मार्च २००७
जैसी दृष्टि वैसी ही सृष्टि दिखाई पडती है. परमात्मा का नशा शेष
सारे नशों को तोड़ देता है, इसका लक्षण है जागरण. परमात्मा को पाने की स्थिति कोई
रूखी-सूखी नहीं है. यह प्रेम से भरी है. यह हरी-भरी है. यहाँ नाद है, गुंजन है. यह
संपदा इतनी बड़ी है कि अहोभाग व्यक्त करना भी ओछा लगता है. तब मौन ही एक मात्र
सहारा रह जाता है. यह मौन अपने भीतर बहुत कुछ छिपाए है. यह उदासीनता नहीं है, यह
पूर्ण तृप्ति है. अब कुछ कहना शेष नहीं रह गया, कुछ पाना नहीं, कुछ जानना नहीं,
कुछ जताना भी नहीं. बस गूंगे की मिठाई की तरह भीतर ही भीतर उस रस का अनुभव करते
जाना. यह जग नहीं समझता क्योंकि जिसने पाया है वही तो जानेगा.
यही वह ज्ञान है (ब्रह्म ज्ञान है ,परमात्म ज्ञान )है जिसे जान लेने के बाद फिर कुछ जानना शेष नहीं रहता है। वह भी पूर्ण हैं और यह भी पूर्ण है। पूर्ण में से पूर्ण निकल जाता है फिर भी पूर्ण बच रहता है।
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