Monday, March 29, 2021

सत की नाव खेवटिया सदगुरू

हर वह कर्म जो निज सुख की चाह में किया जाता है, हमें बांधता है. जो स्वार्थ पर आधारित हों वे संबंध हमें दुःख देने के कारण बनते हैं. जब हम अपना सुख भीतर से लेने लगते हैं तब स्वार्थ उसी तरह झर जाता है जैसे पतझड़ में पत्ते, तभी जीवन में सेवा और प्रेम की नयी कोंपलें फूटती हैं. जब संबंधों का आधार प्रेम हो तभी उनकी ख़ुशबू जीवन को महका देती है. रजस हमें अपने ही सुख की चिंता करना सिखाता है, तमस उसके लिए असत्य का सहारा लेने से भी नहीं झिझकता. सत का पदार्पण ही ज्ञान की मशाल लेकर वास्तविकता का परिचय कराता है. जीवन में सत्व की वृद्धि करनी हो तो सत्संग उसकी पहली सीढ़ी है. शास्त्रों का अध्ययन व नियमित साधना उसके सिद्ध  मार्ग हैं. सत्व हमें अपने आप से जोड़े रखता है. यह अनावश्यक कर्मों से हमने बचाता है और कर्म हीनता से भी दूर रखता है. सत ही आत्मबल और मेधा को बढ़ाता है. 


Tuesday, March 23, 2021

चोर न लूटे, खर्च न फूटे

 हम एक बेशकीमती रत्न  को अपने भीतर कहीं मन की गहराई में छिपाकर भूल गए हैं, जो अनमोल है और जिसे जितना भी खर्च किया जाये चुकेगा नहीं. नानक तभी कहते हैं वह बेअंत है. हजारों-हजारों संतों, ऋषियों ने उसी अनमोल धरोहर से संपदा पायी, पा रहे हैं और लुटा रहे हैं। यह जो संतों के यहाँ लाखों की भीड़ जुटती है वह उस हीरे की चौंध की झलक मात्र पाने हेतु ही तो, जबकि वह हीरा अपने भीतर भी है। संत इसी चमक का स्मरण कराते हैं। हम हवा के घोड़े पर सवार रहते हैं। सांसारिक कामों को निपटाने की बड़ी जल्दी रहती है हमें। सब कुछ पा लेने की फिराक में, जल्दी से जल्दी गाड़ी, बंगला, रुतबा, शोहरत इन्हें पाने के लिए दिन-रात एक कर देते हैं, बिना सोचे कि ये सब हमें ले जाने वाले हैं एक दिन अग्नि की लपटों में। हमारी मंजिल यदि शमशान घाट ही है, चाहे वह आज हो या पचास वर्ष बाद, तो क्या हासिल किया। एक रहस्य जिसे दुनिया भगवान कहती है, हमारे माध्यम से स्वयं को प्रकट करने हेतु सदा ही निकट है। वही जो प्रकृति के कण-कण से व्यक्त हो रहा है। वह एक अजेय मुस्कान की तरह हमारे अधरों पर टिकना चाहता है और करुणा की तरह आँखों से बहना चाहता है। वह प्रियतम बनकर गीतों में बसना चाहता है। संगीत बनकर स्वरों में गूंजना चाहता है। वही कला है, वही शिल्प है, वही नृत्य है, पूजा है। वही अंतरतम में बसने वाली समाधि है। वही प्रज्ञा और मेधा है।

