर उसकी साज-सम्भार में अपनी ऊर्जा को व्यर्थ गंवाते हैं. हमारी ऊर्जा का उपयोग स्वयं को तथा स्वयं के इर्दगिर्द का वातावरण संवारने में होता रहे तभी उसकी सार्थकता है. 

Saturday, December 28, 2013

सकल पदार्थ हैं जग माहीं

जून २००५ 
परमात्मा प्राप्ति की इच्छा पूर्ण होने वाली इच्छा है, पर संसार प्राप्ति की इच्छा कभी पूर्ण नहीं हो सकती. आवश्यकता तथा इच्छा में भी अंतर है, इच्छाओं का कोई अंत नहीं पर आवश्कताएं सीमित हैं. आवश्यकता की पूर्ति होती है, उसकी निवृत्ति विचार द्वारा नहीं हो सकती पर इच्छा की निवृत्ति हो सकती है. ईश्वर प्राप्ति की इच्छा वास्तव में हमारी आवश्यकता है, हर जीव आनंद चाहता है, क्योंकि वह ईश्वर का अंश है, उसमें अपने अंशी से मिलने की जो स्वाभाविक चाह है, वह उसकी नितांत आवश्यकता है. जैसे भूख, प्यास आदि आवश्यकताओं की पूर्ति भोजन, जल आदि से हम करते हैं, वैसे ही ईश्वर प्राप्ति के बाद ही हमारी आनन्द की आवश्यकता की पूर्ति होती है. 

Friday, December 27, 2013

सत्यं परम धीमही

जून २००५ 
हमारा भीतर जब तक बिगड़ा है, बाहर भी बिगड़ा रहेगा. झुंझलाहट, अहंकार, कठोर वाणी, अवमानना तथा प्रमाद ये सारे अवगुण बाहर दिखाई देते हैं पर इनका स्रोत भीतर है, भीतर का रस सूख गया है, सत्संग का पानी डालने से भक्ति की बेल हरी-भरी होगी फिर रसीले फल लगेंगे ही. संसार का चिन्तन अधिक होगा तो उसी के अनुपात में तीन ताप भी अधिक जलाएंगे. प्रभु का चिन्तन होगा तो माधुर्य, संतोष, ऐश्वर्य तथा आत्मिक सौन्दर्य रूपी फूल खिलेंगे. कितना सीधा-सीधा हिसाब है. अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष तथा अभिनिवेश आदि क्लेश हमें सताते हैं. आत्मज्ञान न होना, अहंकार, मृत्यु से भय तथा मोह इन्हीं के कारण हैं. बुद्धि जब तक सात्विक नहीं होगी, दृढ निश्चय वाली नहीं होगी तब तक इनके शिकार हम होते ही रहेंगे. ईश्वर से यही प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारी बुद्धि को प्रकाशित करे.

Thursday, December 26, 2013

जामे दो न समाए

मई २००५ 
‘प्रेम गली अति सांकरी जामे दो न समाए’ जीवन में यदि द्वंद्व है तो दुःख रहेगा ही. द्वैत के शिकार होते ही मन द्वेष करता है, थोड़ी सी भी निषेधात्मकता अथवा आग्रह उसे समता की स्थिति से डिगा देता है. यह तलवार की धार पर चलने जैसा है. भीतर जब एक धारा बहेगी, समरसता की धारा तब शांति तथा आनन्द फूल की खुशबू की तरह अस्तित्व को समो लेंगे. आकाश से बहती जलधार जब धरा को सराबोर करती है तो उसका कण-कण भीग जाता है, इसी तरह भीतर जब समता का अमृत स्रोत खुल जाता है तो प्रेम व आनन्द की धारा बहती है. मन का ठहराव ही आत्मा की जागृति है. आत्मा में स्थित होकर जीने का ढंग यदि सध जाये तो कुछ अप्राप्य नहीं है. 

Wednesday, December 25, 2013

हर राह उसी तक लाती है

मई २००५ 
“पहाड़ के नीचे की घास बनकर रहो, आंगन में उगा चमेली का वृक्ष बन कर रहो, मुसीबत आने पर पत्थर की चट्टान बन कर रहो और दीन-दुखियों के लिए शक्कर और गुड़ बन कर रहो”

एक महान कन्नड़ सन्त की सूक्तियां हैं ये. पहाड़ के नीचे की घास का अर्थ है अहंकार रहित होकर जीना, अहंकार युक्त मन ही प्रभु से दूर ले जाता है. चमेली का बिरवा अपने घर के साथ-साथ बाहर भी सुगंध फैलाता है. मन हमें उससे दूर ले जाता है जब हम अपने सुख में किसी अन्य को शामिल नहीं करते. मन यदि स्वार्थी है तो ही भीरु भी है, निडर, संवेदनशील मन जो दया से भरा हो किसी भी परिस्थिति में समता बनाये रह सकता है. जितना सम्भव हो सके स्वयं को सबके लिए उपलब्ध करा सकें तो जीवन अपने आप ही मधुर हो जायेगा, जो स्वयं के लिए गुड़ है वही तो अन्यों के लिए भी हो सकता है. परमात्मा की राह पर चलने वाले साधक को तो इतना सजग रहना ही होगा.

Tuesday, December 24, 2013

राम रतन धन पायो

मई २००५ 
सोना तप कर ही कुंदन होता है, हम भी इस जगत में तपने आये हैं, हम सब का जीवन कुंदन सा चमके अर्थात सब का मंगल हो यही भावना होनी चाहिए. जगत पदार्थ से बना है, हम अपदार्थ हैं, पदार्थ की अवस्थाएं बदलती रहती हैं, पर अपदार्थ सदा एक सा रहता है, हम वही अबदल अविकारी तत्व हैं, हमारा नाश नहीं होता हममें परिवर्तन नहीं होता, पर हम स्वयं को मन, बुद्धि, अहंकार आदि पदार्थों के साथ एक करके देखते हैं, तपकर उन्हें अलग करना है और स्वयं को अपने शुद्ध रूप में पहचान लेना है. ऐसा होते ही भीतर कैसी शांति जगती है, कण-कण प्रेम से भर जाता है. पूर्णता का अनुभव होता है, भीतर कोई अभाव नहीं रहता. यह पूर्णता मौन को जन्म देती है. मन भी चुप हो जाता है, मन का मौन ही आत्मा का जन्म है. उसे एक बार पा लेने के बाद कभी विस्मरण नहीं होता, वह ऐसा रत्न है जो एक बार मिल जाये तो साथ नहीं छोड़ता. वास्तव में तो वह सदा ही मिला हुआ है, पर उसकी चमक खो गयी है, साधना की अग्नि में तप कर उसे पुनः प्रकाशित करना है. 

तीनों के जो पार हुआ

मई २००५ 
स्थूल शरीर पांच तत्वों से बना है, सूक्ष्म शरीर अठारह तत्वों से बना है, पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पांच प्राण, मन, बुद्धि व अहंकार. कारण शरीर हमारी समस्त वासनाओं, कामनाओं तथा आकांक्षाओं से निर्मित है. मृत्यु के बाद स्थूल शरीर का नाश हो जाता है पर सूक्ष्म शरीर बना रहता है. यह तीनों शरीर तीन अवस्थाओं का बोध कराते हैं, जागृत अवस्था में स्थूल शरीर, स्वप्न अवस्था में सूक्ष्म शरीर तथा गहरी नींद की अवस्था में कारण शरीर सक्रिय रहता है. चौथी अवस्था में जाने के लिए इन तीनों के पार जाना होता है. हमारे शरीर के पांच कोष भी इन्हीं तीनों शरीरों में बद्ध हैं. जब तक एक भी इच्छा शेष है, तब तक हमें पुनः-पुनः जन्म लेना पड़ेगा. जब ज्ञान के द्वारा सभी वासनाओं का क्षय हो जायेगा, या भक्ति के द्वारा वे सभी दिव्य हो जाएँगी तभी हमें मुक्ति का अनुभव होगा. साधना के पथ पर चलते हुए जब भीतर विश्वास जगता है तब यह कार्य उतना ही सहज हो जाता है जितना पलक झपकाना. ईश्वर हमारे निकटस्थ है. वह सहज प्राप्य है.

Sunday, December 22, 2013

खुल जाये हर गाँठ

मई २००५ 
हमारे मन के चार खंड हैं. संज्ञा मानस का पहला खंड है, अर्थात कोई वस्तु सम्मुख आने पर उसकी प्रतीति होना, दूसरा खंड पहचान करने का काम करता है, तीसरा खंड है संवेदना जगाने का, चौथा खंड है प्रतिक्रिया करने का, तभी राग-द्वेष का जन्म होता है. ऊपर-ऊपर से लगता है किसी बाहरी कारण से राग-द्वेष जगता है पर सच्चाई यह है कि इन्हें हम स्वयं जगाते हैं. भोक्ता भाव जब तक भीतर है गांठें बंधती ही रहेंगी, साक्षी होकर उन्हें देखते ही वे खुलनी शुरू हो जाती हैं. हर संवेदना क्षण भंगुर है, नष्ट हो ही जाने वाली है फिर क्यों उसके प्रति राग जगाना या द्वेष जगाना. ऐसा करना सीखने पर कर्म संस्कार नहीं बनते, और यही तो साधक का लक्ष्य है. 

