Friday, September 26, 2014

शुभकामनायें

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
आने वाले सभी पर्वों के लिए शुभकामना के साथ अगले दस-बारह दिनों के लिए विदा. आज ही हम बंगलुरु तथा कुर्ग की यात्रा पर जा रहे हैं. आशा है आप सभी के जीवन में विजयादशमी का उत्सव नई विजय की सूचना लेकर आएगा. परमात्मा हर क्षण हम सभी के साथ है.

अनिता 

हाथ बढ़ाकर ले लें उसको

मार्च २००७ 
सन्त कहते हैं, हमें क्रियाशीलता में मौन ढूँढना है और मौन में क्रिया ! हमें निर्दोषता में बुद्धि की पराकाष्ठता तक पहुंचना है और बुद्धि को भोलेपन में बदलना है. हम सहज हों पर भीतर ज्ञान से भरे हों. ज्ञान कहीं अहंकार से न भर दे. ऐसा ज्ञान जो हमें सहज बनाता है, जो बताता है कि ऐसा बहुत कुछ है जो हम नहीं जानते, बल्कि हम कुछ भी नहीं जानते, ऐसा ज्ञान हमें मुक्त कर देता है. ऐसा ज्ञान जो हमारी बेहोशी को तोड़ दे, हमारी बेहोशी जाने कितनी गहरी है पर जैसे एक दिया हजारों साल के अंधकार को पल भर में दूर कर देता है ऐसे ही गुरु के ज्ञान का दीया अपने आलोक से हमें प्रकाशित करता है. वे कहते हैं परमात्मा का प्रेम हमें सहज ही प्राप्त है. हाथ बढ़ाकर बस उसे स्वीकारें, कोई पदार्थ या क्रिया उसे हमें नहीं दिला सकती. वह अनमोल प्रेम तो बस गुरु कृपा से ही मिलता है. उनकी चेतना शुद्ध हो चुकी है, वह परमात्मा से जुड़े हैं और बाँट रहे हैं.. दिनरात.. प्रेम का प्रसाद !

Thursday, September 25, 2014

खोकर उसको ही पाना है


परमात्मा को पाकर हमें आनंद मिलता है, यह नया आनन्द है पर इस पर रुकना नहीं है. हमें आगे जाना है जहाँ आनन्द का सागर है. परमात्मा हीरा है, उसे केवल आनन्द का स्रोत समझा तो हम वहीं रुक जायेंगे. इस आनन्द को अपना आधार बनाकर आगे बढना है. इसे असीम तक ले जाना है. वही तो हमारा स्वभाव है. जैसे ही हमारी दुःख की पकड़ छूटी, भीतर सुख का झरना बहने लगता है. ध्यान से दुःख की चट्टान हट जाती है और हम अपने स्वाभाविक रूप को पा लेते हैं, आनन्द हमारा स्वभाव है तो परमात्मा हमारा स्वभाव है ! उसकी झलक तो कई  बार अनायास ही मिलती है क्योंकि वह भी तो हमें ढूँढ़ रहा है. कभी-कभी वह हमें पकड़ लेता है, आविष्ट कर लेता है. पर हमारे मन में कोई कोना ऐसा नहीं है जहाँ वह टिक सके, हम उसे आया हुआ नहीं देख पाते. हम कई बात ठिठके हैं, पर उसकी व्याख्या करके बात को टाल देते हैं, जब हम जागेंगे तभी जानेंगे कि परमात्मा तो सदा हमें मिलता रहा है जब पूर्ण हो जायेंगे तो पुरानी स्मृतियाँ भी ताजी हो जाएँगी कि उसको पाने से पहले कई बार पाकर खो चुके हैं. 

