मन दर्पण है, परमात्मा बिम्ब है, जीव प्रतिबिंब है, यदि दर्पण साफ नहीं हो तो उसमें प्रतिबिंब स्पष्ट नहीं पड़ेगा। संसार भी तब तक निर्दोष नहीं दिखेगा जब तक मन निर्मल नहीं होगा। हम अपने मन के मैल को जगत पर आरोपित कर देते हैं और व्यर्थ ही जगत को दोषी मानते हैं। जब कभी हमने किसी को दोषी माना, उस पर अपना ही मत थोपा है। हर कोई जैसा है वैसा है। अपनी समझ के अनुसार ही हम निर्णायक बनते हैं, हमारी समझ कोई पूर्ण तो है नहीं। यदि भीतर क्रोध है तो वह बाहर आने का रास्ता खोजेगा। यदि भीतर काम है तो वह जगत में उसी को आरोपित करेगा। दृष्टि जैसी होगी सृष्टि वैसा ही रूप धर लेती है। यदि कोई दृष्टिकोण ही न हो तो दुनिया जैसी है वैसी ही दिखेगी, इससे हमारी शांति भंग नहीं होगी। इसलिए संत कहते हैं अहंकार को छोड़े बिना सत्य का साक्षात्कार नहीं हो सकता। अहंकार है किसी भी उपाधि से स्वयं को पहचानना। उपाधि का अर्थ है किसी वस्तु को स्वयं पर आरोपित कर लेना। आत्मा मुक्त है नित्य है उस पर देह को आरोपित करके स्वयं को मोटा, पतला, काला, गोरा, स्वस्थ, अस्वस्थ मानने लगते हैं। मन व बुद्धि को आरोपित करके स्वयं को सुखी-दुखी मानने लगते हैं। यदि न भीतर कोई आरोपण हो न बाहर ही, तो जीवन फूल की तरह हल्का व सुगंध बिखेरने वाला बन जाएगा।
वाह! बहुत सुंदर मोह जाती है आपकी लेखनी।
ReplyDeleteसादर
स्वागत व आभार अनीता जी !
Deleteयदि कोई दृष्टिकोण ही न हो तो दुनिया जैसी है वैसी ही दिखेगी, इससे हमारी शांति भंग नहीं होगी। इसलिए संत कहते हैं अहंकार को छोड़े बिना सत्य का साक्षात्कार नहीं हो सकता।+
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा मैम...