Saturday, December 21, 2013

तेरा नाम सांचा

मई २००५ 
किसी ने कितना सही कहा है, “सुबह का बचपन हँसते देखा, दोपहर की मस्त जवानी, शाम बुढ़ापा ढलते देखा, रात को खत्म कहानी” अज्ञानता में भी वैराग्य छा जाता है, लेकिन यह क्षणिक होता है जैसे श्मशान वैराग्य, जब भीतर सत्य की झलक मिल जाती है तो बाहर से राग अपने आप ही छूट जाता है. वास्तव में तो सत्य सदा ही भीतर है, अज्ञान का आवरण ही उसे ढके रहता है. लेकिन संसार से वैराग्य होने का अर्थ उसका अनादर नहीं है न ही उदासीनता, बल्कि उसका सत्यता को जानकर उसके अनुरूप व्यवहार करना है. प्रेमपूर्ण व्यवहार तो करना है पर फंसना भी नहीं है. यदि हम नित्य को छोड़कर अनित्य पर भरोसा करते हैं तो हमें धोखा खाना ही पड़ेगा. नित्य पर किया विश्वास हमें नित्य सुख की ओर ले जाता है. राग हो ईश्वर से और सेवा हो जगत की तो मन खाली रहता है क्योंकि जग से कुछ लेने की कामना तो है नहीं और ईश्वर को कितना भी भर लो वह तो आकाश की तरह है. 

Friday, December 20, 2013

चेतन अमल सहज सुख राशि

मई २००५ 
मन, बुद्धि, चित्त आदि साधन हमें आत्मा की शक्ति को उजागर करने के लिए प्राप्त हुए हैं तथा उस शक्ति को प्रेम व आनन्द के रूप में बांटने के लिए मिले हैं. जब हम इनका उपयोग अहंकार की सेवा में करते हैं, या अपने सुख के लिए करते हैं तब दुःख को आमन्त्रण देते हैं, जब इनका उपयोग ज्ञानपूर्वक करते हैं तब सहज ही सुख पाते हैं. हमें सुख यदि खोजना पड़े तो वह हमारे योग्य नहीं है, लखपति यदि कुछ रुपयों के लिए भटकता फिरे तो उसे क्या कहा जायेगा, वैसे ही हम अनंत सुख राशि ईश्वर का अंश होने के कारण स्वयं ही वह सुख छुपाये हैं जो हमें जगत को बांटना है न कि उससे मांगना है. जगत आनंद शून्य है, ओस की बूंदों की तरह सुख का आभास मात्र दे सकता है. ज्ञान ही हमें मुक्त करता है.  

Thursday, December 19, 2013

शरण में आये हैं हम तुम्हारी

मई २००५ 
कृष्ण कहते हैं, दम्भ, दर्प, कुटिलता, कठोरता आदि आसुरी सम्पत्ति के अंतर्गत आते हैं. जो ज्ञान अभी भीतर ही पाया है, आचरण में नहीं उतरा है, उसका प्रदर्शन करना दम्भ ही कहा जायेगा. अन्यों के सामने स्वयं को समझदार जान उनके दोष देखने की प्रवृत्ति ही दर्प है. दूसरों को दुखी देखकर भी अप्रभावित बने रहना ही कठोरता है, और कठोरता तब आती है जब हृदय सरल नहीं होता. साधना के द्वारा हम इन दुर्गुणों से खुद को मुक्त रख सकते हैं. कृष्ण यह भी कहते हैं, दैवी सम्पत्ति भी हमारे भीतर है, प्रेम, शांति, सहजता, सरलता के गुण भी भीतर हैं, उनमें स्थित होकर स्वयं को पूर्ण समझें तो विकार अपने आप विलीन हो जायेंगे. उनका जोर तभी तक है जब तक शरण नहीं ली, एक बार शरण में आ जाएँ तो मन प्रेम का अनुभव करने लगता है, प्रेम का गुण सूर्य की तरह है जिसके उदय होने पर विकार रूपी तारे अस्त हो जाते हैं. 

Wednesday, December 18, 2013

तूने ही भेजे हैं जो सुख-दुःख सारे हैं

मई २००५ 
जब हम किसी स्थिति में स्वयं को असहाय महसूस करते हैं और ईश्वर को पुकारते हैं, तब वह आता है, किसी न किसी रूप में हमें सहायता मिलती ही है. ऐसा नहीं है कि हम ही उसके आकांक्षी हैं, वह भी हमें उतना ही चाहता है. इसका प्रमाण है कि हम सदा आनन्द चाहते हैं, और वह आनन्द स्वरूप है, वह जानता है, उसे भूलना ही हमारे लिए दुःख का कारण है. वह जब देखता है कि हम व्यर्थ ही संसार में उलझ रहे हैं और गलत जगह पर खोई हुई वस्तु को खोज रहे हैं तो हमारे जीवन में कोई न कोई विपत्ति भेज देता है ताकि हमारा ध्यान उसकी ओर हो सके. वह सुह्रद जो है.

Tuesday, December 17, 2013

सजगता ही साधनी है

मई २००५ 
मन का जो जानने वाला हिस्सा है, वह सजग रहे तो ही हम वर्तमान में रह सकते हैं, वरना मन की सहज आदत है कभी भूत में जाना कभी भविष्य की कल्पना करना. कोई अन्य यदि हमें अपना दुःख कहे तो हम उसके प्रति सहज ही संवेदना प्रकट करते हैं वैसे ही मन में जब कोई दुःखद बात याद आती है तो यंत्र की तरह मन उसके प्रति दुखद संवेदना जगाता है, और दुःख का संस्कार भीतर पक्का हो जाता है. सजग रहकर हम बस साक्षी होते हैं की अब मन ने दुखद को याद किया अब सुखद को याद किया, दोनों ही स्वप्न मात्र हैं, हमारे सुख-दुःख का कारण वह घटना नहीं बल्कि हमारे मन की प्रतिक्रिया है, क्रोध के समय जो अपशब्द हम बोलते हैं, वे सामने वाले को दुखी करें या नहीं यह उसकी सजगता पर निर्भर है पर हमने अपने भीतर  दुःख का बीज बो दिया यह तो तय है, और बाद में इसे याद करके मन इसे भी संस्कार के रूप में सुरक्षित रख लेता है. कोई दूसरा हमें व्याकुल करे तो हम स्वयं को बचा भी सकते हैं पर संस्कार रूप में संजो कर रखे अपने ही मन से कोई कैसे बच सकता है, साक्षी भाव ही एक मात्र उपाय है, और तब भीतर एक आह्लाद का जन्म होता है, जैसा बच्चे की हरकतों को देखकर होता है.

Monday, December 16, 2013

जुड़ा रहे मन उस अपने से

मई २००५ 
जिसका कार्य और रूचि एक हो, जिसका हृदय और मस्तिष्क एक हो उसमें सख्य भाव होता है. राम और लक्ष्मण में भी ऐसा सख्य भाव है. लक्ष्मण सदा से ही राम के संग हैं. जगे हुए ब्रह्म में जब सृष्टि की इच्छा होती है तो यह शेष उन्हें अपने शीश पर धारण करता है. दोनों में अद्वैत है. इसी तरह का सख्य भाव भक्त और भगवान में होता है, गुरु और शिष्य में होता है. मानसिक रूप से वे साथ रहते हैं, भौतिक दूरी उनके लिए कोई दूरी नहीं होती. जो ईश्वरीय तत्व को जानता है, वह हर क्षण जुड़ा रहता है, दोनों के बीच प्रेम की धारा अविरल बहती रहती है. समाधि का अनुभव दोनों को होता है. आधि, व्याधि, उपाधि से मुक्त होकर भक्त, भगवान के प्रेम का पात्र बन जाता है. अपनी ऊँचाई पर स्थित होते हुए भी वह उसके मन से जुड़ जाते हैं, वे सर्व समर्थ हैं.