Sunday, March 21, 2021

उमा कहउँ मैं अनुभवअपना

 रामचरितमानस में एक जगह शिव उमा से कहते हैं, यह जगत एक सपना है और जो इसका आधार भूत  है, वह परम तत्व ही एकमात्र सत्य है। यह जानते हुए भी हम सभी को यह जगत न केवल सत्य प्रतीत होता है, बल्कि अपना भी प्रतीत होता है। पुराणों में कहा गया है शिव समाधिस्थ रहते हैं और आदिशक्ति से यह सारा जगत प्रकट हो रहा है। किन्तु शिव और शक्ति दो नहीं हैं. शिव की शक्ति ही प्रकृति के रूप में व्यक्त हो रही है। नाम और रूप से यह सारा जगत परिपूर्ण है, पर ये दोनों जहाँ से आये हैं, वह शिव की ही शक्ति है। ज्ञान शक्ति भी वहीं से प्रकटी है, जिसे मन यानि इच्छा शक्ति अपने पीछे चलाती है। अहंकार यानि क्रिया शक्ति भी उसी शिव की है पर व्यक्ति स्वयं को स्वतंत्र कर्ता मानकर सुखी-दुखी होता रहता है।ध्यान के जिस क्षण ये तीनों शक्तियां एक होकर अपने मूल स्रोत से  जुड़ जाती हैं तो जीवन में भक्ति और श्रद्धा के फूल सहज ही खिलते हैं। तभी साधक यह जान पाता है कि नित्य बदलने वाला जगत कभी मिलता नहीं और जो सदा एक सा है वह शिव स्वरूप आत्मा कभी नष्ट होता नहीं। 


Tuesday, March 16, 2021

हीरा जन्म अमोल है

 जगत को देखने का नजरिया सबका अलग-अलग है। एक ज्ञानी उसे अपना ही विस्तार मानता है, भक्त उसे परमात्मा की अनुपम कृति के रूप में देखता है।सामान्य जन उसे अपने सुख का साधन मानता है। कोई पत्थर में भी ईश्वर को देख लेता है तो किसी को जीवित मनुष्य में भी  जीवन नजर नहीं आता। यह दुनिया हमें वैसी ही नजर आती है जैसा हम देखना चाहते हैं। यदि हमारा मन श्रद्धा से भरा है तो ऐसे ही लोगों की तरफ हमारा झुकाव होगा। संतों, महात्माओं व ईश्वर के प्रति सहज ही भीतर आकर्षण होगा। उनकी संगति से भीतर का कलुष धुल जाएगा और एक दिन वह सत्य जो सदा ही सबके भीतर विराजमान है, प्रकट हो जाएगा। अध्यात्म का अर्थ है आत्म जागृति, यानि स्वयं के बारे में सही-सही ज्ञान प्राप्त करना। उस स्वयं के बारे में जो हमें जन्म से ही प्राप्त है, जिसमें दुनिया का ज्ञान कोई इजाफा नहीं करता, बल्कि जो भी हमने उसके ऊपर परत दर परत चढ़ा लिया है, उसे उतार देना है। जैसे कोई हीरा यदि मिट्टी की परतों से ढका हो तो उसे साफ करते हैं वैसे ही साधना के द्वारा स्वयं पर चढ़े इच्छाओं, अपेक्षाओं आदि के आवरण को धो भर देना है। 


Sunday, March 14, 2021

भए प्रकट गोपला दीन दयाला

 जीवन में यदि सत्य नहीं है तो हृदय में सत्यनारायण का वास कैसे होगा। हम कई बार मन में कुछ और होने पर अन्यों से कुछ और ही कहते हैं, इस तरह हम दूसरों को ही नहीं स्वयं को भी धोखा दे रहे होते होते हैं। परमात्मा हर घड़ी हमारे माध्यम से प्रकट होने के लिए व्याकुल है। वह राह ही देख रहा है। मानव का अंतर झूठ की परतों इतना ढक गया है कि उस पावन को वहाँ आश्रय ही नहीं मिलता। हम उसके होने के प्रमाण खोजते हैं और वह हमारी शुद्धता की राह देखता है। कोरोना का वायरस मानवता को शुद्ध बनाने के लिए ही संभवत: आया है। धरती, पानी, हवा सभी को अशुद्ध बना चुका है मानव क्योंकि मन की शुद्धता ही कहीं दब गई है। प्रकृति शुद्ध होगी जब मन पवित्र होगा। मन शुद्ध होगा जब भीतर कपट नहीं रहेगा। प्रकट तथा कपट कितने मिलते-जुलते शब्द हैं पर कितना विपरीत अर्थ रखते हैं। जो प्रकट है अर्थात सम्मुख है वह परमात्मा है पर कपट भरे मन के लिए वह अप्रकट ही रह जाता है। जीवन में जितनी पारदर्शिता व सत्य हो उतना ही देवत्व प्रकट होने में देर नहीं करता। 


