अक्तूबर २००४
प्रेम का पहला लक्षण है- प्रकाश, घने अंधकार में भी जो सभी का
दर्शन सम्भव करा देता है. जब कुछ भी समझ न आता हो तब जो भाव भीतर बुद्धि को
प्रकाशित करता है, वही प्रेम है. दूसरा लक्षण है प्रसाद, कृपा, आनन्द का अनुभव.
जहाँ प्रेम है विषाद वहाँ नहीं रहता. प्रेम की पीड़ा, प्रेम में बहे अश्रु दुःख के कारण नहीं होते, कृपा होती है तभी
उसके विरह में अश्रु बहते हैं, और कभी जैसे सब शांत हो जाता है, अनुभव बदल जाता
है, स्मृति तो सदा रहती है, उसका अगला लक्षण प्रशांत है. चित्त जब पूरी तरह से
शांत रस में डूबा हो, न विरह की तीव्रता न मिलन का सुख, केवल एक अखंड शांति का
अनुभव होता हो. प्रेम का अंतिम लक्षण है प्रसार, वह अपने आप फैलता है, प्रेम यदि
भीतर है तो वह सहज ही सब तरफ बहता है, सूक्ष्म तरंगे वातावरण में फ़ैल जाती हैं,
शुद्द प्रेम का अनुभव होने पर सारा जगत अपना लगता है, एक अंश भी यदि विरोध है तो
हम अभी दूर हैं.