Sunday, December 15, 2013

मीरा के प्रभु गिरधर नागर

मई २००५ 
कन्हैया की छवि मीरा के मन में समा गयी है, उसके प्रति अपार प्रेम का अनुभव उसे होता है. जब उसका नाम हृदय में आता है (जो कि निरंतर आता ही रहता है) तो एक आनंदी भाव छा  जाता है, उसके लिए बहुत अश्रु भी बहाये हैं उसने, उसकी रग-रग में वही है, एक-एक कोशिका में, वही भीतर है और वही बाहर है, वही प्रेम है, वही विरह है, वही अपना है, वही अपनों में भी है, वही सद्गुरु है, वही आत्मा है, तभी वह इतना प्यारा है. वह क्या है इसे कौन बयाँ कर सकता है, उसे तो महसूस किया जा सकता है, उसे पिया जा सकता है, भीतर ही भीतर अमृत की तरह वह रिसता जो है, अंतर को भिगो देता है, वह रसपूर्ण है, वह मधुर है, वह इतना मृदु है कि... वह इतना आनन्दमय है कि.. वह जब निकट होता है तो जैसे सब कुछ मिल गया हो, फिर दुनिया में कुछ भी पाने जैसा नहीं रह जाता, यह जगत तब फीका लगता है, उसके प्रेम का अनुभव जिसे हुआ है वही जानता है. वह मस्त कर देता है, उसके लिए मन दीवाना हो जाता है, वह जब कृपा करता है तभी यह खजाना मिलता है, वह एक बार जिसका हाथ थाम लेता है, उसे कभी नहीं छोड़ता, वह सच्चा मीत है, वह मीरा के योग-क्षेम का भार उठाता है. 

Saturday, December 14, 2013

जब आवे संतोष धन

गोधन, गजधन, गाजिधन और रतनधन खान, 
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान


मन जब संतोष पा लेता है, तुष्ट हो जाता है, तृप्त हो जाता है, तब संसार उसे नचाता नहीं. अनासक्त होकर जब हम कर्म करते हैं, तब कर्म बंधन नहीं बनता, कर्म तो हमें करना ही है, कर्म किये बिना हम क्षण भर भी नहीं रह सकते, प्रसन्न तभी रह सकते हैं जब संतुष्ट रहते हैं, संतुष्टि अपने आप में सबसे बड़ी सम्पदा है.. कभी कभी ऐसा लगता है, तुष्टि हमें आगे बढने से रोकती है, किन्तु इसमें सच्चाई नहीं है, तुष्ट व्यक्ति की सारी ऊर्जा उसके पास रहती है, वह  जिस तरह चाहे उसका उपयोग कर सकता है, साथ ही इस जगत के सारे कार्यों का लक्ष्य अंततः आनंद प्राप्ति ही है, तो यदि वह सुन्तुष्टि के रूप में हमें पहले से ही प्राप्त है तो श्रेष्ठ है, संसार से सुख पाना हो तो उसके आगे-पीछे घूमना पड़ता है, वह सुख क्षणिक होता है, कम-ज्यादा भी होता रहता है, भीतर का सुख अनवरत है, सहज है, अपना है, हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, वह  तृप्ति का सुख है, संतोष का सुख है. ईश्वर का सुख है, आत्मा का सुख है, वह एक बार किसी को मिल जाये तो कभी छिनता नहीं, वह समाधि का सुख है.  

Friday, December 13, 2013

सांसों की माला में.... तेरा नाम

मई २००५ 
‘नाम न बिसरे, नाम न बिसरे, ऐसी दया करो महाराज ! नाम में बहुत शक्ति है नाम के रूप में एक दिव्य चेतना हमारे अस्तित्त्व को ढक लेती है, हम उसके प्रभाव से ऊपर उठ जाते हैं, तब तुच्छ विकार हम पर प्रभाव नहीं डाल सकते. नाम और नामी में अटूट सम्बन्ध है. नाम में अदृश्य रूप से नामी के सभी गुण विद्यमान रहते हैं, नामी हमसे छिपा है पर उसका नाम सहज प्राप्य है. उसका सुमिरन हो तो नामी को एक न एक दिन प्रकट होना ही पड़ता है. नामी की कृपा का अनुभव जब होता हैतो हम जैसे बादशाह बन जाते हैं, एक अखंड शांति का सागर हमारे चारों ओर लहराने लगता है. प्रेम की लहर भीतर उठती है जिसमें मन, प्राण सब भीग जाते हैं. मन जैसे रूपांतरित हो जाता है.  

Thursday, December 12, 2013

करणीय होता रहे त्याज्य जाये छूट हमसे

मई २००५ 
ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में हम उसी के प्रतिनिधि हैं, उसने हमें अपने सा सिरजा है, इस जगत में हम अमृत पुत्रों के समान निडर, निर्भीक तथा प्रेम भरा जीवन व्यतीत कर सकते हैं. मोह और प्रमाद के कारण ही हम ऐसा नहीं कर पाते और अपनी अपार क्षमताओं से वंचित ही रह जाते हैं. वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के साथ स्वयं को एक मानना ही मोह है. प्रयत्न पूर्वक जो करना चाहिए उसकी विस्मृति ही प्रमाद है. धर्म को जानते हुए भी उसकी ओर न चलना, अधर्म को जानते हुए भी उससे दूर न जाना भी प्रमाद है. मन व इन्द्रियों की व्यर्थ चेष्टा का नाम भी प्रमाद है. मोह और प्रमाद से मुक्त हुई आत्मा ही सतोगुण में स्थित होती है. सात्विकता का फल है निर्मलता, रजोगुण से मोह बढ़ता है, जिसका फल है दुःख. तमोगुण का फल अज्ञान है. धीरे-धीरे हमें सतोगुण से भी पार जाना है, क्योकि ये तीनों गुण एक दूसरे में बदलते रहते हैं. कृष्ण कहते हैं गुणातीत ही उनका सच्चा भक्त है.


Wednesday, December 11, 2013

सच की नाव खेवइया सतगुरु

मई २००५ 
जब भी हमने चित्त को मैला किया, हमें दंड मिला है, हम स्वयं को दुखी बनाते हैं और दुखी व्यक्ति दूसरों को भी दुख देता है. जैसा-जैसे चित्त निर्मल होता है, हम सुखी होते हैं और स्वयं सुखी व्यक्ति औरों को भी सुख देता है. जब-जब हम सजगता त्याग देते हैं, पहले अपनी हानि होती है फिर दूसरों की हानि होती है. जब यह बात समझ में आती है तभी वास्तविक रूप से हम धर्म का जीवन जीते हैं. धर्म की रक्षा करें तो धर्म हमारी रक्षा करता है. सत्य के निकट होते ही शांति, प्रेम तथा आनन्द का अनुभव होता है तथा सत्य से दूर जाते ही पीड़ा का, पीड़ा का अनुभव भला कौन चाहता है ?


सागर छल छल छलके भीतर

अप्रैल २००५ 
हमें सूक्ष्म दृष्टि का विकास करना होगा, तब सत्य हमारे मन, कर्म तथा वाणी में प्रकटेगा. सूक्ष्म को देखने की शक्ति हमारे भीतर है पर उस शक्ति से हम परिचित नहीं है. बाहर की दुनिया में प्रतिस्पर्धा, लोभ, उत्तेजना के अनेक अवसर हैं, अहंकार को पोषित किया जाता है. हम सत् से असत् की ओर बढ़ते हैं. भीतर के संसार में इतनी गहराई है कि उसका कोई अंत नहीं है पर भीतर की दुनिया के साथ हमारा सम्पर्क नहीं होता, बाहर से हमें भीतर की ओर जाना है, तो असत् से सत् की ओर चलना होगा. सत् के प्रति प्रेम ही हमारे आत्मा की प्यास है. इसे दुनियावी वस्तुओं से बहलाया नहीं जा सकता. वह केवल और केवल उसी सागर को चाहती है जो अनंत प्रेम, शांति और आनन्द का स्रोत है. न जाने कितने शरीर हमने धारण किये हैं, सदा आत्मा की उपेक्षा करके मन को प्रमुखता दी है जिस कारण हम ढगे गये हैं. रेगिस्तान के मरुस्थल जैसा जीवन जीया है पर भीतर की यात्रा हमें उस सागर तक ले जाती है.


Monday, December 9, 2013

खो जाए मन द्वार खुले तब

अप्रैल २००५ 
साधक को जीवन में दुःख को पहचानना जरूरी है, पहले उसे स्वीकारना फिर उसे दूर करने की चेष्टा करनी है. जीवन भर अर्थार्थी ही नहीं बने रहना है. अर्थार्थी से आर्त तथा आर्त से जिज्ञासु बनना ही पड़ेगा. पग-पग पर जीवन में हमें दुःख मिलता है, हमारा मन ही सबसे ज्यादा दुःख देता है, इसे जानना अध्यात्म का पहला कदम है. तभी तो हम मन के पार जायेंगे, मन के पार क्या है यह जिज्ञासा तभी उठती है जब हम मन को समझ जाते हैं. मन के पार की झलक ध्यान में मिलती है, जब कोई विचार नहीं रहता, वहाँ, जहाँ कुछ भी नहीं है, वही शून्य है, वही पूर्ण है, वही आत्मा है. इसकी तलाश ही दुखों से मुक्ति की तलाश है. हम ध्यान सीख लेते हैं तो पुनः पुनः ताजा होकर जगत में लौट आते हैं. सारा विषाद घुल जाता है, सारी सृष्टि के साथ प्रेम का सम्बन्ध बन जाता है. 

