मई २००५
‘प्रेम
गली अति सांकरी जामे दो न समाए’ जीवन में यदि द्वंद्व है तो दुःख रहेगा ही. द्वैत
के शिकार होते ही मन द्वेष करता है, थोड़ी सी भी निषेधात्मकता अथवा आग्रह उसे समता
की स्थिति से डिगा देता है. यह तलवार की धार पर चलने जैसा है. भीतर जब एक धारा
बहेगी, समरसता की धारा तब शांति तथा आनन्द फूल की खुशबू की तरह अस्तित्व को समो
लेंगे. आकाश से बहती जलधार जब धरा को सराबोर करती है तो उसका कण-कण भीग जाता है,
इसी तरह भीतर जब समता का अमृत स्रोत खुल जाता है तो प्रेम व आनन्द की धारा बहती
है. मन का ठहराव ही आत्मा की जागृति है. आत्मा में स्थित होकर जीने का ढंग यदि सध
जाये तो कुछ अप्राप्य नहीं है.
भीतर जब समता का अमृत स्रोत खुल जाता है तो प्रेम व आनन्द की धारा बहती है...very true
ReplyDelete" प्रेम-गली अति सॉकुरी ता में दो न समाहिं ।" सुन्दर रचना । बधाई \
ReplyDeleteअपर्णा जी व शकुंतला जी, स्वागत व आभार !
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