मार्च २००७
हम व्यर्थ ही मन में संकल्पों का जाल बुनते हैं और व्यर्थ ही
विपदाओं को मोल लेते हैं. प्रभु के भक्त के लिए एक क्षण के लिए भी उसका विस्मरण
विपदा के समान ही तो है, आत्मा का सूर्य जब पल भर के लिए भी संकल्प रूपी बादल से ढक
जाये तो कैसी छटपटाहट सी होती है, कोई भीतर से हमें कुरेदता है. जितना हम उससे
प्रेम करते हैं उससे कहीं ज्यादा वह हमसे प्रेम करता है. वह भी तो इस बात के लिए
प्रतीक्षित रहता है कि कोई उसे पुकारे. हम जिस क्षण असजग हो जाते हैं तभी अभाव
सताता है, वास्तव में अभाव उसी का होता है जिसे भरना हम बाहरी वस्तुओं से चाहते
हैं.
बहुत सुन्दर है।
ReplyDeleteस्वागत व आभार वीरू भाई !
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