Sunday, December 8, 2013

शरण में आये हैं हम तुम्हारी

अप्रैल २००५
गुरु हमारी संवेदनाओं और भावनाओं को परिष्कृत करते है. वे हमें प्रकाश, सत्य और अमरता की ओर ले जाना चाहते हैं. मन को देह से ऊपर उठाना सिखाते हैं. मन के पार जाते ही भीतर अपने आप परिवर्तन होने लगता है. हमारे भीतर सत्य को जानने के लिए जो कुछ भी होता है अपने आप ही होता है, वह कृपा के कारण ही है, हम केवल साक्षी मात्र बनते हैं. हमारा कार्य केवल शरण में जाना है, हमारे इर्द-गिर्द न जाने कितने बंधन घेरा डाले खड़े हैं, इन बन्धनों को तोड़ना हम नहीं जानते. अपने मन के हाथों हम बार-बार दुःख पाते हैं. अपनों से लड़ाई करना कितना कठिन है. सद्गुरु हमारे मन को मजबूत करते हैं, उसे सही मार्ग देते हैं, ध्यान, प्राणायाम की विधियाँ बताते हैं. मन तब सजग होता है, नित्य-अनित्य को पहचानने लगता है, भीतर प्रज्ञा जगती है, हम आत्मा को जानने के अधिकारी बनते हैं.

Saturday, December 7, 2013

तुम्हीं हो बन्धु सखा तुम्हीं हो


हम जिसका चिंतन करते हैं वैसे ही हो जाते हैं. यदि हम कृष्ण का चिन्तन करते हैं तो धीरे-धीरे उसके गुणों को धारण करने लगते हैं. कृष्ण को सात्विक भोजन पसंद था, पसंद है और पसंद रहेगा, उसे संगीत से प्रेम है, वह निडर है, प्रेमी है, नटखट है, विनोदी है, वह सुन्दरता का सिरमौर है. वह क्या नहीं है, ऐसा होने पर भी हमसे दूर नहीं जाता, निकटस्थ है, भक्तों के हृदय में स्वयं को प्रकट कर देता है. वह आत्मा का सखा है, गुणात्मक रूप से आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं. मन व बुद्धि सीमित हैं जो उसे नहीं जान पाते, लेकिन मन द्वारा किया गया उसका चिन्तन मन को शुद्ध बनाता है, शुद्ध मन में आत्मा की झलक मिलती है. तब मानव यह जानने लगता है जो दिख रहा है वह अस्थिर है, जो अदृश्य है वही वास्तविक है. आत्मा की ही सत्ता से मन व बुद्धि कार्य कर रहे हैं, प्रमुख वही है और यह आत्मा, परमात्मा का अंश है सो सभी कुछ उसी का ही हुआ ! 


Friday, December 6, 2013

निज गरिमा में रहना सीखें

अप्रैल २००५ 
हम दुखकार हैं, जैसे चित्रकार चित्र बनाता है, कुम्भकार घट बनाता है, उसी प्रकार हम जीवन में नित नये दुखों का निर्माण करते हैं. फिर स्वयं ही सहानुभूति के पात्र बनते हैं, अपनी भी और दूसरों की भी. परमात्मा के सम्मुख जाकर दुखों से छुड़ाने के लिए प्रार्थना करते हैं, वह भी सोचता होगा, मैंने तो मानव को समर्थ बनाया है, वह अपनी शक्ति भुलाकर क्यों दुखी होता है. ईश्वर प्रेम व शांति की मूरत है, जब वह अपनी गरिमा में रह सकता है तो फिर मानव क्यों नहीं रह सकता. देह, मन, बुद्धि जो हमारे लिए साधन रूप थे, हमारी सेवा के लिए मिले थे, हमसे सेवा मांगते हैं. शुद्र, वैश्य आदि कोई जन्म से नहीं होता, जो देह को ही आत्मा मानता है, वह शुद्र है, जो मन, बुद्धि तथा अहंकार को आत्मा मानते हैं वे क्षत्रिय या वैश्य हो सकते हैं, आत्मा को ही आत्मा जानने वाला ब्राह्मण है, ब्रह्म को जानने का अधिकारी है, तथा उसके आनन्द को पा सकता है. ऐसा आनन्द जो कभी घटता-बढ़ता नहीं, जो सापेक्ष नहीं है, जो अनंत मात्रा का है, जो अनंत काल के लिए है, जिसे पाने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता, जो हमें सहज ही प्राप्त है.   


Thursday, December 5, 2013

ऐसे जग सुंदर हो जाये

हमारा तन स्वस्थ रहे ताकि हम साधना कर सकें, साधना करें ताकि मन स्वस्थ रहे, मन स्वस्थ रहे ताकि अंतर साधना हो सके, अंतर साधना हो ताकि मन निर्मल हो, मन निर्मल हो ताकि उसमें परम सत्य का प्रकाश हो, परम सत्य को पायें क्यों कि सत्य ही शिव और सुंदर है, शिव को पायें ताकि हम सभी के लिए सुखद हो जाएँ, हमारे होने से जड़-चेतन किसी को कोई उद्वेग न हो, न ही हमें किसी से कोई उद्वेग हो. सौन्दर्य को पाकर हम चारों ओर सुन्दरता बिखेरें. कुछ भी ऐसा न कहें, सोचें, न करें जो इस जगत को क्षण भर के लिए भी असुन्दर बना दे. ईश्वर की इस सुंदर सृष्टि को देख-देख हम चकित होते हैं, विभोर होते हैं, भीतर प्रेम का अनुभव करते हैं तो और भी चकित होते हैं, कैसे अद्भुत भाव भीतर जगते हैं, यह क्या है? कौन है? किसे अनुभव होता है? कौन अनुभव कराता है? कौन प्रेम देता है? कौन प्रेम लेता है ? ये सारे भाव शब्दों की पकड़ में नहीं आते. संतों की आँखों से ये पल-पल झरते हैं. 

Wednesday, December 4, 2013

मन के विश्राम में आत्मा का राम है

अप्रैल २००५ 
हम सभी का लक्ष्य आनन्द है, शांति है, प्रेम है, ऐसा प्रेम जो सदा एक सा हो, सतत् आनन्द तथा कभी न छूटने वाली शांति... और यही हमारा मूल स्वभाव है, प्रभु ने हमारी रचना इन्हीं तत्वों से की है, पर काल के प्रभाव से हम इस बात को भूल गये हैं और बाहर इन्हीं की खोज करते हैं, ये कभी तो हमें प्रयत्न पूर्वक मिल जाते हैं कभी छूट जाते हैं, सुख-दुःख के चक्र में हम निरंतर घूमते रहते हैं. हम सोचते हैं ये ऐसी वस्तुएं हैं जिनके लिए बड़ा ही श्रम करना पड़ता है, फिर इन्हें पाना होता है. पर ईश्वर अवश्य ही हमारी इस मूर्खता पर मन ही मन हँसता होगा, वह जब देखता होगा, इनकी प्राप्ति के लिए लोग न जाने कितने व्रत, उपवास, जप-तप करते हैं, पर अपने स्वभाव में कभी नहीं ठरते. वह सोचता होगा इन्हें भटक कर अंततः तो घर लौटना ही है. ये जब ईश्वर को भी खोज रहे होते हैं तो उससे इन्हीं की मांग करना चाहते हैं. ईश्वर, आनन्द, शांति और प्रेम सब एक के ही अनेक नाम हैं, ये तो हरेक के भीतर हैं पर मानव की दौड़ बाहर ही बाहर है, भीतर की उसे खबर ही नहीं, भीतर के नाम पर उसके पास कामनाओं से भरा मन है, वही तो सबसे बड़ी बाधा है भीतर जाने में ! 