Tuesday, September 23, 2014

पग घुंघरू बाँध मीरा नाची रे


आनंद पर श्रद्धा हो सके तो भीतर आनंद की लहर दौड़ जाती है. भीतर अनाहत नाद गूँजने लगता है, बिना घुंघरू के छमछम होती है ! जैसे मीरा के पैरों में घुंघरू बंधे थे वैसे ही उसके दिल के भीतर भी बजे थे, बल्कि वे घुंघरू तो दिन-रात बज ही रहे हैं. भीतर एक ऐसी दुनिया है जहाँ आनन्द ही आनंद है, हमें उस पर श्रद्धा ही नहीं होती, आश्चर्य की बात है कि इतने संतों और सद्गुरुओं को देखकर भी नहीं होती. कोई-कोई ही उसकी तलाश में भीतर जाता है, जबकि भीतर जाना कितना सरल है, अपने हाथ में है, अपने ही को तो देखना है, अपने को ही तो बेधना है परत दर परत जो हमने ओढ़ी है उसे उतार कर फेंक देना है. हम नितांत जैसे हैं वैसे ही रह सकें तो भीतर का आनंद तो छलक ही रहा है, वह मस्ती तो छा जाने को आतुर है. हम सोचते हैं कि बाहर कोई कारण होगा तभी भीतर ख़ुशी फूटी पड़ रही है पर सन्त कहते हैं भीतर ख़ुशी है तभी तो बाहर उसकी झलक मिल रही है हमें भीतर जाने का मार्ग मिल सकता है पर उसके लिए उस मार्ग को छोड़ना होगा जो बाहर जाता है एक साथ दो मार्गों पर हम चल नहीं सकते. बाहर का मार्ग है अहंकार का मार्ग, कुछ कर दिखाने का मार्ग भीतर का मार्ग है, समर्पण का मार्ग, स्वयं हो जाने का मार्ग !  


Monday, September 22, 2014

पल पल रहे जागता मन जब

मार्च २००७ 
प्रेम का मार्ग अति कठिन है, प्रेम किसी क्रिया या पदार्थ पर निर्भर नहीं करता. मन रूपी दर्पण पर जमी धूल सामने हो तो आत्मा रूपी प्रेम नहीं दिखता जब क्रिया या पदार्थ के प्रति आसक्ति के प्रति सजग होकर कोई उसे त्याग देता है तो उसमें एक नई जागृति उत्पन्न होती है और वह अपने मन पर लगी धूल साफ करने लगता है. यह जागृति ही प्रेम को जन्म देती है. जो जागता है उसका ध्यान परमात्मा करता है, जागरण का अर्थ है आत्मा में स्थित हो जाना और आत्मा परमात्मा का अंश है. जागना यानि सजगता हमें पल-पल मुक्त रखती है. यही जीवन मुक्ति है. भीतर से ऐसी मुक्तता का अनुभव करना हमें प्रेम सिखाता है. वही सहजता है, वही योगी का लक्ष्य है, ध्यानी का और ज्ञानी का लक्ष्य है. हर जाता हुआ क्षण हमें विश्रांति का अनुभव दे और हर आता हुआ शक्ति का तो हम कार्य करते हुए भी आनन्द का अनुभव करते हैं तथा कुछ न करते हुए भी तृप्ति का. सजगता आती है सजग रहने से जैसे तैरना आता है तैरने से, इसमें किसी व्यक्ति, वस्तु, क्रिया पर हमें निर्भर नहीं रहना है. सद्गुरु ने यह मार्ग दिया है, अब चलना तो स्वयं ही होगा. यह तलवार की धार पर चलने जैसा है पर इस पर चलने का बल परमात्मा हमें देता है, उसकी कृपा तो बरस रही है अनवरत !


Saturday, September 20, 2014

उससे मिलना जब हो जाये

मार्च २००७ 
हम व्यर्थ ही मन में संकल्पों का जाल बुनते हैं और व्यर्थ ही विपदाओं को मोल लेते हैं. प्रभु के भक्त के लिए एक क्षण के लिए भी उसका विस्मरण विपदा के समान ही तो है, आत्मा का सूर्य जब पल भर के लिए भी संकल्प रूपी बादल से ढक जाये तो कैसी छटपटाहट सी होती है, कोई भीतर से हमें कुरेदता है. जितना हम उससे प्रेम करते हैं उससे कहीं ज्यादा वह हमसे प्रेम करता है. वह भी तो इस बात के लिए प्रतीक्षित रहता है कि कोई उसे पुकारे. हम जिस क्षण असजग हो जाते हैं तभी अभाव सताता है, वास्तव में अभाव उसी का होता है जिसे भरना हम बाहरी वस्तुओं से चाहते हैं. 

Friday, September 19, 2014

बना साक्षी सुख-दुःख का जो

मार्च २००७ 
जब गुरू जीवन में आते हैं तो जीवन को एक सही मार्ग मिलता है. हम साक्षी भाव को प्राप्त होते हैं. देह नित नाश की ओर जा रही है. हम स्वयं मरने वाले नहीं है, जड़ प्रकृति को अपना मान कर ही हम उपाधियों को प्राप्त होते हैं. सुखी-दुखी होने पर यह देखना चाहिए कि सुखी-दुखी कौन हो रहा है ? हम बेहोशी में स्वयं को ही सुखी-दुखी मान लेते हैं. साक्षी भाव में आते ही हम स्वयं को मुक्त अनुभव करते हैं. जब भीतर का वातावरण शांत हो, प्रेमपूर्ण हो, आनन्दपूर्ण हो और संतुष्टि से भरा हो तो मानना चाहिए कि साक्षी भाव जग रहा है. पूर्ण सजग रहकर इसे बनाये रखना है तथा मन, बुद्धि आदि में कोई हलचल हो भी तो उसे देखने मात्र से वह नष्ट हो जाती है. 

