मई २००५
मन का जो जानने वाला
हिस्सा है, वह सजग रहे तो ही हम वर्तमान में रह सकते हैं, वरना मन की सहज आदत है
कभी भूत में जाना कभी भविष्य की कल्पना करना. कोई अन्य यदि हमें अपना दुःख कहे तो
हम उसके प्रति सहज ही संवेदना प्रकट करते हैं वैसे ही मन में जब कोई दुःखद बात याद
आती है तो यंत्र की तरह मन उसके प्रति दुखद संवेदना जगाता है, और दुःख का संस्कार भीतर
पक्का हो जाता है. सजग रहकर हम बस साक्षी होते हैं की अब मन ने दुखद को याद किया
अब सुखद को याद किया, दोनों ही स्वप्न मात्र हैं, हमारे सुख-दुःख का कारण वह घटना
नहीं बल्कि हमारे मन की प्रतिक्रिया है, क्रोध के समय जो अपशब्द हम बोलते हैं, वे
सामने वाले को दुखी करें या नहीं यह उसकी सजगता पर निर्भर है पर हमने अपने भीतर दुःख का बीज बो दिया यह तो तय है, और बाद में
इसे याद करके मन इसे भी संस्कार के रूप में सुरक्षित रख लेता है. कोई दूसरा हमें
व्याकुल करे तो हम स्वयं को बचा भी सकते हैं पर संस्कार रूप में संजो कर रखे अपने
ही मन से कोई कैसे बच सकता है, साक्षी भाव ही एक मात्र उपाय है, और तब भीतर एक
आह्लाद का जन्म होता है, जैसा बच्चे की हरकतों को देखकर होता है.
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