Tuesday, December 3, 2013

पार हुआ जो तीन गुणों से

अप्रैल २००५ 
ईश्वर अकारण दयालु है, परम मित्र है, परम स्नेही है, सुह्रद है, हितैषी है, अपना है और सदा हमारे साथ है. इतना सब होते हुए भी मानव दुखी है, यह कैसा विरोधाभास है, कैसे विडम्बना है ? हम ईश्वर की तथाकथित भक्ति तो करते हैं पर उससे दूर-दूर ही रहते हैं उससे डरते हैं, या तो अपने आप से डरते हैं या ईश्वर इतना शुद्ध है कि हमारे भीतर की अशुद्धता उसके निकट  जाते ही स्पष्ट दिखाई देने लगती है, या हम ईश्वर से दूर-दूर का ही नाता रखना चाहते हैं, हम डरते हैं कि प्रभु हमसे कुछ छीन न ले, हम निरे बच्चों का सा व्यवहार करते हैं उसके सम्मुख ! हम नाटक करते हैं, स्वयं को धोखा देते हैं, क्योंकि उसे तो धोखा दिया ही नहीं जा सकता. कृष्ण कहते हैं कि प्रकृति अपने गुणों के अनुसार ही वर्तती है और गुणों के वशीभूत हुए प्राणी भिन्न-भिन्न व्यवहार करते हैं, और यह गुण उन्हें कर्मों के अनुसार मिलते हैं, हमारा अधिकार कर्म करने तक ही है. पूर्व आदतों के अनुसार ही यदि कर्म करते रहे तो जीवन पूर्ववत ही बना रहेगा, ध्यान से हम संस्कारों को बदल सकते हैं जिनसे सात्विक स्वभाव को प्रप्त होंगे. गुणों को बदलना हमारे हाथ है यह जानने के बाद कौन है जो प्रकृति के वशीभूत होकर कर्म करेगा, सजग व्यक्ति अपना निर्माता स्वयं होता है.


Sunday, December 1, 2013

आज तोड़ दें सब जंजीरें

अप्रैल २००५ 
अनंत धैर्य तथा अखंड भरोसा हमें शुभ की ओर ले जाता है. हमारा मन जो आज हमारा शत्रु प्रतीत होता है, साधना की अग्नि में तपकर मित्र हो जाता है. फिर वह स्वतः ही परम की ओर जाता है, आत्मा के सान्निध्य का रस प्राप्त करने के बाद  पुनः झूठे रस को पाकर संतुष्ट नहीं होता, बल्कि उसी दिव्य रस को चखना चाहता है. वर्तमान के क्षण में वही दिव्यता हमें मिलती है, हर आने वाला क्षण अपने भीतर अनंत प्रेम छिपाए है. शुद्ध वर्तमान हमें मुक्त कर देता है. उसमें रहने वाला मन एक उन्मुक्त पंछी की तरह खुले गगन में उड़ान भर सकता है, अन्यथा भूत तथा भावी की जंजीरें बंधीं हो तो पंछी कैसे उड़ेगा. अतीत का पश्चाताप तथा भविष्य की आशंका की जंजीरें बांध दें तो वह नहीं उड़ पायेगा, ज्ञान की तलवार से इन्हें काट सकते हैं. भूत कभी लौट कर नहीं आता और भविष्य अनिश्चित है, जिन पर न हमारा वश है और जो न हमें तृप्त कर सकते हैं. जिसके मन में पूर्ण की चाह उठे वह सदा वर्तमान में ही रहता है वही ज्ञानी है और वही पूर्ण तृप्ति का अनुभव करता है.

Thursday, November 28, 2013

मन ही रचता सुख-दुःख सारे

अप्रैल २००५ 
सन्त कहते हैं, भीतर कितनी शांति है, कितना प्रेम और कितना आनन्द.. भीतर आत्मा है, ईश्वर है और बाहर भी उन्हीं का प्रसार चहूँ ओर हो रहा है. प्रकृति के सुंदर रूप, झीलें, हिमाच्छादित पर्वत, वनस्पतियाँ, फूल, झरने, शीतल हवाएं, वर्षा, विविध सुगंधें, और न जाने कितने-कितने अनुपम पदार्थ, मानव, पशु-पक्षी, चाँद, तारे, ग्रह-नक्षत्र सभी कुछ कितना अद्भुत है. इन सबको रचने वाला स्वयं कितना अद्भुत होगा. सन्त कहते हैं वह हमारे भीतर है, वह जो मिलकर भी नहीं मिलता, जो बिछड़कर भी नहीं बिछड़ता, जो दूर भी है और पास भी, जो दीखता भी है और नहीं भी दीखता, जो सदा एक सा है, नित्य है, शुद्ध है, पूर्ण है, बुद्ध है, जो प्रेम है, रस है, आनन्द है, शांति है, सुख है पर जिसके जगत में दुःख भी है और पीड़ा भी, असत्य भी, घृणा भी. सभी कुछ उसी से उपजा है, उसी की लीला है, राम है तो रावण भी है, कृष्ण है तो कंस भी है. इस जगत में सारे विरोधी भाव हैं, रंग हैं, वरना किसी की महत्ता का भान कैसे होता. मरीज न हो तो वैद्य का क्या काम, माया न हो तो माया पति का क्या कार्य, पर सन्त कहते हैं जगत के इन द्वन्द्वों के मध्य रहते–रहते हमें बहुत समय हो गया, सुख-दुःख के चक्र में फंसकर हम अनेकों बार वही वही कर्म ही करते आए हैं, हमें इनसे ऊपर उठना है, द्वन्द्वातीत होना है हमें, पर हमारा मन इनसे ऊपर उठना चाहता ही नहीं वह किन्हीं विश्वासों, पूर्वाग्रहों, मान्यताओं में बंधा स्वयं तो अशांत होता ही है और हम जो उसके इशारों पर चलते हैं व्यर्थ ही फंस जाते हैं.

Wednesday, November 27, 2013

स्वयं को ही उपहार बना लें

अप्रैल २००५ 
सत्संग से जीवनमुक्ति मिलती है. सहजता आती है. निर्मोहता, निसंगता तथा स्थिरमन की निश्चलता आती है. जीवनमुक्ति का अर्थ है अपने आस-पास कोई दुःख का बीज न रह जाये. दिव्य स्पंदनों का आभा मंडल इतना शांत होता है कि भीतर के विकारों से हमें मुक्ति मिल जाती है. सारी कड़वाहट खो जाती है, मन खिल उठता है. हम पुनः नये हो जाते हैं. वर्तमान यदि साधना मय है तो भावी सुंदर होगा ही. इस मन को शुभता से भर कर हमें जगत के लिए उपहार स्वरूप बनना है न की भार स्वरूप. वह अकारण हितैषी परमात्मा अनंत काल से हमें प्रेम करता आया है. हम उसे समझ न पायें पर उसके प्रेम को तो अनुभव कर ही सकते हैं . 

Tuesday, November 26, 2013

बनी रहे वह स्मृति पल पल

अप्रैल २००५ 
हम सोचते हैं कि मन सध गया, पर यह सूक्ष्मरूप से अहंकार को सम्भाले रहता है. देहात्म बुद्धि में रहने पर मन हावी हो जाता है. आत्मा में जो स्थित हो गया उसे कोई बात विचलित नहीं कर सकती. जगत में रहकर अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए वह अलिप्त रह सकता है. वह अपनी मस्ती में रहता है, परम की स्मृति उसे प्रफ्फुलित किये रहती है. आनन्द का एक स्रोत उसके भीतर निरंतर बहता रहता है, एक पल के लिए भी यदि उसमें अवरोध हो तो उसे स्वीकार नहीं होता. एक क्षण के लिए भी मन में छाया विकार उसे व्यथित कर देता है. जगत उसके लिए परमात्मा को पाने का साधन मात्र बन जाता है. वह खुद को जगत के लिए उपयोगी बनाने का प्रयत्न करता है. वह प्रेम ही हो जाता है.

Monday, November 25, 2013

कुछ मोती अनमोल

अप्रैल २००५ 
दीवानगीये इश्क के बाद आखिर आ ही गया होश
और होश भी ऐसा होश कि दीवाना बना दे ! 

दीवाने से कभी मत पूछो कि क्या लोगे
अगर बोल बैठा तो क्या दोगे ?

मांगो.. मांगो.. मांगो तो सही मांगो
और सही का मतलब वही मांगो
कभी कुछ, कभी कुछ  
इससे तो बेहतर है नहीं मांगो !


देना न भूलो, देकर भूलो !

Friday, November 22, 2013

श्रद्धावान लभते ज्ञानम्

अप्रैल २००५ 
आनन्द की राशि, परमात्मा हमारे भीतर है तो हमें उदास होने की क्या जरूरत है, यह तो ऐसा ही हुआ कि फूलों के ढेर हमारी गोद में हैं और खुशबू हमसे दूर रहे. भीतर जब जिज्ञासा और श्रद्धा का जन्म होता है तो पहले प्रेम फिर ज्ञान का उदय होता है और आनन्द का स्रोत भीतर फूट पड़ता है. भय का नाश हो जाता है, मन झुक जाता है, भीतर खाली हो जाता है, जैसे जन्मों का बोझ उतर गया हो. भक्त को पंख मिल जाते हैं, वह कौतुक से भर जाता है, सरल, सहज हो जाता है. उसके भीतर का आनन्द बाहर भी प्रवाहित होने लगता है. वह अन्यों के मन के भाव पढ़ने लगता है. जगत के साथ उसके सम्बन्ध पारदर्शी हो जाते हैं.  

