मार्च २००७
दो तरह का प्रेम होता है एक साधक का, एक सिद्ध का. पहला हमें
करना है दूसरा अपने आप होता है. हमारी साधना लौकिक है और यह दूसरा प्रेम दिव्य है,
इसे पाने के लिए कीर्तन, स्मरण तथा श्रवण साधनों से भक्ति के द्वारा अंत करण की
शुद्धि करनी होगी. तब अहंकार नही रहता, संसार की वस्तुओं की कामना नहीं भी रहती तथा
हृदय की समता बनी रहती है, फिर वह दिव्य प्रेम स्वतः ही प्रकट होता है. ऐसा प्रेम
जो कभी घटता नहीं, नित्य बढ़ता ही रहता है, ऐसा प्रेम जो दोष नहीं देखता, जो सदा एक
के प्रति होते हुए भी सारी सृष्टि के लिए होता है.
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (19.09.2014) को "अपना -पराया" (चर्चा अंक-1741)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
ReplyDeleteप्रेम ही परमेश्वर है ।
ReplyDeleteबोधगम्य प्रस्तुति । प्रतिदिन सुबह - सुबह हरि -स्मरण करवाने के लिए धन्यवाद . आभार ।
बिल्कुल यही है प्रेम
ReplyDeleteराजेन्द्र जी, शकुंतला जी व वन्दना जी, आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDeleteऐसा प्रेम जो दोष नहीं देखता, ....यही शाश्वत प्रेम है ...बहुत सुंदर भाव अनीता जी ...
ReplyDeleteसुंदर विचार
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