Monday, March 8, 2021

एक यात्रा है यह जीवन

 जीवन एक यात्रा ही तो है। क्या यह यात्रा मात्र जन्म से मृत्यु तक की यात्रा है ? नहीं, यह यात्रा है जीवन से महाजीवन की, जड़ता से चैतन्यता की। विषाद से प्रसाद की, मूलाधार से सहस्रार की, जीवन से ब्रह्म की यात्रा है यह ! सुख-दुख के द्वन्द्व से आनंद की यात्रा, सापेक्षता से निरपेक्षता की भी। विभाजन से अखंडता की, द्वैत से अद्वैत की यात्रा है। उहापोह से परम विश्रांति की यात्रा भी है। लोभ से उदारता की यात्रा है, क्रोध से होश की भी। कामना से वैराग्य की यात्रा है जीवन तो माया से मायापति की यात्रा भी ! देह का जन्म एक वरदान है, देह की मृत्यु महा-वरदान है। मन का मिटना साधना का परिणाम है। जब मन थम जाता है तब आत्मा की अमरता का परिचय होता है। जिसके बाद लेने का भाव समाप्त हो जाता है और देने का भाव जन्म लेता है। वास्तविक जीवन का आरंभ तभी होता है, जिसे महाजीवन भी कह सकते हैं। 


शिव की करे जो मन उपासना

 शिवलिंग पत्थर से बनाया जाता है। जबकि शिव पदार्थ नहीं हैं, वे निराकार हैं, अमर हैं, शाश्वत हैं।  पत्थर का प्रयोग शायद इसी अमर्त्य को दिखाने के लिए किया जाता है क्योंकि   देह की अपेक्षा पत्थर अनंत काल तक रह सकता है। शिव का ज्योतिर्लिंग हमारी आत्मा का प्रतीक है। देहें ठोस दिखती हैं उनका रूप और आकार है। जो बना है वह मिटेगा ही। जो जन्मा है वह मरेगा ही। देह जन्मती है फिर मिटती है। इसके भीतर रहने वाली ज्योति ही शिवलिंग का प्रतीक है,  जो वास्तव में ठोस है. खुदाई में न जाने कब से बनाए शिवलिंग मिलते हैं, वे नहीं मरते। जब तक सृष्टि है, शिवलिंग की सत्ता रहेगी। उस आत्मज्योति को  ही जल चढ़ाते हैं। वही चेतना प्रेम और क्रोध दोनों है। शिव में समाई है शक्ति, जो सृजन करती है। पत्थर के एक-एक परमाणु में में अपार शक्ति है। हमारे भीतर भी अपार शक्ति है, विध्वंसात्मक और सृजनात्मक दोनों ही। दोनों को समुचित उपयोग में लाना है। तीनों गुणों से सम्पन्न है वह शक्ति, इसलिए बेल पत्र चढ़ाते हैं। कंटक चढ़ाते हैं ताकि तमस सीमा में  रहे, जल चढ़ाते हैं, ताकि रजस सीमा में रहे। शिव के साथ सभी भूत -प्रेत भी  दिखाते हैं, भूत अतीत  का प्रतीक है, मन में न जाने कितने जन्मों मे संस्कार हैं, अतृप्त कामनायें हैं जो राक्षस की भांति पीछे लगी हैं। शक्ति उन्हीं का संहार करती है। हर आत्मा का जीवन शिव और शक्ति की लीला है।