Wednesday, November 20, 2013

कितना सुंदर पथ है उसका

अप्रैल २००५ 
भक्त वही है जिसका मन ईश्वरीय भावों से लबालब भरा हुआ है, भीतर एक प्रकाश फैला है जो उसके अस्तित्त्व के कण-कण को भिगो रहा है. शास्त्रों में लिखी बातें उसके लिए सत्य सिद्द हो गयी हैं. आकाश व्यापक है पर आकाश भी भगवान में है, अगर कुछ पल भी उस भगवद् तत्व में कोई टिक जाये तो कभी विषाद नहीं होता. सन्त कहते हैं, स्वस्थ देह, पावन भाव और शुद्ध बुद्धि यह तीन तो साधना के अंग हैं और चौथी अवस्था 'साध्य' है. उसका अनुभव होने पर सुख-दुःख का असर नहीं होता, मन निर्लिप्त हो जाता है, हर परिस्थिति में समता बनाये रखना सम्भव हो जाता है. अपनी स्मृति को बनाये रख सकते हैं. इस पथ पर दूर से ही साध्य की सुगंध मिलने लगती है. उस स्थिति की कल्पना ही कितनी सुखद है, जब हमें  भी वह अनुभव होगा, जो नानक का अनुभव है मीरा का अनुभव है. कई बार हमें भी उसकी झलक मिली है पर अभी बहुत दूर जाना है. मन के दर्पण को मांजना है, पात्रता हासिल करनी है.

Tuesday, November 19, 2013

भाव शुद्धि सत्व शुद्धि....

अप्रैल २००५ 
संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म तथा क्रियमाण कर्म, ये तीन प्रकार के कर्म हैं जो जीव के साथ सदा रहते हैं जब तक उसे भगवद् प्राप्ति न हो जाये. संचित कर्म वे हैं जो हमने जन्मों-जन्मों में एकत्र किये हैं, उन्हीं में से कुछ कर्मों को प्रारब्ध बनाकर हम इस दुनिया में भेजे जाते हैं, क्रियमाण वे कर्म हैं जो जन्म से मृत्यु तक हम अपनी इच्छा से करते हैं. इन कर्मों को करते हुए हम पुनः संचित कर्म एकत्र करते जाते हैं. किसी कार्य को करते समय हमारी भावना जैसी होगि वही उसका वास्तविक रूप होगा, बाहरी रूप से चाहे हम कितना भी अच्छा व्यवहार दिखाएँ पर यदि भावना बिगड़ी हुई है तो हमारा कर्म अशुद्ध ही माना जायेगा. भीतर का भाव बिगड़ते ही हम स्वयं को कर्म बंधन में बांध लेते हैं. बाहर तो परिणाम नजर आता है कारण भीतर होता है. परिणाम तो नष्ट हो जाता है पर कारण बीजरूप में बना रहता है, फिर वह प्रारब्ध कर्म बन कर कभी भी आ सकता है. हम क्रियमाण कर्मों को करने में स्वतंत्र हैं, अपने मन, बुद्धि, विचारों, भावनाओं तथा वाणी को पवित्र रखने में स्वतंत्र हैं, हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं हैं.  सजग व्यक्ति कभी भी खुद को कर्म बंधन में नहीं बांधते. जब हमारा लक्ष्य मुक्ति है तो अपने ही हाथों स्वयं को क्यों बाँधें.  

Sunday, November 17, 2013

नहीं अकेला कोई जग में


यह सत्य है कि हम इस जगत में अकेले ही आते हैं और अकेले ही हमें जाना है. आत्मा स्वयं को जानने के लिए ही मानव शरीर धारण करता है, पर इसे भुलाकर अपने जैसे अन्यों को जीते देखकर सोचता है शायद यही जीवन है. जीवन का अनुभव और सत्संग उसे बताता है कि असलियत क्या है, जहाँ बाहर उसे हर कदम पर द्वन्द्वों का शिकार होना पड़ता है, भीतर जाकर ही उसे पता चलता है कि वह तो निरंतर परमात्मा के साथ जुड़ा है, सभी के भीतर उसी की झलक मिलने लगती है. सभी वास्तव में एक ही शक्ति को भिन्न भिन्न प्रकार से व्यक्त कर रहे हैं. वह सभी के साथ आत्मीयता का अनुभव करता है. प्रेम का जो प्रकाश उसके भीतर फैला था बाहर भी फैलने लगता है. तब उसे संसार से कुछ भी लेने का भाव नहीं रहता वह सहज हो जाता है. प्रेम, विश्वास तथा शांति का स्रोत जो उसे मिल जाता है.

Monday, November 11, 2013

मुक्त हुआ मन भजे परम को

अप्रैल २००५ 
प्रभु प्रेम का महासागर है और मन उस प्रेम की एक लहर है, एक बूंद है, यह मन परमात्मा से मिलकर ही संतुष्टि का अनुभव करता है. जब तक वह उससे दूर है, तो भीतर एक कचोट है उठती है, वह विरह की पीड़ा है, जब वह विरह बढ़ने लगता है, प्रभु को पाने की चाह हमारे भीतर बढ़ने लगती है. जब यह चाह पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है तो परम अपने को प्रकट कर  देता है. तब हमें अपनी आत्मा का परिचय होता है, स्वयं से मिलने के बाद साधक के जीवन में केवल एक ही कार्य शेष रह जाता है, वह है प्रेम, उसके लिए जगत में एक ही वस्तु रह जाती है वह है परमात्मा, ईश्वर और प्रेम दो नहीं हैं, एक के ही दो नाम हैं ठीक उसी तरह जैसे भाग्य और पुरुषार्थ दो नहीं हैं एक हैं, हमारे पूर्व में किया गया कार्य यानि पुरुषार्थ ही वर्तमान में भाग्य बनकर सामने आ जाता है. वैसे ही जीवन में ईश्वर हो तो प्रेम स्वतः ही पनपता है और प्रेम प्रकट हो जाये तो ईश्वर स्वयं ही खींचे चले जाते हैं. मन मयूर तब नृत्य कर उठता है, भीतर कोई रस फूट पड़ता है, मस्ती की लहर हिलोरे लेती है. रोम-रोम में उस राम का नाम प्रतीत होता है. जीवन का शुभारम्भ वास्तव में तभी से होता है, उसके पूर्व तो मन, इन्द्रियों का गुलाम था, सदा अधीन रहता था, पराधीन को सुख कहाँ, जोमुक्त है वही सुखी है, मुक्ति ही भक्ति है.


Sunday, November 10, 2013

अप्प दीपो भव

अप्रैल २००५ 
परमात्मा की कृपा भरा हाथ सदा हमारे सिर पर है, वह जीवन के हर मोड़ पर हमें मार्ग दिखाने के लिए हमारे साथ हैं. सत्संग से हमें इसका ज्ञान होने लगता है. सत्य का आश्रय मिल जाये तो जीवन का पथ कितना सहज तथा सुरक्षित हो जाता है. हम अपने दीप स्वयं बन जाते हैं. हमारे लिए इस जगत का महत्व तभी तक रहता है जब तक हमारी पहचान इस देह के माध्यम से बनी है, स्थूल देह के साथ हमारा सम्बन्ध टूटते ही जगत का इस अर्थ में लोप हो जाता है कि वह हमें प्रभावित नहीं करता. यह देह हमसे अलग है, हम इसे जानने वाले हैं, जहाँ जानना तथा होना दो हों वहाँ द्वैत है, जब जानना तथा होना एक हो जाता है, वहाँ दो नहीं होते एक ही सत्ता होती है, वही वास्तव में हम हैं. शरीर, मन, बुद्धि सब अपने-अपने धर्म के अनुसार कर्म करते हैं, पर आत्मा जिसकी सत्ता से ये सभी हैं. अपनी गरिमा में रहता है. वह है, वह जानता है कि वह है, वह जानता है, वह आनन्द पूर्ण है. यह जानना ही वास्तव में जानना है. 

Wednesday, November 6, 2013

भीतर जगती प्रेम समाधि

अप्रैल २००५ 
‘समाधि सुखः लोकानन्दः’ समाधि से प्राप्त सुख लोक के सुख का कारण भी बनता है, तथा लोक में हमें जो भी आनन्द मिलता है वह समाधि से ही प्राप्त है. उगते हुए सूर्य को देखकर जो हम चकित से रह जाते हैं, अनजाने में समाधि ही लग जाती है, मन लुप्त हो जाता है, हम उस चेतना से जुड़ जाते हैं. जब हम ध्यान में बैठते हैं तो शांति की किरणें फूल की सुगंध की तरह हमारे चारों ओर फूटती रहती हैं. दुनिया के सारे सुख इस ध्यान सुख में समाये हैं, जैसे हाथी के पैर में सारे पैर समा जाते हैं. जिसे एक बार इस समाधि का अनुभव होता है, वह  द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है. प्रेम, आनन्द, शांति उसके नित्य सहचर बन जाते हैं. गांठे खुलने लगती है और बीजरूप में पड़ा भक्ति का वृक्ष खिल उठता है, यह एक चमत्कार ही होता है, इससे बढ़कर कोई चमत्कार नहीं ! 