Thursday, September 18, 2014

नित्य निरंतर जो बढ़ता है

मार्च २००७ 
दो तरह का प्रेम होता है एक साधक का, एक सिद्ध का. पहला हमें करना है दूसरा अपने आप होता है. हमारी साधना लौकिक है और यह दूसरा प्रेम दिव्य है, इसे पाने के लिए कीर्तन, स्मरण तथा श्रवण साधनों से भक्ति के द्वारा अंत करण की शुद्धि करनी होगी. तब अहंकार नही रहता, संसार की वस्तुओं की कामना नहीं भी रहती तथा हृदय की समता बनी रहती है, फिर वह दिव्य प्रेम स्वतः ही प्रकट होता है. ऐसा प्रेम जो कभी घटता नहीं, नित्य बढ़ता ही रहता है, ऐसा प्रेम जो दोष नहीं देखता, जो सदा एक के प्रति होते हुए भी सारी सृष्टि के लिए होता है.


Tuesday, September 16, 2014

जाग सके तो जाग

मार्च २००७ 
ईश्वर कृपा रूप है, उसकी कृपा हर पल, हर स्थान पर बरस रही है. हम कृपा के सागर में ही रह रहे हैं पर हम इसे महसूस नहीं कर पाते. ज्ञान, कर्म और उपासना के द्वारा हम इसे महसूस करने के योग्य बन सकते हैं. ज्ञान का अर्थ है स्वयं के वास्तविक रूप का ज्ञान अर्थात आत्मा का ज्ञान, कर्म का अर्थ है निष्काम कर्म अर्थात जो सहज रूप से होते हैं न कि किसी कामना वश, उपासना का अर्थ है भक्ति, जो हमें ईश्वर के निकटतर लेती जाये. मात्र शाब्दिक ज्ञान हमें कहीं नहीं ले जायेगा वरण अनुभव करना होगा. अभी तो हम असजग हैं, स्वप्न में हैं, केवल रात्रि को ही स्वप्न नहीं देखते, दिन में भी भीतर जो अंतर धारा चल रही है वह भी तो स्वप्न ही  है. बीच में कभी क्षण भर के लिए स्वप्न टूटता है. काश ! यह हमारे जीवन की रात्रि का अंतिम स्वप्न हो. सन्त हमें जगाने आते हैं, वह जो स्वयं जगा है वही तो दूसरों को जगा सकता है.


Monday, September 15, 2014

कुछ देना न लेना मगन रहना

मार्च २००७
जैसी दृष्टि वैसी ही सृष्टि दिखाई पडती है. परमात्मा का नशा शेष सारे नशों को तोड़ देता है, इसका लक्षण है जागरण. परमात्मा को पाने की स्थिति कोई रूखी-सूखी नहीं है. यह प्रेम से भरी है. यह हरी-भरी है. यहाँ नाद है, गुंजन है. यह संपदा इतनी बड़ी है कि अहोभाग व्यक्त करना भी ओछा लगता है. तब मौन ही एक मात्र सहारा रह जाता है. यह मौन अपने भीतर बहुत कुछ छिपाए है. यह उदासीनता नहीं है, यह पूर्ण तृप्ति है. अब कुछ कहना शेष नहीं रह गया, कुछ पाना नहीं, कुछ जानना नहीं, कुछ जताना भी नहीं. बस गूंगे की मिठाई की तरह भीतर ही भीतर उस रस का अनुभव करते जाना. यह जग नहीं समझता क्योंकि जिसने पाया है वही तो जानेगा.


Monday, September 8, 2014

भीतर एक अछूता देश

मार्च २००७ 
क्रिया और पदार्थ दोनों से परे है आत्मा, हम कितना भी जप, तप, ध्यान आदि करें, सब मन व बुद्धि के स्तर तक ही रहेगा तथा पदार्थ तो वहाँ तक भी नहीं ले जाते जहाँ से मन व बुद्धि लौट-लौट आते हैं. वह अछूता प्रदेश है. वहाँ कुछ भी नहीं है, न कोई करने वाला न क्रिया, न दृश्य न द्रष्टा, केवल शुद्ध चेतना ही वहाँ है. वही शुद्ध चेतना, परमात्मा या आत्मा कहलाती है. वही चेतना जब संसार की ओर मुड़ती है तो जीवात्मा कहलाती है.


