जगत को देखने का नजरिया सबका अलग-अलग है। एक ज्ञानी उसे अपना ही विस्तार मानता है, भक्त उसे परमात्मा की अनुपम कृति के रूप में देखता है।सामान्य जन उसे अपने सुख का साधन मानता है। कोई पत्थर में भी ईश्वर को देख लेता है तो किसी को जीवित मनुष्य में भी जीवन नजर नहीं आता। यह दुनिया हमें वैसी ही नजर आती है जैसा हम देखना चाहते हैं। यदि हमारा मन श्रद्धा से भरा है तो ऐसे ही लोगों की तरफ हमारा झुकाव होगा। संतों, महात्माओं व ईश्वर के प्रति सहज ही भीतर आकर्षण होगा। उनकी संगति से भीतर का कलुष धुल जाएगा और एक दिन वह सत्य जो सदा ही सबके भीतर विराजमान है, प्रकट हो जाएगा। अध्यात्म का अर्थ है आत्म जागृति, यानि स्वयं के बारे में सही-सही ज्ञान प्राप्त करना। उस स्वयं के बारे में जो हमें जन्म से ही प्राप्त है, जिसमें दुनिया का ज्ञान कोई इजाफा नहीं करता, बल्कि जो भी हमने उसके ऊपर परत दर परत चढ़ा लिया है, उसे उतार देना है। जैसे कोई हीरा यदि मिट्टी की परतों से ढका हो तो उसे साफ करते हैं वैसे ही साधना के द्वारा स्वयं पर चढ़े इच्छाओं, अपेक्षाओं आदि के आवरण को धो भर देना है।
उपयोगी विचार।
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
Deleteबहुत ही सुंदर विचार कथन, नमन
ReplyDeleteस्वागत व आभार ज्योति जी !
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