Tuesday, November 5, 2013

मन को बस मन ही जाने

मार्च २००५ 
मन कितने-कितने विचारों में खो जाता है, काम करते हुए अथवा ध्यान करते हुए भी हमारा मन पुनः पुनः चहुँ ओर विचरने लगता है. कभी वर्तमान में रहना ही नहीं चाहता, वर्तमान में ही हमारे सारे प्रश्नों का हल है, सारी तलाश वर्तमान में ही समाप्त होने वाली है, हम जिसे चाहते हैं वह भी वर्तमान में मिले तभी तुष्टि होगी, भूत तो सताते हैं और भविष्य भरमाता है. वर्तमान ही सत्य है, हमें यह बात जितनी जल्दी समझ आ जाये उतना ही अच्छा है. मन जानता है कि वर्तमान में वह रहता ही नहीं, उसका कोई महत्व नहीं रह जाता, अपने अहंकार को बढ़ाने के लिए कोई कथा-कहानी जो नहीं रह जाती उसके पास. मन ही वह पर्दा है जो हमारे और परमात्मा के बीच में है, इसके गिरते ही सत्य स्वयं स्पष्ट हो जाता है. मन पुष्ट होता है इन्द्रियों के कारण, यदि इन्द्रियां सत्कार्यों में लगी रहें तो मन भी सद्विचारों से युक्त होगा, सात्विक मन ध्यान में बाधा नहीं डालेगा, पर भीतर गहरे जाने पर उन्हें भी विदा होना होगा. सद्गुरु की कृपा से यह सम्भव है.

Sunday, November 3, 2013

कौन सदा है संग सभी के

मार्च २००५ 
श्रीमद्भागवत में कृष्ण कहते हैं, ‘जब भक्त मेरा भजन करते-करते थक जाता है, तब मैं उसका भजन करने लगता हूँ’. कृष्ण कितने अनोखे हैं, वे परम अराध्य हैं, समस्त कारणों के कारण हैं, परमब्रह्म परमेश्वर हैं. हमारा श्रद्धाभाव जितना दृढ होगा उतना ही हम प्रभु को करीब से जानने लगते हैं. उसकी कृपा से ही संशय दूर होते हैं, इच्छाएं उठने से पूर्व ही पूर्ण होने लगती हैं. राधा उनकी आह्लादिनी शक्ति है, वही कृष्ण की बंसी की मधुरता है, वही उनके भीतर का शुद्ध हास्य है, वही उनका प्रेम है. वह सदा ही हमारे मन के मन्दिर में विराजते थे पर हमें ही इसका पता नहीं चलता था, हमारे भीतर ईश्वर के प्रति सहज स्वाभाविक प्रेम सुप्तावस्था में रहता है, सद्गुरु की कृपा से वह प्रकट हो जाता है, उसका प्राकट्य एक अद्भुत घटना है जो अंधकार न जाने कब से भीतर बना होता है, वह पल में समाप्त हो जाता है. भीतर ज्योति भर जाती है, जैसे रोम-रोम दिव्यता से भर गया हो. परमात्मा सदा हमारे साथ है.

Wednesday, October 16, 2013

प्रभु जी ! तुम चन्दन हम पानी

मार्च २००५ 
मन रे कर सुमिरन हरि नाम ! नाम लिए से मिट जाते हैं जन्म-जन्म के काम ! ईश्वर के बिना हमारे लिए कोई रक्षक नहीं, हमारे तथाकथित प्रेम आदि (मोह) ही हमें दुःख की ओर लिए जाते हैं, बंधन में डालने वाला यह स्वार्थ ही तो है, ईश्वर हमें इससे छुड़ाता है और अमरता के उस परम पद तक पहुंचा देता है जहाँ से फिर पतन नहीं होता. वह हमारा हितैषी है, सुह्रद है, अकारण दयालु है, प्रेममय है, रस मय है, वह जो है, जैसा है आज तक कोई बखान नहीं कर पाया. वह हमारे कुम्हलाये हुए मन को ताजगी से भर देता है, अनंत शक्ति का भंडार है, वह हमें अनेकों बार सम्भलने का मौका देता है, सदा हमारी रखवाली करता है, जैसे ही हम उसकी ओर कदम बढ़ते हैं, वह हाथ थाम लेता है. हमारे साथ प्रेम का आदान-प्रदान करने के लिए सदा तत्पर है. एक बार प्रेम से पुकारते ही वह हमारे मन को अपने जवाब से भर देता है. उसे हमारी योग्यता की नहीं हमारे प्रेम की चाह है, वही सच्चा प्रेमी है, हम तो प्रेम के नाम पर व्यापार करते हैं. वह परमात्मा हमारी आत्मा की भी आत्मा है.


Monday, October 14, 2013

सांसों की माला में

मार्च २००५ 
‘ईश्वर को उसकी कृपा के बिना नहीं पाया जा सकता’. ध्यान में जब हम श्वास को देखते हैं, देखते-देखते वह सूक्ष्म हो जाती है, सूक्ष्मतर होती जाती है, उसे देखने वाला मन भी सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होता जाता है. नासिका के अग्रभाग पर आती-जाती हुई श्वास एक पतले धागे की तरह प्रतीत होती है, बहुत सूक्ष्म धागे की नाईं वह भीतर वह बाहर आती जाती है.  मन में कोई विचार उठा तो श्वास पर उसका प्रभाव होता है. अप्रिय विचार हो तो ऊष्मा का, गर्मी का, जलन का अहसास होता है, सुखद विचार हो तो ठंडक या सुख का अहसास होता है. मन में उठने वाले विचारों के साथ-साथ श्वास की गति भी बदल जाती है. वह सम नहीं रह जाती, कभी तेज हो जाती है, कभी कठोर हो जाती है. मन पर कोई आघात होते ही उसका पहला भाग सजग हो जाता है, दूसरा भाग यह जानना चाहता है कि यह क्या है, तीसरा भाग उसके प्रति राग-द्वेष जगाता है, चौथा भाग उस राग-द्वेष के प्रति संवेदना जगाता है. हम देखते हैं कि देह में कुछ भी स्थूल नहीं है सब कुछ तरंग मय है, मन के विचार भी आते हैं और नष्ट हो जाते हैं. यदि पहले कदम पर ही हम सजग हो जाएँ कि जो भी सूचना बाहर से मिली है, उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं करनी है तो हम दुखों से सदा के लिए बच सकते हैं.


Sunday, October 13, 2013

मौन हुआ जब मन का पंछी


“मने मने थाके” अर्थात please keep quite कितना सुंदर सूत्र है यह, पर हमसे बिना बोले नहीं रहा जाता. हमारी ऊर्जा सबसे अधिक बोलने में ही खर्च होती है. हम बेवजह बोलते हैं, बढ़ा -चढ़ा कर बोलते हैं, कुछ का कुछ बनाकर बोलते हैं तथा अपने अहंकार को पोषने के लिए बोलते हैं. हम ज्यादातर समय सुने हुए को दोहराते हैं अथवा तो बोले हुए को भी दोबारा बोलते हैं. वाणी का यदि सदुपयोग हो तो हमारे वचनों में जान आ जाये, बल आ जाये, सत्य का बल. चुप रहने में ही सबसे बड़ा सुख है, कम बोलने वाला कभी मुसीबत में नहीं फंसता. संतजन भी कहते हैं, जब भीतर ईश्वरीय प्रेम की महक भरी हो तो उसे भीतर ही भीतर जज्ब होने दो, जैसे इत्र का ढक्कन धीरे से खोला जाता है फिर बंद कर दिया जाता है. वैसे ही मुंह का ढक्कन जब जरूरी हो तभी खोलना चाहिए, वरना सारी महक उड़ जाएगी तथा संसार की गंध उसमें भर जाएगी. साधक को विशेष सतर्क रहने की आवश्यकता है.   

