अप्रैल २००५
सन्त
कहते हैं, भीतर कितनी शांति है, कितना प्रेम और कितना आनन्द.. भीतर आत्मा है,
ईश्वर है और बाहर भी उन्हीं का प्रसार चहूँ ओर हो रहा है. प्रकृति के सुंदर रूप,
झीलें, हिमाच्छादित पर्वत, वनस्पतियाँ, फूल, झरने, शीतल हवाएं, वर्षा, विविध
सुगंधें, और न जाने कितने-कितने अनुपम पदार्थ, मानव, पशु-पक्षी, चाँद, तारे, ग्रह-नक्षत्र
सभी कुछ कितना अद्भुत है. इन सबको रचने वाला स्वयं कितना अद्भुत होगा. सन्त कहते
हैं वह हमारे भीतर है, वह जो मिलकर भी नहीं मिलता, जो बिछड़कर भी नहीं बिछड़ता, जो
दूर भी है और पास भी, जो दीखता भी है और नहीं भी दीखता, जो सदा एक सा है, नित्य
है, शुद्ध है, पूर्ण है, बुद्ध है, जो प्रेम है, रस है, आनन्द है, शांति है, सुख
है पर जिसके जगत में दुःख भी है और पीड़ा भी, असत्य भी, घृणा भी. सभी कुछ उसी से
उपजा है, उसी की लीला है, राम है तो रावण भी है, कृष्ण है तो कंस भी है. इस जगत
में सारे विरोधी भाव हैं, रंग हैं, वरना किसी की महत्ता का भान कैसे होता. मरीज न
हो तो वैद्य का क्या काम, माया न हो तो माया पति का क्या कार्य, पर सन्त कहते हैं
जगत के इन द्वन्द्वों के मध्य रहते–रहते हमें बहुत समय हो गया, सुख-दुःख के चक्र
में फंसकर हम अनेकों बार वही वही कर्म ही करते आए हैं, हमें इनसे ऊपर उठना है, द्वन्द्वातीत
होना है हमें, पर हमारा मन इनसे ऊपर उठना चाहता ही नहीं वह किन्हीं विश्वासों,
पूर्वाग्रहों, मान्यताओं में बंधा स्वयं तो अशांत होता ही है और हम जो उसके इशारों
पर चलते हैं व्यर्थ ही फंस जाते हैं.