Friday, March 5, 2021

तोर मन दर्पण कहलाये

 मन दर्पण है, परमात्मा बिम्ब है, जीव प्रतिबिंब है, यदि दर्पण साफ नहीं हो तो उसमें प्रतिबिंब स्पष्ट नहीं पड़ेगा। संसार भी तब तक निर्दोष नहीं दिखेगा जब तक मन निर्मल नहीं होगा। हम अपने मन के मैल को जगत पर आरोपित कर देते हैं और व्यर्थ ही जगत को दोषी मानते हैं। जब कभी हमने किसी को दोषी माना, उस पर अपना ही मत थोपा है। हर कोई जैसा है वैसा है।  अपनी समझ के अनुसार ही हम निर्णायक बनते हैं, हमारी समझ कोई पूर्ण तो है नहीं। यदि भीतर क्रोध है तो वह बाहर आने का रास्ता खोजेगा। यदि भीतर काम है तो वह जगत में उसी को आरोपित करेगा। दृष्टि जैसी होगी सृष्टि वैसा ही रूप धर लेती है। यदि कोई दृष्टिकोण ही न हो तो दुनिया जैसी है वैसी ही दिखेगी, इससे हमारी शांति भंग नहीं होगी। इसलिए संत कहते हैं अहंकार को छोड़े बिना सत्य का साक्षात्कार नहीं हो सकता। अहंकार है किसी भी उपाधि से स्वयं को पहचानना।  उपाधि का अर्थ है किसी वस्तु को स्वयं पर आरोपित कर लेना। आत्मा मुक्त है नित्य है उस पर देह को आरोपित करके स्वयं को मोटा, पतला, काला, गोरा, स्वस्थ, अस्वस्थ मानने लगते हैं। मन व बुद्धि को आरोपित करके स्वयं को सुखी-दुखी मानने लगते हैं। यदि न भीतर कोई आरोपण हो न बाहर ही, तो जीवन फूल की तरह हल्का व सुगंध बिखेरने वाला बन जाएगा।

Monday, March 1, 2021

समता यदि साध ले कोई

जीवन फूल की तरह नाजुक है तो चट्टान की तरह कठोर भी। पथरीले रस्तों के किनारे कोमल पुष्प खिले होते हैं और कोमल पौधों पर तीक्ष्ण कांटे उग आते हैं। यहाँ विपरीत साथ-साथ रहता है। शिव के परिवार में बैल और सिंह दोनों हैं, सर्प और मोर में सामीप्य है। जो विपरीत में समता बनाए रखना जानता है वह जीवन के मर्म को छू लेता है। हम ज्यादातर एक की तरफ झुक जाते हैं, जो संवेदनशील है वह छोटी-छोटी बातों को दिल से लगा लेता है और इसके विपरीत जो किसी बात की परवाह ही नहीं करता वह अहंकारी हो जाता है । यदि मध्य में रहना हो तो हमें एक साथ संवेदनशील और बेपरवाह होना सीखना होगा, दोनों जिस बिन्दु पर मिलते हैं उस मध्य में ठहरना सीखना होगा। उस मध्य के बिन्दु पर हम दोनों में से कुछ भी नहीं होते, लेकिन जिस क्षण जैसी आवश्यकता हो हम तत्क्षण वैसा व्यवहार करने में सक्षम होते हैं। इसके विपरीत यदि कोई एक सीमा पर है तो उसे दूसरी तरफ जाने में कितना समय लगेगा नहीं कहा जा सकता। इसी तरह कुछ लोग  बहुत ज्यादा बोलते रहते हैं, उन्हें अपनी वाणी पर नियंत्रण नहीं रह जाता और कुछ को थोड़ा सा बोलना भी नागवार गुजरता है, वे दूसरी अति पर हैं। मध्य में स्थित हुआ जरूरत पड़ने पर घंटों बोल सकता है और जरूरत न होने पर मौन भी रह सकता है। समता का यह गुण ही योग साधना की सिद्धि है।