Friday, September 5, 2014

कैसा है यह जाल पसारा

फरवरी २००७ 
ज्ञान और भक्ति साथ-साथ चलते हैं. जब हमें आत्मा का ज्ञान होता है तो हृदय प्रेम से भर जाता है. आनन्द को कोई आनन्द से ही तो पूज सकता है. यह सारी प्रकृति उसी का रूप है जो हमें दिन-रात आनन्दित करने की चेष्टा करता है. वह स्वयं आनन्द स्वरूप है और आनन्द ही बिखेर रहा है. लेकिन हम अपने बनाये जाल में इतने मगन हैं कि उसकी ओर दृष्टि ही नहीं करते, वह हमें दुःख भी इसलिए देता है कि हम उससे उकता कर उसे देखें पर हमारी मूढ़ता की कोई सीमा नहीं है हम दुःख में ही सुकून ढूँढ़ लेते हैं. एक अजीब सी बेहोशी में सारा जगत डूबा हुआ है, जागकर देखता भी नहीं कि असल समस्या कहाँ हैं ?


Thursday, September 4, 2014

मुक्त हुआ जो वही सुखी

फरवरी २००७ 
जो चेतना स्वाधीन है, वह शांत है. जो चेतना पराधीन है वह बेचैन होती है. चाह हमें पराधीन बनाती है और जो काम हम बिना चाह के करते हैं वह भी पराधीन चेतना की निशानी है. अहंकार के लिए भी दूसरों पर निर्भर होना पड़ता है, आत्मसम्मान के लिए कोई अन्य नहीं चाहिए. भीतर से जो संतोष प्रकट होता है, रंजन की शक्ति होती है, वही स्वाधीन चेतना से झरती है.  


Tuesday, September 2, 2014

यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे

फरवरी २००७ 
यह सारा संसार एक विशाल कम्प्यूटर की तरह है, हम इसमें जो भी फीड करते हैं, हमें वही वापस मिलता है. सभी के प्रति जब हम सद्भावना रखेंगे तो हमें वही वापस मिलेगी  और यदि कोई दुःख हमारे जीवन में आता भी है तो वह हमारे ही पूर्व कर्मों का फल है. यह समष्टि प्रेम, शांति, आनन्द तथा ज्ञान स्वरूप है. ‘यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे’ के अनुसार जो समष्टि में है वही व्यष्टि में है. साधक के लिए संतों के वचन भीतर तक शीतलता पहुँचाने वाले हैं, जिन्हें सुनकर क्षण में वह अपने स्वरूप का अनुभव करता है.



भक्ति करे कोई सूरमा

फरवरी २००७ 
भक्ति स्वयं प्रकाशित है, वह मणि है, जिसे न हवा का डर है न उसे जलाने के लिए तेल चाहिए. जैसे ज्ञान के दीपक को जलाने के लिए स्वाध्याय का तेल चाहिए. अन्य सभी साधनों में भी निरंतर अभ्यास की आवश्यकता हैं क्योंकि साधक स्वयं पर निर्भर है पर भक्ति में उसका भार स्वयं प्रभु ले लेते हैं. उसे तो बस पूर्ण समर्पण करना है. जब भक्त पूरी तरह से उन पर निर्भर हो जाता है तब भगवान उसके दोषों की तरफ नहीं देखते. उसके प्रति प्रेम वह जल है जो  त्रितापों से हमें बचाता है. जिसे हम प्रेम करते हैं उसे सुख मिले भक्त के हृदय में यह भावना दृढ़ होती है तभी उसके भीतर प्रेम नित-नित बढ़ता जाता है.


Monday, September 1, 2014

ॐ नमः शिवाय


शिव हमारी आत्मा है, शिव का नंदी मानो हमारा शरीर है. शिव मन्दिर में प्रवेश करना हो तो पहले नंदी का दर्शन होता है, जिसका मुंह शिव की तरफ है पर मध्य में कछुआ है अर्थात अपनी इन्द्रियों को अंतर्मुख करके ही हम आत्मा तक पहुंच सकते हैं. मन्दिर का द्वार छोटा है सो झुक कर ही जाना होगा. शिव तत्व वह है जो पांचों भूतों में ओतप्रोत है, जो तीनों अवस्थाओं में व्याप्त है, जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति का वह साक्षी है, तीनों से परे भी है. एक बार जो उसका अनुभव कर लेता है, निरंतर उसकी प्रतीति भीतर होती रहती है.