Friday, October 11, 2013

यह तेरा घर यह मेरा घर

मार्च २००५ 
पांच तत्वों से मिलकर हमारा भौतिक घर बना है तथा पांच ही तत्वों से मिलकर शरीर का घर  भी बना है पर जैसे भौतिक घर स्थायी नहीं है, वैसे ही शरीर भी स्थायी नहीं है. हमारी मृत्यु के समय वह छूट जाने वाला है, हमें अपने लिए एक ऐसा घर बनाना है जो सदा उपलब्ध हो, जहाँ जीवन का कोई तूफान हिला न सके. वह घर बनाने के लिए चार तत्वों की आवश्यकता होगी, पांचवा आकाश तो अपने आप ही आ जायेगा. सर्वप्रथम मिटटी अथवा पृथ्वी होनी चाहिए सहिष्णुता की, दूसरा तत्व है जल, उसकी निर्मलता, एक प्रसन्नता जो निर्मलता से उत्पन्न हुई है. तप से प्राप्त तेज व ओज की अग्नि भी हमें चाहिए ताकि पुराने अवांछित कर्म संस्कार उसमें जल जाएँ. अनासक्ति की वायु सदा प्रवाहित हो, अनासक्त होकर हम समता को प्राप्त होते हैं, स्थिरता को प्राप्त होते हैं. ऐसे घर का निर्माण जब भीतर हम कर लेते हैं तो जीवन के झंझावातों का सामना खुले दिल से कर सकते हैं. तब भीतर समाधान मिल जाता है, भीतर कोई प्रश्न नहीं रह जाता, एक विस्मय से मन भर जाता है. 

Thursday, October 10, 2013

खाली मन झलकाए उसको

मार्च २००५ 
हमारे मन में न जाने कितने प्रकार के भय छिपे हैं, चेतन मन के भय दिख जाते हैं, अचेतन मन के भय जो छिपे रहते हैं कभी-कभी उभर कर सताते हैं. मृत्यु का भय तो मूल है. हम जानते नहीं कि जन्म के साथ ही मृत्यु शुरू हो जाती है, धीरे-धीरे हम सभी उसका ग्रास बनने की तैयारी में हैं, यह जीवन जो ऊपरी तौर पर स्थायी प्रतीत होता है, कहाँ स्थायी है, हर क्षण बदल रहा है, हमारी सोच भी बदलती है. प्रियजनों से बिछड़ने का भय हो या अकेलेपन का भय उसी को सताता है जो अपने भीतर नहीं गया, भीतर प्रेम का एक अजस्र स्रोत बह रहा है उसे पा लेने के बाद जगत में रहकर भी साधक अपने आप में रहता है, आत्मा में ही संतुष्ट रहता है. जगत उसके लिए कुछ करे ऐसी उसकी आकांक्षा नहीं रहती, वह स्वयं जगत के लिए क्या करे, यही भाव उसमें प्रबल रहता है. उसका होना एक फूल के समान होता है, उसमे सिर्फ लुटाने की चाह है, अपना सब कुछ खाली कर देने की चाह, क्योंकि खाली मन में ही उसके प्रियतम का आगमन होगा, वह सदा प्रतीक्षारत रहता है जगत की नहीं जगदीश की.

Wednesday, October 9, 2013

छुप गया कोई रे

मार्च २००५ 
ईश्वर प्रेम स्वरूप है, आनन्द स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप है. वही सबमें है सब उसमें हैं अथवा तो वही सब है. हम एक क्षण के लिए भी बल्कि एक क्षण के शतांश के लिए भी उससे पृथक नहीं हो सकते, वह है तो हम हैं फिर भी वह हमें दिखाई नहीं देता. हरेक कण में परमात्मा सुप्त अवस्था में है, इसे जगाना ही साधना है. सब जगह व्याप्त चैतन्य को रिझाना और आत्मसात करना है. जो प्रकट न हो फिर भी उससे प्रेम करना, यही तो श्रद्धा है. प्रेम भाव से तल्लीन हो जाना ही चैतन्य को कण-कण में जगाना है. वह तो पहले से है ही, पर हमें जब तक अनुभव न हो तब तक हमें उसे पुकारना है. हम जैसे सोये हुए से सचेत हो जाते हैं. भीतर की चेतना यदि पूर्ण जागृत न हो तो इन्सान सोया हुआ ही कहा जायेगा. जगा हुआ ही अपनी पूर्ण जिम्मेदारी ले सकता है, अपने कर्मों, वाणी तथा विचारों के प्रति सावधान होता है.  

Friday, September 27, 2013

उद्यम ही भैरव है

मार्च २००५ 
‘उद्यमः भैरवः’  पुरुषार्थ के लिए हमें जो प्रयत्न करना है, वही भैरव है. वही शिव है. शुभ कार्यों के लिए किया गया साधन परमात्मा का ही रूप है. हम साधन तो करते हैं पर असाधन  से नहीं बचते. २३ घंटे ५९ मिनट तथा ५९ सेकेण्ड यदि हम साधन करें और एक सेकंड भी असाधन में लग गये तो सारा साधन व्यर्थ हो जाता है. और यदि एक सेकंड ही साधन किया पर शेष समय असाधन न किया तो वह साधन हमारे लिए हितकारी होगा. जप-पूजा करने के बाद भी यदि भीतर शांति का अनुभव नहीं होता तो कमी साधन में नहीं बल्कि कारण हमारा असाधन है. संतजन कहते हैं, यह सम्पूर्ण संसार एक ही सत्ता से बना है. वही ज्ञानी है, वही अज्ञानी है. वही कर्ता है, वही भोक्ता है. हम साक्षी मात्र हैं. जाने-अनजाने सभी उसी ओर जा रहे हैं. वही हमारा मार्ग दर्शक है वही हमारा ध्येय है. यह सारा संसार उसी की लीला के लिए रचा गया है. 

Thursday, September 26, 2013

सुख-दुःख स्वयं जगाता है मन

मार्च २००५ 
ज्यादातर समय हमारा मन अतीत व भविष्य की उधेड़बुन में लगा रहता है, संतजन कहते हैं जो मन को साक्षी भाव से देख सकता है, उसके मन में स्थिरता आती है. शरीर की संवेदनाओं के प्रति सजग होते होते साधक को पता चलता है की स्थूलपना खत्म होता जा रहा है, तरंगे बनती हैं फिर खत्म होती हैं. क्रोध, लोभ आदि विकार भी स्थायी नहीं हैं, शरीर, मन, बुद्धि सभी बदल रहे हैं. कान में ध्वनि तरंग पड़ते ही भीतर भी एक तरंग उठती है. आंख में जब देखते हैं तो भीतर एक तरंग उठती है. यदि दृश्य सुखद हुआ तो मन उसे पसंद करने की तरंग जगाता  है, यदि दुखद हुआ तो दुखद संवेदनाएं जगाता है. ऊपर से लगता है हम दुखद या सुखद घटना के प्रति प्रतिक्रिया जगाते हैं पर वास्तव में संवेदनाओं के प्रति ही प्रतिक्रिया करते हैं. गहराई में जाकर हम देखते हैं कि दुःख या सुख हम अपनी प्रतिक्रियाओं के कारण ही अनुभव करते हैं, जब हम यह देखते हैं की ये संवेदनाएं क्षणभंगुर हैं तो हम राग-द्वेष से मुक्त होने लगते हैं. हम जानने लगते हैं कि विकार जगते ही मन की शांति भंग होती है, तब हम विकार से मुक्त होने लगते हैं. 

Wednesday, September 25, 2013

तप कर कुंदन होवे स्वर्ण

मार्च २००५ 
तितिक्षा के बिना प्राप्त किया हुआ ज्ञान सफल नहीं होता, सुविधापूर्ण जीवन जीने की इच्छा हमें तप करने से रोकती है, कष्ट से घबराना सिखाती है, लेकिन इससे हमारे भीतर की शक्तियाँ बाहर नहीं आ पातीं. हमारे शरीर में शक्ति केंद्र हैं, जिनमें अनंत शक्ति है. मूलाधार केंद्र में जड़ता तथा चैतन्य दोनों हैं. जड़ता का अनुभव हर कोई करता है पर चेतना का कोई तप करने वाला ही. स्वाधिष्ठान केंद्र में काम तथा सृजन करने की क्षमता है. मणिपुर में लोभ, इर्ष्या, संतोष तथा उदारता हैं. हृदय में प्रेम, द्वेष तथा भय हैं. विशुद्धि चक्र में कृतज्ञता तथा दुःख की भावना शक्ति है. आज्ञा चक्र में ज्ञान तथा क्रोध व सहस्रहार में आनन्द ही आनन्द है. हम प्रतिपल सजग रहें तो नकारात्मक वृत्तियों के शिकार नहीं होंगे, तब सकारात्मक को पनपने का अवसर मिलेगा ही. सजगता भी तप है और विनम्रता भी तप है. देह को सदा सुख-सुविधाओं में रखकर हम अपने भीतर रहने वाले चैतन्य देव को जागृत होने का अवसर नहीं देते, वह हमारे माध्यम से प्रकट होना चाहता है, अपना अनंत प्रेम हमें देना चाहता है. हम उसकी आवाज को अनसुना कर देते हैं. हम पत्थरों को थामते हैं, हीरों को त्याग देते हैं. निद्रा के तामसी सुख के पीछे ध्यान का सात्विक सुख त्याग देते हैं. स्वार्थी होकर सेवा के महान व्रत से दूर रहते हैं. देह बुद्धि से ऊपर उठते ही हमारा जीवन खिलने लगता है. इसके लिए तप तो करना ही होगा.